पूरा गांव ही पब में नशे में धुत पड़ा है, ईस्ट जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी के एक क्रुद्ध अधिकारी ने बर्लिन को यह सूचना दी. 1953 की गर्मियों में नए सोशलिस्ट रिपब्लिक में श्रमिकों का विरोध भड़क चुका था, हजारों नागरिक सरकारी दफ्तरों पर धावा बोल रहे थे, राजनीतिक कैदी जेलों से मुक्त कराए जा रहे थे और पार्टी पदाधिकारियों को पीट दिया जा रहा था. अंतत: ईस्ट बर्लिन में प्रदर्शनकारियों से निपटने के लिए टैंक भेजने का आदेश दिया गया, अन्य जगहों पर सैनिकों ने निहत्थी भीड़ पर गोलियां बरसा दीं. तमाम लोग मारे गए और हजारों लोगों को जेल में डाल दिया गया.
सोवियत सेना के जनरल स्टाफ ने एक गोपनीय रिपोर्ट में बताया कि ‘उकसाने की पूर्व तैयारी बर्लिन के पश्चिमी क्षेत्र के निर्देशन में एक संगठित तरीके से की गई थी.’ कुछ लोगों ने इस पर भरोसा कर लिया- यहां तक कि शीर्ष सोवियत नेतृत्व के अंदर भी इस पर सहमति जताई गई.
हालांकि, पिछले हफ्ते सामने आए कुछ डिक्लासिफाइड दस्तावेज बताते हैं कि संभवत: 1949 से ही केंद्रीय खुफिया एजेंसी (सीआईए) ने सोवियत विरोधी आंदोलनकारियों को वित्त पोषित करना शुरू कर दिया था. एक दस्तावेज दर्शाता है कि 1953 के जर्मन विद्रोह में फाइटिंग लीग अगेंस्ट इनह्यूमनिटी की प्रमुख भूमिका थी जिसे उसके गठन के बाद से ही सीआईए की ‘वित्तीय मदद और दिशा-निर्देश’ मिल रहे थे. यही नहीं काफी सम्मानित दर्जा रखने वाले इंटरनेशनल कमीशन ऑफ ज्यूरिस्ट की जड़ें भी बर्लिन की इंटरनेशनल कमेटी ऑफ फ्री ज्यूरिस्ट से जुड़ी हैं, जिसे सीआईए में इसके फाइनेंसर प्रोजेक्ट कैड्रोइट के तौर पर जानते थे.
जो लोग सीआईए के घिनौने इतिहास से वाकिफ है, उनके लिए सत्ता परिवर्तन के उद्देश्य से साजिशें रची जाने की जानकारी कतई हैरान करने वाली नहीं होगी. विदेशी ताकतों को लेकर राजनेता हमेशा से ही आगाह करते रहे हैं लेकिन मातृभूमि की रूपरेखा बदलने के उनके प्रयास बदस्तूर जारी रहे हैं.
इस पटकथा का एक और पहलू है, हालांकि, जो ज्यादा चर्चित नहीं है: यहां तक कि भारतीय सरकारें विदेशी ताकतों से खतरे की चेतावनी देती हैं लेकिन पिछले कुछ समय से वे गर्मजोशी से उनके साथ हाथ मिला रही हैं.
विदेशी ताकतों के जोखिम
इस हफ्ते की शुरुआत में भारतीय जांच एजेंसी केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने विदेशी चंदा मुहैया कराने वालों के खिलाफ काफी समय से जारी अभियान को नए सिरे से तेज किया—इस बार निशाने पर था ओमिडयार फाउंडेशन, जिसने अशोका यूनिवर्सिटी और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च जैसे संस्थानों को धन मुहैया कराया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले दावा कर चुके हैं विदेशी वित्तीय मदद से चल रहे गैर-सरकारी संगठन उनके खिलाफ साजिश रच रहे हैं. 2014 में जैसा इंटेलिजेंस ब्यूरो ने दावा किया था, विदेशी वित्त पोषित अभियान भारत के सकल घरेलू उत्पाद के करीब 3 फीसदी के करीब पहुंच रहा है.
