इस 14 अक्टूबर को ग्लेबल हंगर इंडेक्स (विश्व भूख सूचकांक) 2022 जारी हुआ. कुल 121 देशों में भारत का रैंक 107 है और देश में भूख और कुपोषण का स्तर अब ‘गंभीर’ है.
इस इंडेक्स में पर भारत की रैंक 2020 से ही लगातार गिरती जा रही है. 2020 में यह 94 और 2021 में 101 था. दरअसल बच्चों को नुकसान या 5 साल से कम उम्र बच्चों की लंबाई के अनुपात में कम वजन की दर 19.3 प्रतिशत है, जो दुनिया में सबसे ज्यादा है. लगभग 16.3 प्रतिशत भारतीय कुपोषण के शिकार हैं. 5 वर्ष से कम उम्र का हर तीन में से लगभग एक बच्चा छोटे कद का है.
यह हालत तब है, जबकि भारत में दूध, दालों, केले की पैदावार दुनिया में सबसे अधिक है और गेहूं, चावल और सब्जियों की पैदावार में दुनिया में दूसरे नंबर का देश है. भारत मछली और मुर्गी पालन के मामले में भी दुनिया के आला देशों में है.
तो, यह कैसे संभव है कि हम दुनिया में महत्वपूर्ण खाद्य पदार्थों की पैदावार में तो अव्वल हैं, लेकिन हमारी आबादी पोषण और भोजन से वंचित है? इसकी एक बड़ी वजह यह हो सकती है कि भारत में बड़े पैमाने पर खाद्य पदार्थों की बर्बादी और नुकसान हो रहा है. इसे ऐसे समझते हैं.
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भारत में खाद्य पदार्थों का कितना नुकसान
आपकी थाली में पहुंचने से पहले, खाद्य पदार्थ किसान के पास से थोक विक्रेताओं, खुदरा विक्रेताओं और कभी-कभी खाद्य प्रसंस्करण उद्योग तक पहुंचता है. हर स्तर पर, फसल की पैदावार का कुछ हिस्से का नुकसान हो जाता है.
कई अध्ययनों में इस नुकसान को आंका गया है. इनमें तीन अध्ययन गौरतलब हैं. एक, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय की आईसीएआर-सिफेट (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद-केंद्रीय फसल कटाई पश्चात इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी संस्थान) की 2015 की रिपोर्ट में 45 फसलों का अध्ययन किया गया है. दूसरे, केंद्र सरकार का लघु किसान कृषि-व्यवसाय संघ (एसएफएसी) की 2015 में पूर्वोत्तर क्षेत्रों में बागवानी फसलों का अध्ययन. और तीसरे, खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की एसओएफआई (स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड 2019) और एसओएफए (स्टेट ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चर 2019) की रिपोर्ट.
खाद्य पदार्थों का नुकसान उसकी बर्बादी से अलग है. फसल कटाई के बाद उसकी जो मात्रा खुदरा विक्रेता तक नहीं पहुंच पाती, उसे नुकसान कहा जाता है, जबकि उसकी बर्बादी उपभोक्ता करते हैं.
आईसीएआर-सिफेट की 2015 की रिपोर्ट के अनुसार, खुदरा विक्रेता तक पहुंचते-पहुंचते कृषि उपज का 1 प्रतिशत (दूध के मामले में) से 16 प्रतिशत (जैसे, अमरूद) तक का नुकसान हो जाता है. एसएफएसी (2015) के अनुसार, यह नुकसान 9 प्रतिशत (आलू में) से लेकर 32 प्रतिशत (मटर में) तक होता है. एफएओ का आकलन और अधिक है. उसके मुताबिक, 6.3 प्रतिशत (कपास) से 30.2 प्रतिशत (समुद्री मछली) तक नुकसान होता है.
इन तीन रिपोर्टों में अपनाई गई पद्धति का अंतर हैं, जिससे उनकी तुलना संभव नहीं है. फिर भी, इस डेटा के जरिए भारत में खाद्य पदार्थों के नुकसान के कुछ दिलचस्प पहलुओं को समझने में मदद मिल सकती है.
