भारतीय संविधान के पहले तीन अनुच्छेद यह स्पष्ट करते हैं कि इंडिया अर्थात भारत सदैव राज्यों का संघ रहेगा और जबकि संविधान की अनुसूची 1 में परिभाषित भारत की क्षेत्रीय अखंडता पवित्र है, घटक इकाइयों को केंद्रीय संसद द्वारा बदला, विलय, पुनर्गठित या नया नाम दिया जा सकता है. एक घटक इकाई में एक केंद्र शासित प्रदेश शामिल होता है.
इसमें कोई हैरानी नहीं है कि 1947 में भारत की प्रभुत्व स्थिति से लेकर 2020 में दादरा और नगर हवेली और दमन और दीव के प्रशासनिक विलय तक — भारत के राजनीतिक मानचित्र ने कई मील के पत्थर देखे हैं.
जबकि नवीनतम परिवर्तन और 2019 में जम्मू और कश्मीर का पुनर्गठन, केंद्र शासित प्रदेशों के गठन से संबंधित हैं और भाषाई आधार पर बनाया गया अंतिम राज्य 2014 में तेलंगाना था.
इसने भाषाई राज्यों के प्रशासनिक पुनर्गठन की मांग को फिर से बल दिया. इनमें महाराष्ट्र में विदर्भ, गुजरात में सौराष्ट्र, असम में बोडोलैंड, त्रिपुरा में तिपरालैंड, उत्तरी बंगाल में गोरखालैंड, ओडिशा में कोसल, बिहार में मिथिला, कर्नाटक में तुलु नाडु और कोडागु, तमिलनाडु में कोंगु नाडु, राजस्थान में मरू प्रदेश, आंध्र प्रदेश में रायलसीमा और उत्तरांध्र, साथ ही उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल, अवध, बुंदेलखंड, बघेलखंड, हरित प्रदेश शामिल हैं.
इसके अलावा जम्मू-कश्मीर और लद्दाख अपना दर्जा केंद्र शासित प्रदेश से बढ़ाकर राज्य बनाने की मांग कर रहे हैं.
अंग्रेज़ी मीडिया इन आकांक्षाओं के प्रति उदासीन रहा है, लेकिन अगर कोई क्षेत्रीय खबरों की करफ रुख करे, तो मांगों की प्रमुखता सामने आती है. इनमें से कई महत्वाकांक्षी राज्य नेशनल फेडरेशन फॉर न्यू स्टेट्स के बैनर तले एक साथ आए हैं जो मांगों का दस्तावेज़ीकरण करता है और महत्वाकांक्षी राज्यों को गृह मंत्रालय के लिए अपना ज्ञापन तैयार करने में भी मदद करता है.
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छोटे राज्यों के नफा और नुकसान
चाहे ये मांगें तुरंत स्वीकार की जाएं या निकट भविष्य में सच तो यह है कि इनमें से प्रत्येक राज्य के समर्थकों के साथ राजनीतिक बातचीत करने की ज़रूरत है. राज्य के दर्जे के फायदे और नुकसान के साथ-साथ पांचवीं और छठी अनुसूची के तहत स्थापित परिषदों को वास्तविक स्वायत्तता प्रदान करने की आवश्यकता पर चर्चा की जानी चाहिए.
हालांकि, इन मांगों ने आंदोलन का रास्ता नहीं अपनाया है, लेकिन इन क्षेत्रों के विधायकों और सांसदों सहित समर्थक शासन और संसाधनों, विशेष रूप से सिंचाई के लिए पानी और नई औद्योगिक टाउनशिप में हिस्सेदारी के लिए कड़ी सौदेबाजी कर रहे हैं. वे अपने पक्ष में जनता की राय भी जुटा रहे हैं और राजनीतिक दलों और संवैधानिक अधिकारियों को सौंपने के लिए ज्ञापन तैयार कर रहे हैं और निश्चित रूप से इस सामान्य विचार का समर्थन करने के लिए सेमिनार आयोजित करना कि 140 करोड़ से अधिक की आबादी के साथ, भारत को छोटे राज्यों में पुनर्गठित करने की आवश्यकता है. सच में उन्होंने तर्क दिया है कि जब 33.5 करोड़ की आबादी वाले अमेरिका में 50 राज्य हो सकते हैं और अधिक समरूप चीन में 34 प्रशासनिक क्षेत्र हो सकते हैं, तो भारत को यह सुनिश्चित करने के लिए 50 या अधिक प्रशासनिक क्षेत्र स्थापित करने पर विचार क्यों नहीं करना चाहिए ताकि राज्य सरकार का अपने नागरिकों के साथ बेहतर जुड़ाव हो.