भले ही सच हो या नहीं, विदेशी ताकतों पर भारतीय प्रधानमंत्रियों के बीच एक अजब समानता दिखती है.
1955 की शुरुआत में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमेरिका पर ‘अखबारों को खरीदने और दुष्प्रचार में जुटे संगठनों का एक पूरा नेटवर्क तैयार करने’ का आरोप लगाया. फिर, बतौर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘भारत को नीचे गिराने’ की साजिश रचने वाली विदेशी ताकतों पर हमला बोला. सीआईए एजेंट और अमेरिकी खुफिया अधिकारी रसेल जैक स्मिथ ने लिखा है, ‘मैडम गांधी की राय में तो वे हर चारपाई के नीचे और नीम के हर पेड़ के पीछे छिपे पाए जाते हैं.’
यहां तक कि मनमोहन सिंह, जो यकीनन भारतीय नेताओं में वैश्विक स्तर पर सबसे ज्यादा चर्चित थे, को भी कुडनकुलम न्यूक्लियर रिएक्टर के खिलाफ एनजीओ के अभियानों को विदेशी मदद मिलने का संदेह था.
यह भी पढ़ें : भारतीय सेना का बहुसंस्कृतिवाद हमेशा एक मुद्दा रहा है, सेना के इफ्तार ट्वीट पर विवाद क्यों एक चेतावनी है
विदेशी ताकतों से हाथ मिलाना
आजादी के बाद अपने औपनिवेशिक आकाओं द्वारा जाते-जाते बड़े पैमाने पर कर्मियों- और संवेदनशील सूचनाओं- को हटा दिए जाने से ‘लाचारी जैसी दुखद-हास्यास्पद स्थिति’ में आ गई भारत की खुफिया सेवाओं के पास सुविधा के नाम पर ‘दफ्तरों का फर्नीचर, खाली रैक और अलमारियां के अलावा कार्यालय के रोजमर्रा के काम से जुड़ी कुछ सामान्य फाइलें’ ही बची थीं. सिक्योरिटी सर्विस—जिसे एमआई5 के नाम से जाना जाता है—ने जल्द ही सहायता देनी शुरू कर दी. अविनाश पालीवाल द्वारा दर्ज ब्योरे के मुताबिक, इस रिश्ते पर निर्भर हो जाना भारत की कमजोरी बन गया था. इस सबसे प्रसन्न एमआई-5 के एक मेमो में दर्ज है, ‘यह संतोषजनक है.’
1949 की गर्मियों में इंटेलिजेंस ब्यूरो के पहले प्रमुख टी.जी. संजीव संघीय जांच ब्यूरो (एफबीआई) के साथ वैकल्पिक संबंध बनाने के उद्देश्य के साथ अमेरिका की यात्रा पर पहुंचे. यह दौरे के लिए एकदम उपयुक्त समय था: भारत तेलंगाना में कम्युनिस्टों के खिलाफ विद्रोह से जूझ रहा था और आईबी को काउंटर-इंटेलिजेंस विशेषज्ञता हासिल कर पाने की उम्मीद थी.
यद्यपि, भारत-अमेरिका खुफिया संबंधों के जानकार विद्वान पॉल मैकगार के रिकॉर्ड के मुताबिक, यह बैठक किसी आपदा से कम नहीं साबित हुई. नस्लवाद के लिए कुख्यात एफबीआई निदेशक एडगर जे. हूवर के रवैये से चिढ़कर संजीव ने कहा कि वह संगठन के साथ किसी भी तरह के संबंध का विरोध करेंगे.