अधिक पैदावार घाटा बढ़ाती है और बेहतर कीमतें घाटा कम करती हैं
यह आंका गया है कि जब भी पैदावार बहुत ज्यादा होती है (जो लगभग हर दूसरे वर्ष आलू, टमाटर और प्याज वगैरह के मामलों में होता है), तो बाजार न मिलने से 20 से 30 प्रतिशत पैदावार बर्बाद हो जाती है (एसएफएसी अध्ययन के हवाले से दलवई 2017). किसान निराश होकर अपनी फसल फेंक देते हैं. कई बार वे ढुलाई की लागत भी वसूल नहीं कर पाते हैं और फसल को फेंकने के लिए मजबूर होते हैं. इसके उलट, जब खाद्य पदार्थों की कीमतें तेज होती हैं, तो नुकसान कम हो जाता है (एफएओ 2019). उपभोक्ता भी महंगा खाद्य पदार्थ खरीदने और बर्बाद करने में दो बार सोचता है.
रख-रखाव, भंडारण, ढुलाई में अधिक नुकसान
आईसीएआर-सिफेट की रिपोर्ट 2015 के अनुसार, फसल का सबसे अधिक नुकसान किसान के स्तर पर होता है, लेकिन एसएफएसी और एफएओ अध्ययनों के अनुसार, ज्यादातर नुकसान, खासकर फल-सब्जियों के मामले में, ढुलाई और भंडारण के दौरान होता है (एफएओ सोफा 2019 और दलवई 2017). किसान, मंडी, और खुदरा विक्रेता के स्तर पर वैज्ञानिक तौर पर भंडारण की कमी मूल्य चेन में नुकसान के कारण हैं.
खाद्य पदार्थ का नुकसान और खेत की लागत
खाद्य पदार्थ के नुकसान पर अध्ययन में हमने नुकसान के मसले की गंभीरता को समझने के लिए अलग तरीका अपनाया. ऐसा ही एक तरीका है उसकी खेत लागत की तुलना (एलईसी) का पता लगाना. हमने इसे इस रूप में आंका कि नुकसान हुई फसल के लिए कितने खेत इस्तेमाल हुए.
हमने फसल के नुकसान (आईसीएआर-सिफेट) और फसल की सालाना पैदावार के आंकड़ों का इस्तेमाल किया. हमने उसे जोड़कर यह अनुमान लगाया कि उस वर्ष कितनी फसल नुकसान हुई. आइए गेहूं का उदाहरण लेते हैं. सिफेट के अनुसार, लगभग 4.9 प्रतिशत गेहूं का मूल्य चेन में नुकसान हो जाता है. अर्थव्यवस्था और सांख्यिकी निदेशालय (डीईएस) के अनुसार, 2015-16 में भारत में लगभग 9.3 करोड़ मीट्रिक टन (एमटी) गेहूं की पैदावार हुई थी. इसका मतलब यह हुआ कि उस वर्ष लगभग 45.5 लाख एमटी गेहूं खुदरा विक्रेता तक नहीं पहुंच पाया. उस वर्ष भारत में गेहूं की औसत उपज लगभग 3 टन प्रति हेक्टेयर थी. यानी 4.55 लाख एमटी गेहूं की पैदावार के लिए, भारत में लगभग 15 लाख हेक्टेयर खेत का इस्तेमाल हुआ होगा.
गेहूं की ही तरह, हमने 2015-16 के लिए 27 अन्य फसलों की एलईसी का अनुमान लगाया (आईसीएआर की रिपोर्ट में 45 फसलों के नुकसान का अनुमान है).
हमने पाया कि उन 27 फसलों का लगभग सालाना 6.02 करोड़ एमटी नुकसान हो जाता है और उसकी एलईसी 1.01 करोड़ हेक्टेयर थी. मतलब यह है कि भारत की कृषि भूमि के लगभग 1 करोड़ हेक्टेयर (भारत में सकल फसल रकबा लगभग 19.7 करोड़ हेक्टेयर) की उपज एक वर्ष में बर्बाद हो जाती है. यह पूरे पंजाब के सकल फसल रकबा 79 लाख हेक्टेयर (2018-19) या आंध्र प्रदेश (73 लाख हेक्टेयर) या यहां तक कि बिहार (74 लाख हेक्टेयर) से अधिक है.