राजनीतिक पार्टी, जय उत्तरांध्र लॉन्च करने के लिए भारतीय राजस्व सेवा से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने वाले पूर्व नौकरशाह मेटा रामा राव ने पूछा, “जब संगठित सेवाएं हर दस साल में कैडर समीक्षा करती हैं, तो राजनीतिक पुनर्गठन भी क्यों नहीं होना चाहिए? आज़ादी के समय कितने सचिव, जनरल, डी.जी.पी. थे? यदि उनकी संख्या सौ गुना बढ़ गई है, तो राजनीतिक क्षेत्र में समान विस्तार की पेशकश क्यों नहीं की जाती.”
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उनके अपने भले के लिए बहुत बड़ा
पुनर्गठन के लिए मुख्य तर्क यह है कि देश के कई राज्य – जिनकी शुरुआत उत्तर प्रदेश से होती है, उनके अपने और देश के हित के लिए बहुत बड़े हैं. जिन राज्यों में 20-25 से अधिक जिले हैं और तीन से चार करोड़ से अधिक की आबादी है, उन्हें कल्याण कार्यक्रमों के उचित कार्यान्वयन और विकास हस्तक्षेपों पर अनुवर्ती कार्रवाई के मामले में शासन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. उन्हें आजीविका, कौशल विकास और निवेश प्रोत्साहन से संबंधित मुद्दों का भी सामना करना पड़ता है.
तर्क यह है: एक मुख्यमंत्री संभवतः 80 जिलों के कामकाज की समीक्षा कैसे कर सकता है? वे अनेक जलक्षेत्रों में फैली सिंचाई परियोजनाओं को कैसे ट्रैक कर सकते हैं? वे विधानसभा के चार सौ सदस्यों के साथ कैसे बातचीत कर सकते हैं?
पुनर्गठन शिविर इस तथ्य की ओर भी इशारा करता है कि पुनर्गठित इकाइयां – पंजाब और हरियाणा से लेकर झारखंड और तेलंगाना तक – आमतौर पर बेहतर प्रदर्शन करती हैं, या कम से कम ‘मूल’ राज्य के बराबर हैं.
प्रत्येक पुनर्गठन के साथ मानव संसाधन और परिसंपत्ति सीमांकन की प्रक्रिया आसान हो गई है और गृह मंत्रालय को पर्याप्त अनुभव से अधिक प्राप्त हुआ है. छोटे राज्यों के गठन का विरोध – जो लगभग हर अखिल भारतीय पार्टी, कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और इसके पहले अवतार जनसंघ के साथ-साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से आया था – पिघल गया है और यहां तक कि शिवसेना, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी जैसी क्षेत्रीय पार्टियां भी महाराष्ट्र और यूपी के पुनर्गठन के लिए तैयार हो गई हैं.
दरअसल, मेवाड़ की मांग बीजेपी के जसवन्त सिंह की ओर से आई थी. इसका न तो समर्थन किया गया है और न ही इसे खारिज किया गया है.
