हमास-इज़रायल जंग पांचवें सप्ताह में पहुंच गई है और बेकसूर नागरिकों की बड़ी संख्या में मौत इसके राजनीतिक-रणनीतिक पहलू पर हावी होती जा रही है. हमास ने 7 अक्टूबर को हिंसा का जो दुष्चक्र शुरू किया था उसमें 1200 लोग मारे गए थे और इस आतंकी संगठन ने बच्चों समेत 200 से ज्यादा लोगों को बंधक बना लिया था. इसके जवाब में इज़रायल ने उत्तरी गाज़ा पर धावा बोल दिया था और उसके बाद से फिलस्तीन में मानवीय त्रासदी की सारी सीमाएं टूटती रही हैं.
इस लेख का मकसद एक “जायज जंग” की परंपरा के खांचे में कार्रवाई और जवाबी कार्रवाई के चक्र को समझना है. यह परंपरा “जंग लड़ने के अधिकार” और “जंग में जायज क्या है” के बारे में निर्णय करने की नैतिक कसौटी को निर्धारित करती है. लेख में इस मसले की प्रासंगिकता को पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद को अपनी विदेश नीति का औज़ार बनाने के प्रयासों के प्रति भारत के रुख के संदर्भ से भी समझने की कोशिश की गई है.
“जंग लड़ने के अधिकार” के मामले में अकादमिक जगत में सबसे व्यापक रूप से मान्य कसौटियां ये हैं– जायज मकसद, वैध सत्ता, समानुपातिकता, और अंतिम विकल्प. “जंग में जायज क्या है” का ताल्लुक इस बात से है कि हिंसा के लिए अपनाए गए साधन क्या जायज हैं? मामला साधन तथा भेदभाव के समानुपात का है.
जायज जंग
अपेक्षा की जाती है कि जंग की जायज परंपरा के बारे में इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस तक के फैसले केवल हारने वालों या कमजोरों को ही बहला सकते हैं. देशों के आपसी रिश्तों की अराजक व्यवस्था के बारे में ई.पू. तीसरी सदी में थुसीडाइड ने जो कहा था वह आज भी लागू है– “दुनिया की जो रीत है, उसमें जायज क्या है यह समान शक्ति वालों के बीच का ही सवाल होता है, ताकतवर जो चाहे वह करता है और कमजोर को तकलीफ भुगतना ही बदा है”.
तब से आज बदलाव शायद सिर्फ यह हुआ है कि जंग में शामिल पक्षों को कई तरह के मीडिया मंचों पर एक साथ अपना-अपना प्रदर्शन करना पड़ता है. इसमें जो साधन अपनाए जाते हैं उन्हें प्रायः घटना के साथ-साथ प्रस्तुत करना पड़ता है, जिससे एक समानांतर जंग आख्यान के स्तर पर चलती है जिसका मकसद नैतिकता की कसौटियों के बूते दर्शकों-श्रोताओं की मान्यताओं को प्रभावित करना होता है.
कर्ता-धर्ता देश के नागरिक हों या नागरिकता विहीन तत्व हों, वे नैतिक नहीं होते. आखिर, राजकाज और रणनीति नैतिकता के बूते चलने वाली चीज नहीं है. अपने राज्य की ओर से काम करने वाले नेता देश-विदेश के सामने बेशक खुद को जायज बताते हैं. लेकिन मुखौटा अक्सर असली चेहरे को जाहिर कर देता है, और सच को तोड़ना-मरोड़ना पूरी प्रक्रिया का हिस्सा माना जाता है.
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जंग लड़ने का अधिकार
जहां तक जंग के मकसद के जायज होने का सवाल है, हमास के और इज़रायली सरकार के भी अपने-अपने दावे मजबूत हैं. हमास खुद को एक प्रतिरोध आंदोलन का अगुआ मानता है लेकिन अरब दुनिया की ओर से समर्थन का कमजोर पड़ना, और अरब-इज़रायल के बीच सुलह की उम्मीद को स्थायी निंदा के रूप में देखा गया और वे गाज़ा में कैद हो गए, जिसे करीब दो दशकों से खुली जेल जैसा माना जाता रहा है. इजरायल के लिए 7 अक्तूबर को हमास का हमला, बेकसूर नागरिकों का अपहरण असहनीय था. इसने नफरत का तूफान खड़ा कर दिया, प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और उनके समर्थक तभी शांत होंगे जब हमास संगठन का नामोनिशान खत्म होगा.