यद्यपि एफबीआई-आईबी के बीच रिश्ते नहीं पनप सके, सीआईए ने आगे कदम बढ़ाया. संजीव के बाद यह पद संभालने वाले बी.एन. मुलिक ने इस पर अपनी आंखें मूंद लीं कि तिब्बत में राष्ट्रवादी विद्रोहियों को आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए सीआईए की गुप्त उड़ानें जारी हैं. वैसे ये तो स्पष्ट नहीं है कि वास्तव में नेहरू इस संबंध के बारे में कितना जानते थे या क्या वह जानना चाहते थे. विद्वान क्रिस्टोफर एंड्रयूज के मुताबिक, मुलिक ने एमआई-5 और सीआईए के साथ अपने संपर्क को आम तौर पर नेहरू की जानकारी से बाहर ही रखा, क्योंकि उन्हें इस बात का डर था कि प्रधानमंत्री इसे बंद करा देंगे.
इतिहासकार जॉन गार्वर ने उल्लेख किया है कि ‘अमेरिकी गोपनीय अभियानों में भारतीय भागीदारी वास्तव में भले ही किसी भी स्तर पर रही हो, बीजिंग का मानना था कि नेहरू सीआईए के प्रयासों के बारे में जानते थे और सहयोग करते थे’—आंशिक तौर पर 1962 के युद्ध की नींव रखने के संदर्भ में.
हालांकि, 1962 के युद्ध के बाद जासूसों की अंधेरी दुनिया के ये रिश्ते स्पष्ट तौर पर सामने आ गए. भारत ने सीआईए द्वारा ऑपरेट किए जाने वाले जासूसी विमानों को ओडिशा के चारबटिया से उड़ान भरने की मंजूरी दी. नई दिल्ली में भारत-अमेरिका के ज्वाइंट कंट्रोल रूम में सीआईए-प्रशिक्षित स्पेशल फ्रंटियर फोर्स की जासूसी इकाइयों की कमी पड़ गई, जबकि लोप नूर स्थित चीन के परमाणु परीक्षण केंद्र से जुड़ा डेटा एकत्र करने के लिए हिमालय में परमाणु-सक्षम निगरानी उपकरण लगाए गए.
यह भी पढ़ें : म्यांमार में ‘आपराधिक’ राज्य-व्यवस्था उभर रही है और चीन इसमें मदद कर रहा है
भारतीय राजनीति में सीआईए
इसका कोई साक्ष्य मौजूद नहीं है कि सीआईए ने कभी भारत में सत्ता परिवर्तन की कोशिश की. इसके बजाये, यह जानकारी थोड़ा परेशान करने वाली है कि उसने सरकार चलते रहने की साजिश रची. 1959 में, जैसा मैकगार ने लिखा है, सीआईए ने केरल में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की निर्वाचित सरकार गिराने में मदद की. भारत में अमेरिका के एक अन्य राजदूत डेनियल पैट्रिक मोयनिहान लिखते हैं, सीआईए ने पश्चिम बंगाल और केरल में वामपंथियों के खिलाफ कांग्रेस के अभियानों को वित्त पोषित किया. एक उदाहरण के तौर पर, उन्होंने आरोप लगाया कि नकद राशि सीधे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को सौंप दी गई थी.
इसी तरह, 1967 में केजीबी ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विरोधियों को सीआईए की कठपुतली करार देकर बदनाम करने के इरादे से जाली पत्रों के सहारे बाकायदा दुष्प्रचार अभियान चलाया. इससे घरेलू राजनीति में थोड़ी उथल-पुथल तो मची लेकिन भारत सरकार की तरफ से कोई प्रतिरोध नहीं किया गया.
केजीबी के पहले निदेशालय का नेतृत्व संभालने वाले ओलेग कलुगिन—जो इस दुष्प्रचार के लिए जिम्मेदार थे- ने दावा किया कि दोनों महाशक्तियों की खुफिया सेवाओं ने सरकार के साथ गहरा करार कर रखा था. कलुगिन ने अपने संस्मरणों में लिखा है, ‘पूरा देश बिकने के लिए तैयार नजर आता था. कुछ समय बाद किसी भी पक्ष ने भारतीयों को संवेदनशील जानकारी देने में रुचि नहीं दिखाई, क्योंकि उन्हें लगता था कि अगले ही दिन यह सूचना उनके दुश्मनों तक पहुंच जाएगी.’
