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Thursday, 2 May, 2024
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गली-दर-गली देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की कोशिश शुरू हो गई है

‘एक देश, एक विधान, एक निशान’ के नाम पर बहुलता को नष्ट करने को प्रतिबद्ध पार्टी कुछ क्षेत्रों में ‘अल्पसंख्यकों के केन्द्रीकरण’ से ‘खतरा’ महसूस कर उनकी आबादी का स्वरूप बदलने पर आमादा दिखती है.'

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बंटवारे के दौरान पंजाब में हुए खूनखराबे पर, जिसमें लाखों लोग मारे गए और करोड़ों लोग विस्थापित हुए, इश्तियाक अहमद की किताब ‘द पंजाब ब्लडीड, पार्टीशंड ऐंड क्लीन्स्ड’ को बहुत महत्वपूर्ण नहीं माना जाता. अहमद ने उस भीषण हिंसा का ब्यौरा देने के लिए भारत और पाकिस्तान, दोनों के लोगों से बात की, अभिलेखागारों को भी खंगाला. उन्होंने इस सवाल पर विचार किया है कि उस हिंसा को जनसंहार कहा जा सकता है या नहीं. दरअसल, व्यापक हिंसा को जनसंहार या उस जैसा बताने का फैशन रहा है.

जनसंहार का मतलब है एक समुदाय का पूरा खात्मा, जैसा कि किसी कयामत में होता है. लेकिन बंटवारे में जो हिंसा हुई उसका मकसद यह नहीं था. अहमद ने निष्कर्ष निकाला है कि उस हिंसा का मकसद ‘नस्लीय सफाया’ था. विवाद इस बात पर था कि कौन-सी जगह भारत में रहेगी और कौन पाकिस्तान में. और इसलिए लोग दूसरे समुदाय को उस जगह से भगाने के लिए हिंसा पर उतारू हुए थे. हर कोई अपने गांव अपने देश में बहुसंख्यक लोगों के साथ रहना चाहता था.

आप अहमद के इस निष्कर्ष से तब सहमत हो सकते हैं जब आप आरएसएस मार्का बहुसंख्यकवाद में विश्वास करने वाले शख्स से यह पूछेंगे कि वह बंटवारे के बारे में क्या सोचता है. ऐसे लोगों का यही जवाब होगा कि वह हिंसा ठीक थी क्योंकि इससे भारत में मुसलमानों की संख्या और उनका प्रतिशत कम हुआ. ये लोग ‘अखंड भारत’ का सपना देखते हैं लेकिन बंटवारे को रद्द करने के बारे में नहीं सोचते. यह कल्पना तो बेसुरे धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी ही करते हैं.

जमावड़ा चिंता की बात

फिर भी, आरएसएस इससे संतुष्ट नहीं है कि पांच में से चार भारतीय हिंदू हैं. आरएसएस के बी.एल. संतोष ने, जो फिलहाल भाजपा के महासचिव हैं, हाल में कहा कि ‘अल्पसंख्यकों की संख्या नहीं बल्कि देश के कुछ भागों में उनका जमावड़ा चिंता की बात है और उस पर ध्यान देना जरूरी है.’ उन्होंने व्याख्या दी, ‘दक्षिण भारत का भूभाग भारत के कुल क्षेत्रफल का 30 प्रतिशत ही है लेकिन इसके चार राज्यों- केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश में 50 प्रतिशत से ज्यादा आबादी ईसाइयों की है, 37 प्रतिशत ईसाई पूर्वोत्तर में हैं… इसी तरह कर्नाटक और केरल में मुस्लिम आबादी मंगलुरु से लेकर उत्तरी केरल (मालाबार) तक में जमी है जबकि इन राज्यों के बाकी हिस्सों में ऐसा जमावड़ा नहीं है. तमिलनाडु की 81 प्रतिशत ईसाई आबादी कन्याकुमारी, नागपट्टिनम, और कड्डालूर जिलों में जमी है.’


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बताया जाता है कि संतोष ने यह भी कहा कि नरेंद्र मोदी सरकार ‘इस स्थिति से निपटने के लिए’ योजना बना रही है क्योंकि ‘अल्पसंख्यकों के केन्द्रीकरण’ से खतरा है.

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‘अल्पसंख्यकों के केन्द्रीकरण’ वाले क्षेत्रों को लेकर चिंता कोई नयी नहीं है. आप किसी आरएसएस कार्यकर्ता से बात कीजिए, आपको उसके मुंह से पश्चिमी यूपी, असम के कुछ हिस्सों, पश्चिम बंगाल और केरल में मुसलमानों के जमावड़े या पूर्वोत्तर में ईसाइयों के जमावड़े को लेकर शिकायत सुनने को मिल जाएगी. और फिर कश्मीर घाटी भी है. पुराने शहरों में मुस्लिम प्रमुख मोहल्लों को वे ‘मिनी पाकिस्तान’ कहते हैं. जब राहुल गांधी वायनाड से चुनाव लड़ रहे थे और वहां रैली कर रहे थे तब अमित शाह ने कहा था कि उन्हें समझ में नहीं आता कि वह ‘भारत है या पाकिस्तान.’