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बढ़ती समवर्ती सूची
जब संविधान लिखा गया था, तो कार्यों का स्पष्ट सीमांकन किया गया था. संघ, राज्य और समवर्ती सूचियां भूमिकाओं के भेद में काफी स्पष्ट थीं. हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में कानून-व्यवस्था, स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि और कल्याण जैसे विषयों पर केंद्र सरकार का प्रभाव बढ़ा है. यह सिर्फ अखिल भारतीय नीति ढांचे के कारण नहीं है, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इन कार्यक्रमों को शुरू करने के लिए धन का प्रावधान किया गया है. इस प्रकार, जबकि पुलिसिंग राज्यों का क्षेत्र है, पुलिस स्टेशनों के आधुनिकीकरण के साथ-साथ मनी लॉन्ड्रिंग, ड्रग्स, तस्करी, सीमा पार अपराध, सीमा प्रबंधन और साइबर सुरक्षा से संबंधित मुद्दे भी गृह मंत्रालय की चिंताओं के कारण हैं. इसी तरह, जबकि कृषि विस्तार और कृषि विश्वविद्यालय राज्य सरकार के दायरे में हैं, अनुसंधान, कृषि ऋण, राष्ट्रीय स्तर की खरीद और मूल्य स्थिरीकरण और उर्वरकों की उपलब्धता और आपूर्ति के साथ-साथ कृषि निर्यात का समग्र समन्वय केंद्र सरकार के दायरे में आता है.
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन स्वास्थ्य कार्यक्रमों के निर्माण, वित्त पोषण और कार्यान्वयन में अग्रणी भूमिका निभाता है. मेडिकल कॉलेज राज्यों द्वारा स्थापित किए जाते हैं, लेकिन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के एक अंग मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा विनियमित होते हैं.
उपरोक्त कहने का उद्देश्य सत्ता, संसाधनों और जिम्मेदारियों के वितरण पर मूल्य निर्धारण करना नहीं है, बल्कि पाठकों के साथ उन विषयों पर भी केंद्र सरकार की बढ़ती प्रमुखता को साझा करना है जो संविधान के अनुसार राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं.
विषमता के मुद्दे
विशेषकर निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन के संदर्भ में राजनीतिक विषमता का मुद्दा अधिक विवादास्पद होता जा रहा है. चूंकि, जनगणना में एक बार फिर देरी हो गई है, निर्वाचन क्षेत्रों पर रोक कुछ और समय तक रहेगी, लेकिन टाइम-बॉम्ब टिक-टिक कर रहा है.
भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में यूपी के प्रभुत्व और प्रमुखता को लेकर दक्षिण, पश्चिम और पूर्व में भारी नाराज़गी है. ये एक विशाल राज्य है और इसका वित्तीय, राजनीतिक और प्रशासनिक दबदबा किसी भी अन्य राज्य से कहीं अधिक है. जनसंख्या की दृष्टि से यह अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी से लगभग दोगुना बड़ा है. संसद के दोनों सदनों में इसका प्रतिनिधित्व और साथ ही आईएएस और आईपीएस में कैडर की ताकत किसी भी अन्य राज्य से कहीं अधिक है. सिर्फ मंत्रियों के मामले में ही नहीं, बल्कि भारत सरकार के सचिवों के मामले में भी यूपी का प्रभाव साफ दिखता है.
शायद इसका समाधान प्रशासनिक सुविधा और विशिष्ट भौगोलिक स्थितियों के आधार पर हिंदी भाषी राज्यों सहित सभी भाषाई राज्यों के प्रशासनिक पुनर्गठन में निहित है.
राजनीतिक दलों को इस मुद्दे पर अपने कार्यकर्ताओं के साथ-साथ आम मतदाता के साथ भी चर्चा करनी चाहिए और आम सहमति बनानी चाहिए. अब समय आ गया है कि दूसरे राज्य पुनर्गठन आयोग को छोटे राज्यों की सभी मांगों की नए सिरे से जांच करनी चाहिए. 1956 में एसआरसी की सुविचारित सिफारिशों के विपरीत अन्य सभी राज्य राजनीतिक आंदोलन, या भारत की आंतरिक सीमाओं के पुनर्निर्धारण के पक्ष और विपक्ष पर गहन चर्चा के बिना चुनावी घोषणापत्र की पूर्ति का परिणाम रहे हैं.
(संजीव चोपड़ा पूर्व आईएएस अधिकारी और वैली ऑफ वर्ड्स के फेस्टिवल डायरेक्टर हैं. हाल तक वे लाल बहादुर शास्त्री नेशनल एकेडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन के डारेक्टर थे. उनका ट्विटर हैंडल @ChopraSanjeev. है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
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