scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतभारत के सामने लातिन अमेरिका जैसा बनने का खतरा, वित्तीय स्थिति को बेहतर ढंग से संभालने की जरूरत

भारत के सामने लातिन अमेरिका जैसा बनने का खतरा, वित्तीय स्थिति को बेहतर ढंग से संभालने की जरूरत

अगर भारत में घोर असमानता के साथ एक के बाद अगली पीढ़ी की स्थिति में बेहतरी नहीं होती तो वह तेज आर्थिक वृद्धि दर वाला पूर्वी एशिया न बनकर बुरा प्रदर्शन कर रहे लातिन अमेरिका जैसा बन जाएगा.

Text Size:

भारत में जब कोविड की दूसरी लहर अपना तांडव मचा रही है, तब तमाम अर्थशास्त्री आर्थिक वृद्धि दर के बारे में अपने अनुमानों में संशोधन कर रहे हैं. अधिकतर टीकाकार इस बात पर सहमत हैं कि इस साल के अंत में अर्थव्यवस्था उस स्तर पर पहुंच जाएगी जिस स्तर पर दो साल पहले थी. सवाल यह है कि उसके बाद क्या होगा. क्या यह उम्मीद की जाए कि आर्थिक वृद्धि में तेजी आएगी या देश को बीच में जाकर निराशा हाथ लगेगी?

इसके जवाब में पहली बात यह है, जो सर्वज्ञात है कि व्यवस्था कोविड के पहले से सुस्त हो रही थी. वृद्धि दर नरेंद्र मोदी के दौर में 8 प्रतिशत के शिखर पर पहुंचने के बाद 2019-20 में बमुश्किल 4 प्रतिशत रह गई थी. दूसरी बात, पिछले तीन वर्षों में वृद्धि दर को सरकारी उपभोग के कारण सहारा मिला है. इस अवधि में निजी उपभोग 2.1 प्रतिशत रहा जबकि सरकारी उपभोग 30 प्रतिशत बढ़ गया. जमा पूंजी में निवेश का और भी बुरा हाल रहा, जिसमें तीन वर्ष पहले के स्तर से 8.7 प्रतिशत की गिरावट आई है. मंदी के दौर में सरकार ही वृद्धि का मुख्य स्रोत बने, यह समझा जा सकता है और अपेक्षित भी है लेकिन इस स्थिति के साथ जोखिम भी जुड़ा है, खासकर तब जब कि सार्वजनिक कर्ज जीडीपी के दो तिहाई से 90 प्रतिशत के बराबर पहुंच गया हो.

तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि रोजगार में गिरावट आ रही है और असमानता बढ़ रही है, जिसके कारण निजी उपभोग में जल्दी सुधार की उम्मीद नहीं है. काम करने को राजी आबादी का आकार सिकुड़ा है. इस सिकुड़न में बेरोजगारी तेजी से बढ़ी है. जो लोग काम कर रहे हैं, खेती में लगे हैं (कम आय वाला रोजगार) उनकी संख्या बढ़ी है जबकि उद्योग और सेवा सेक्टर में रोजगार कम हुए हैं. इन हालात में बहुसंख्य लोगों के लिए खर्च का अपना स्तर बनाए रखने में काफी मुश्किल होगी.


यह भी पढ़ें: मौत और पत्रकारिता: भारत में कोविड से मौत के आंकड़े कम बताए गए, क्या बंटवारे से दोगुनी मौतें हुईं


अगर उपभोग में धीमी वृद्धि होती है, क्षमता के उपयोग के वर्तमान निचले स्तर को उस स्तर पर पहुंचने में दो-तीन साल लग जाएंगे जो कि नयी क्षमता में निवेश के लिए जरूरी होगा ताकि वह सक्रिय हो सके. इस बीच निवेश में मामूली वृद्धि के कारण कुल वृद्धि में तेजी असंभव है, बशर्ते घरेलू मांग में कमी की भरपाई निर्यात की मांग से न की जाए. आज यह संभव है क्योंकि विश्व अर्थव्यवस्था फिर से गति हासिल कर रही है, व्यापार में अच्छी वृद्धि हो रही है और पश्चिमी देश अपनी सप्लाई लाइन चीन से अलग फैलाना चाह रहे हैं. लेकिन ऐसी नीति जरूरी है कि निर्यातक अवसर का लाभ उठा सकें और अभी यह स्पष्ट नहीं है कि ‘आत्मनिर्भरता अभियान ’ इस जरूरत को पूरा करेगा या नहीं.