जहां तक वैध सत्ता का मामला है, हमास एक वास्तविक तानाशाही तथा एकदलीय राज्यसत्ता जैसी व्यवस्था के रूप में 2007 से राज कर रहा है. अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त फिलस्तीनी सरकार वेस्ट बैंक में महमूद अब्बास के नेतृत्व में कायम है. अमेरिका से लेकर यूरोपीय संघ, ब्रिटेन, इज़रायल, जापान, ऑस्ट्रेलिया समेत अधिकांश पश्चिमी देशों ने हमास को आतंकवादी संगठन घोषित कर रखा है. हमास को मुख्य रूप से ईरान से और लेबनान के हिज़्बुल्ला से समर्थन मिल रहा है. क़तर उसे वित्तीय सहायता दे रहा है और संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों की ओर से मिलने वाली अंतरराष्ट्रीय सहायता दिलाने में माध्यम का काम की भूमिका निभा रहा है. दूसरी ओर, इज़रायल को अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था से वैध मान्यता हासिल है.
समानुपातिकता की कसौटी का तकाजा है कि कोई देश भले ही जायज मकसद के लिए जंग कर रहा हो मगर उस जंग को तब तक जायज नहीं माना जाएगा जब तक वह उस नाजायज चीज के समानुपात में न हो. इज़रायली कब्जे की गिरफ्त में फंसे हमास के लिए राहत की उम्मीद नहीं नजर आती मगर इस कसौटी के मुताबिक उसका दावा मजबूत है, और हमास के 7 अक्तूबर के हमले के बाद इज़रायल का दावा भी मजबूत हो गया है.
इसी तरह, “अंतिम विकल्प” वाली कसौटी पर भी दोनों के दावे मजबूत हैं. अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने हमास को खारिज कर दिया है इसलिए उसके पास इज़रायली कब्जे के खिलाफ दूसरा कोई विकल्प नहीं रह गया है. इज़रायल का मानना है कि जब तक संगठन के रूप में हमास को नष्ट नहीं किया जाता , तब तक उसके लोग सुरक्षित नहीं हो पाएंगे. इसलिए गाज़ा पर धावा उसके लिए अंतिम विकल्प है.
जंग में जायज क्या है
जब यह सवाल सामने आता है कि जंग में जायज क्या है, तब आपस में जुड़ी ये दो कसौटियां प्रमुख हो जाती हैं— समानुपातिकता, और फर्क करने की कसौटी. इन्हें अलग-अलग विश्लेषित नहीं किया जा सकता.
साधन की समानुपातिकता के अनुसार, अपनी रणनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए उसके समानुपात में ही जरूरी ताकत का इस्तेमाल किया जाना चाहिए. इस कसौटी के दो तत्व हैं—एक, केवल जरूरी ताकत का इस्तेमाल; और दूसरा, क्या लक्ष्य इतना महत्वपूर्ण है कि ताकत का इस पैमाने पर इस्तेमाल किया जाए? इसके अलावा, इस्तेमाल की गई ताकत फर्क करने कसौटी से अभिन्न रूप से जुड़ी है, जो जंग लड़ने वालों और न लड़ने वालों में फर्क करती है.
1949 के जेनेवा समझौते और 1977 तथा 2005 के अतिरिक्त प्रोटोकॉल ने कई प्रमुख मानवीय कानून बनाए जिन्हें सभी देशों ने अपनाया. इन समझौतों में जंग लड़ने वालों, घायल और बीमार या समुद्री जहाज दुर्घटना में घायल सैनिकों, युद्धबंदियों, नागरिकों के साथ-साथ चिकित्सा कर्मचारियों, सेना के असैनिक सहायकों तथा पादरियों आदि की सुरक्षा के लिए नियम तय किए गए हैं.
यह तो स्पष्ट है कि इज़रायल ने जंग लड़ने वालों और न लड़ने वालों के बीच भेद न करके ‘जंग में जायज क्या है’ वाले पहलू और जेनेवा समझौते का खुला उल्लंघन किया है. मारे गए नागरिकों, खासकर बच्चों की बढ़ती संख्या, चिकित्सा व्यवस्था से लेकर शरणार्थी शिविरों और जिन स्कूलों में नागरिकों ने शरण ली है उन पर हमलों और उन्हें पानी, खाना, बिजली आदि से वंचित करने को यह कहकर उचित ठहराया जा रहा है कि हमास अपनी सुरक्षा के लिए नागरिकों को ढाल बना रहा है. लेकिन असली सवाल क्या यह इज़रायल को यह अधिकार देता है वह नागरिकों के खिलाफ अपनी कार्रवाई के असर की अनदेखी कर सकता है? वह नागरिकों को आधिकारिक तौर पर चेतावनी देता रहा है कि वे उत्तरी गाज़ा से निकलकर दक्षिणी गाज़ा चले जाए, जबकि वह जीने के लिए जरूरी तमाम सुविधाओं को नष्ट करता जा रहा है. इज़रायल जरूरी मेडिकल सहायता, ईंधन, पानी, खाना आदि को जंग प्रभावित इलाकों में जाने से रोकता भी रहा है.