आईसीएआर-सिफेट की 2015 की रिपोर्ट के नतीजे पुराने हैं क्योंकि उसके लिए डेटा 2013-14 में इकट्ठा किया गया था. हाल ही में, खाद्य पदार्थों के नुकसान का मूल्यांकन करने के लिए नाबकॉन्स (नाबार्ड कंसल्टेंसी सर्विसेज) को अध्ययन करने के लिए कहा गया है. हम नाबकॉन्स के अध्ययन की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जिससे नुकसान का अधिक ताजा अनुमान संभव होगा. पिछले कुछ वर्षों में नरेंद्र मोदी सरकार के उठाए विभिन्न कदमों से उम्मीद की जाती है कि नुकसान पहले के मुकाबले कुछ कम होगा. फिर भी, इस विश्लेषण से भारत की लगातार नीचे झूलती समस्या और देश में भूख और कुपोषण की समस्या के हल का संकेत देने में मददगार है.
आगे क्या?
जो आप बचाते हैं, वह आपकी आमदनी है. इसी तरह अन्न की बचत खाद्य पदार्थों की पैदावार है. ऐसा नहीं है कि नुकसान को पूरी तरह रोका जा सकता है. विकसित देशों में भी ऐसे नुकसान होते हैं. उपलब्ध आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में मक्का और चावल में क्रमश: 4.7 प्रतिशत और 5.5 प्रतिशत का नुकसान हुआ (आईसीएआर-सीफेट 2015), जबकि यूक्रेन जैसे देश में 2016 में 2.73 प्रतिशत और 1.7 प्रतिशत का नुकसान दर्ज हुआ (एफएओ). गेहूं के मामले में, कनाडा में 2013 में 0.06 प्रतिशत का नुकसान हुआ, जबकि 2015 में भारत में 4.9 प्रतिशत (एफएओ). यकीनन नुकसान घटाने की गुंजाइश है.
किसानों को सही समय पर सही कीमतें उपलब्ध कराने का तंत्र मुहैया करके, अधिक उपज के दौरान ‘अतिरिक्त’ पैदावार की खपत के लिए प्रसंस्करण उद्योग को प्रोत्साहन देकर, और किसानों व बाजारों को साइलो तथा ढुलाई- वैज्ञानिक भंडारण की सविधा मुहैया कराके नुकसान वाकई कम किया जा सकता है. निजी क्षेत्र इन मूल्य चेन्स में नए तरीके ईजाद कर रहा है. ग्रीनपॉड लैब्स पैकेजिंग और भंडारण में नवाचार कर रहा है, ताकि खाद्य पदार्थों को अधिक समय तक रखा जा सके. देहात जैसे प्लेटफॉर्म किसानों और खरीदारों को ऑनलाइन मार्केटप्लेस मुहैया करता है, ताकि बिचौलियों को कम किया जा सके.
खाद्य पदार्थों के नुकसान और बर्बादी को कम करने लिए सरकारी और निजी क्षेत्र के निवेश और नवाचार और निवेश जरूरी हैं.
इस वर्ष 2022 में खाद्य पदार्थों की महंगाई से दुनिया भर में खाद्य संकट पैदा हुआ है, जिससे लाखों लोग भूख, अभाव और कुपोषण के जाल में फंस गए हैं. विश्व बैंक के अनुसार, इस वर्ष 53 देशों और क्षेत्रों में लगभग 22.2 करोड़ लोग काफी तेजी से खाद्य असुरक्षा के शिकार हैं. खाद्य पदार्थों की अधिक पैदावार पर जोर देना एकदम वाजिब है, लेकिन हमारी राय में खाद्य पदार्थों के नुकसान और बर्बादी को रोकने पर ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए.
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(सैनी प्रमोटर-डायरेक्टर हैं और खत्री आर्कस पॉलिसी रिसर्च में कंसल्टेंट हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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