अभी, घरेलू बाज़ार में वृद्धि बाकी है. कोई भी लातिन अमेरिका नहीं बनना चाहता, जहां की असमता के गंभीर स्तर की बराबरी करने जा रहा है भारत. अमीर और गरीब में फर्क समृद्ध लोगों और शेष भारत की किस्मत में अंतर के रूप में प्रतिबिंबित होने लगा है. कुछ जीवंत बड़ी कंपनियों की वजह से उछाल लेता शेयर बाज़ार अच्छी तस्वीर तो पेश करता है लेकिन इसके उलट व्यवस्था के शेष भाग को जिस बदकिस्मती ने जकड़ रखा है वह उलटी तस्वीर पेश करती है. लातिन अमेरिका वाली तीखी असमानता घरेलू मांग को बढ़ने नहीं देती और वृद्धि पर लगाम लगाती है, खासकर तब जब बहुसंख्य आबादी को पर्याप्त शिक्षा न मिली हो और वह उच्च उत्पादकता वाले रोजगार के लिए योग्य न हो.

नीति निर्माताओं को स्कॉट फिट्जगैराल्ड के प्रसिद्ध उपन्यास (जिस पर फिल्म भी बनी) के नाम से जाने गए उस ‘ग्रेट गैट्सबी कर्व ’ पर ध्यान देना चाहिए जिसने अमेरिका में समृद्धि के दौर में असमानता और वर्गगत भेदभाव का समाधान किया. यह ‘कर्व’ दो उपायों के मेल को बताता है. एक है असमानता, दूसरा है एक से दूसरी पीढ़ी की स्थिति में आया अंतर या यह संभावना कि अगली पीढ़ी नीची आय से औसत आय की ओर बढ़ेगी.

उत्तर यूरोप के देश इस ‘कर्व’ पर सबसे बेहतर स्थिति में हैं, पूर्वी एशिया बहुत अच्छी स्थिति में नहीं है लेकिन बड़े लातिन अमेरिकी देश सबसे बुरे हाल में हैं. भारत अगर भारी असमानता और पीढ़ियों में बेहतरी की ओर बढ़ने में पिछड़ेपन का मेल करता है तो वह तेज वृद्धि दर वाली पूर्वी एशिया की बजाय सुस्त लातिन अमेरिकी देशों जैसा होकर रह जा सकता है.

इससे तभी बचा जा सकता है जब देश अपनी वित्तीय स्थिति को बेहतर तरीके से संभालता है, ज्यादा खर्च तभी करता है जब आय के उपाय कर लेता है, स्कूली शिक्षा के सुधार में निवेश करता है और श्रम-केंद्रित मगर वैल्यू-एडिंग रोजगार पैदा करता है.

बढ़ती असमानता और क्वालिटी रोजगार के लोप की अनदेखी करने वाली नीति से अपर्याप्त वृद्धि हासिल होगी. इससे सामाजिक और राजनीतिक दबाव बढ़ेंगे, जिसका सामना लातिन अमेरिका अपने लोकलुभावन और अधिनायकवादी लोकतांत्रिक देशों में कर चुका है.

(बिज़नेस स्टैंडर्ड से विशेष प्रबंध द्वारा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: कोविड से जूझती मोदी सरकार को राहत की जरूरत, RBI को अपने सरप्लस फंड से और धन ट्रांसफर करना चाहिए


 

share & View comments