इस तरह का ‘जमावड़ा’ समुदायों को सांस्कृतिक स्वायत्तता और साधन प्रदान करता है. यह, हिंदुत्ववादी राजनीति करने के कारण भाजपा को इन जगहों से चुनाव जीतना मुश्किल बना देता है. कश्मीर में कभी कोई हिंदू मुख्यमंत्री नहीं रहा, लेकिन भाजपा चाहती है कि जरूर बने.

जनसांख्यिकी समीकरण में फेरबदल

अनुच्छेद 370 के कारण जम्मू-कश्मीर की जो संवैधानिक हैसियत थी उसमें ताज़ा बदलाव अब किसी भी भारतीय को वहां जमीन खरीदने की छूट देता है. कश्मीरियों को इससे सबसे ज्यादा डर लगता है. हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, और ज़्यादातर उत्तर-पूर्व में बाहर वालों को जमीन खरीदने से रोकने के प्रावधान किए गए हैं. लेकिन मोदी सरकार ने कश्मीर के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा है कि वहां ऐसे प्रावधान लागू करने पर वह विचार करेगी या नहीं. कश्मीर घाटी की आबादी का स्वरूप बदलना ही इस बदलाव की मंशा लगती है.

नागरिकता कानून में संशोधनों को लागू कर दिया जाएगा तो पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से गैर-मुस्लिम भारत की ओर आकर्षित होंगे. माना जाएगा कि ये ‘शरणार्थी’ धार्मिक भेदभाव की प्रताड़ना के शिकार हैं, भले ही वे इसके शिकार न हुए हों. इन लोगों को अल्पसंख्यकों के जमावड़े वाली जगहों में बसाया जाएगा. इससे उन जगहों पर मुसलमानों का ‘जमावड़ा’ कम होगा. इसके साथ हीं पूरे देश में नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के संशोधन से भी मुसलमानों की संख्या घटाई जाएगी (जो गैर-मुस्लिम अपनी नागरिकता नहीं साबित कर पाएंगे उन्हें नागरिकता कानून के तहत सुरक्षा दी जाएगी).

एनआरसी के कारण छांटे गए मुसलमानों को देश से बाहर नहीं भेजा जा सकेगा क्योंकि मोदी सरकार यह साबित नहीं कर पाएगी कि वे दूसरे देश के हैं. उन्हें जेलों में रखा जा सकता है लेकिन कुछ साल बाद उन्हें नागरिकता विहीन लोगों की तरह भारत में रहने दिया जाएगा और उन्हें वोट देने का अधिकार नहीं होगा. भाजपा-आरएसएस अल्पसंख्यकों के ‘जमावड़े’ के खतरे से इसी तरह निपटने की योजना बना रहा है. पूरे देश में मुस्लिमों का प्रतिशत घटाने की कोशिशें तो चलती ही रहेंगी. अब ध्यान रखिएगा, किसी दिन यह भी सुनना पड़ सकता है कि आपको इतने बच्चे पैदा करने की छूट दी जाती है, क्योंकि आपने सुना ही होगा कि 15 अगस्त के अपने सम्बोधन में मोदी आबादी को लेकर संजय-गांधीनुमा चिंता जाहिर कर चुके हैं.

एक भारत उत्तर-पूर्व में

इसलिए, उत्तर-पूर्व भारत की यह आशंका जायज है कि नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) से इस क्षेत्र की आबादी के स्वरूप को बदलने का रास्ता खुल जाएगा. अमित शाह घोषणा कर चुके हैं कि मणिपुर को इनर लाइन परमिट (आइएलपी) का दर्जा दिया जाएगा, फिर भी मणिपुर के लोग सीएबी का विरोध कर रहे हैं. नये नागरिकता कानून के तहत जिन लोगों को नागरिकता दी जाएगी वे आइएलपी वाले इलाकों में नहीं बस सकेंगे. इसके बावजूद मणिपुर इसलिए विरोध कर रहा है क्योंकि वहां के लोगों को भाजपा की मंशा पर भरोसा नहीं है.


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‘एक देश, एक विधान, एक निशान’ के नाम पर बहुलता को नष्ट करने को प्रतिबद्ध पार्टी उत्तर-पूर्व में भी आबादी का स्वरूप बदलने के कदम उठाएगी, चाहे वह इसके विपरीत कोई आश्वासन क्यों न दे रही हो. उत्तर-पूर्व के कुछ भागों में ईसाइयों का जमावड़ा आखिर उसके लिए चिंता और ‘खतरे’ की बात है ही.

इसी तरह राज्य-दर-राज्य, गली-दर-गली, भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाया जाएगा. आज हम जो देख रहे हैं वह ‘नस्लीय सफाये’ की सरकारी कोशिश की शुरुआत है. यह बिना खूनखराबे के भी पूरी की जा सकती है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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