सैन्य जमावड़े से लेकर 1971 के युद्ध तक भारत-अमेरिका रिश्तों में आई खटास के बाद सीआईए विरोधी विवाद बढ़ गया.
हालांकि, सार्वजनिक तौर पर निंदा और गोपनीय खुफिया व्यवस्थाओं के बीच बहुत कुछ उजागर नहीं हुआ था.
1974 में मोयनिहान ने दावा किया कि जासूसी के आरोप में गिरफ्तार अमेरिकी राजनयिकों के निष्कासन की मांग रखी गई थीं. साथ ही वे आगे लिखते हैं, उसी समय रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के प्रमुख आर.एन. काओ की ओर से सीआईए प्रमुख विलियम कोल्बी की यात्रा का प्रस्ताव रखा गया. मोयनिहान का दावा है कि काओ ने उन्हें बताया, ‘अमेरिका में भारतीयों को मिला प्रशिक्षण शानदार था. सीआईए के निदेशक का बेहद जोरदार स्वागत होगा.’
अमेरिका ने कभी-कभी भारत के दिखावे का विरोध किया. काओ को लिखे एक पत्र में सीआईए प्रमुख जॉर्ज बुश—जो बाद में अमेरिका के राष्ट्रपति बने—ने ‘अमृतसर की घटनाओं को सीआईए के ऑपरेशन के साथ जोड़ने संबंधी सरकारी अधिकारियों के बयानों पर नाराजगी जताई, जो पूरी तरह तथ्यों के विपरीत और चिंताजनक थे.’
नुकसान से बचने की कोशिश
परस्पर रिश्तों को नुकसान से बचाने के लिए अधिकांश समय तो राजनीतिक नेताओं ने सावधानी से प्रतिक्रिया दी है, खासकर तब जब वास्तव में सीआईए की साजिशों का पता चला. 2004 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने रॉ अधिकारी रवींद्र सिंह के पाला बदलने को बहुत ज्यादा हवा नहीं दी, और यह सुनिश्चित किया कि अमेरिका के साथ काफी मशक्कत के बाद कायम हो पाए तालमेल को कोई क्षति न पहुंचे. दो साल बाद, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद तक सीआईए की घुसपैठ को लेकर भी उसी तरह से प्रतिक्रिया दी.
दशकों बाद भी शायद बहुत कम ही बदलाव आए हैं- हालांकि, आर्काइव इतनी ज्यादा खुली नहीं हैं. भारत को निशाना बनाने वाले तमाम वेस्टर्न टूलकिट को लेकर बहस के बीच, भारत और अमेरिका काउंटर-टेरेरिज्म और क्षेत्रीय सुरक्षा पर मिलकर काम कर रहे हैं. यहां तक कि भारत की खुफिया सेवाओं को एक विस्तारित फाइव आईज वैश्विक खुफिया गठबंधन के अंतर्गत लाने के प्रयास भी किए जा रहे हैं.
अस्थिरता फैलाने की विदेशी वित्त पोषित साजिशों की गंभीरता उजागर करने वाले सुझावों के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल के दौरान रॉ और सीआईए के बीच संबंध लगातार गहराते नजर आए हैं.
क्या सीआईए भारत की जासूसी कर रही है? यह तो इसका काम ही है. क्या यह फैसलों को प्रभावित करने की कोशिश करती है? यह भी इसका काम है. क्या भारत के नेता चिंतित हैं? हो सकता है-लेकिन शायद वे अपने उन सार्वजनिक भाषणों की तुलना में कुछ हद तक कम ही चिंतित हैं जो हमें इस बारे में कुछ सोचने को प्रेरित करते हैं.
(लेखक दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें : परिसीमन दिखाता है कि कश्मीर चुनौती के सामने भारतीय लोकतंत्र कैसे संघर्ष कर रहा है