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आतंकवाद और राजनीतिक समाधान
इज़रायल ये सारे उल्लंघन मुख्यतः इसलिए कर पा रहा है कि उसे अमेरिका और उसके अधिकतर मित्र देशों से समर्थन मिल रहा है. अमेरिका ने जो भी जंग लड़ी है उनमें से अधिकतर का ट्रैक रेकॉर्ड भयावह रहा है. उससे यह उम्मीद पूरी तरह भ्रामक ही होगी वह इज़रायल पर मानवीय क़ानूनों का पालन करने का दबाव डालेगा. गाज़ा के नागरिक अपने ही भरोसे हैं और यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों को भी न केवल नाकाम बना दिया गया है बल्कि उन्हें अपने कई लोगों को भी उनकी मौत के कारण गंवाना पड़ा है और गंभीर नुकसान का भी सामना करना पड़ा है.
जाहिर है, इज़रायल फर्क करने वाली कसौटी की अनदेखी करते हुए हिसाब-किताब करता रहा है. इससे भी बुरी बात यह है कि जबकि इज़रायल ने जेनेवा समझौते पर खुद भी दस्तखत किया है और वह युद्ध के सिद्धांतों का उल्लंघन करता रहा है, इसके बावजूद अधिकांश दुनिया इन पर महज जबानी जमा खर्च ही करती रही है.
वक़्त आ गया है कि इज़रायल और अमेरिका यह समझ लें कि आतंकवाद को केवल ताकत के ज़ोर पर खत्म नहीं किया जा सकता. आतंकवाद कमजोरों का औज़ार है जिसका इस्तेमाल वे अपनी सैन्य तैयारी के अभाव की भरपाई करने के लिए करते हैं. कमजोरों के नजरिए से, बेकसूर नागरिकों को दूर से मिसाइलों और बमों की मदद से हत्या करने और इसे नुकसान बताने को उचित नहीं ठहराया जा सकता. आतंकवाद से निबटने के लिए राजनीतिक मसलों का समाधान भी जरूरी है, जिन्हें जायज मकसद बताकर आतंकवादी हमले किए जाते हैं और उन्हें अपने वजूद के लिए ढाल के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है.
इज़रायल अगर दक्षिणी गाज़ा को आबादी मुक्त बना देता है तब भी वह कुछ ही समय के लिए शांति हासिल कर सकेगा. लेकिन मध्यम और लंबे समय की बात करें तो इज़रायल और ज्यादा असुरक्षित हो जाएगा क्योंकि हमास के जो भी तत्व बचे रह जाएंगे उनसे उसे न केवल जवाबी हमलों का सामना करना पड़ेगा बल्कि व्यापक इस्लामी दुनिया की ओर से निंदा और विरोध से भी निबटना पड़ेगा. दुनिया भर के युवाओं ने खुद देखा है कि इज़रायल किस तरह जातीय सफाये और नरसंहार को अंजाम देता रहा है. इन युवाओं के निशाने पर न केवल इजरायल होगा बल्कि दुनियाभर में यहूदी भी खतरे में पड़ जाएंगे और ईसाई भी घेरे में आ जाएंगे.
भारत और पाकिस्तान
जो लोग सत्ता में हैं उन्हें यह समझना पड़ेगा कि दुनियाभर में आतंकवाद की वापसी और मजबूत होगी. इसे वैश्विक भू-राजनीति में हो रही उथलपुथल के संदर्भ में देखें तो यह खतरा और स्पष्ट हो जाता है.
भारत भी इस चपेट में आ सकता है क्योंकि पाकिस्तान की आर्थिक बदहाली के साथ दुनियाभर में जारी धार्मिक झगड़े भी जुड़े हैं. कल्पना कीजिए कि भारत हिंदू बहुसंख्यकवाद में डूबा हुआ है और पाकिस्तान आतंकवादी हिंसा के जुनून से भरा है, तब किसी धार्मिक जमावड़े पर आतंकवादी हमला बदले की आग को भड़का सकता है और तब सरकार इस उधेड़बुन में फंस सकती है कि जनता की मांग को पूरा करने के लिए वह क्या करें. ऐसी काल्पनिक स्थिति में इस सवाल का कोई निश्चित जवाब नहीं हो सकता लेकिन हमास-इज़रायल जंग से सबक लिया जा सकता है हालांकि संदर्भ में काफी अंतर है, और ऊपर से परमाणु हथियार रूपी तलवार भी लटक रही है.
अब यह अमेरिका के जिम्मे है कि वह गाज़ा में इज़रायल जो विध्वंस मचा रहा है उससे उसे रोके. युद्धविराम की बढ़ती मांग पर ध्यान देना पहली जरूरत है. सऊदी अरब के नेतृत्व में अरब और कुसलीम देशों के विदेश मंत्रियों ने घोषणा की है कि वे “गाज़ा में जंग को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कार्रवाई करेंगे… और उनका पहला पड़ाव चीन होगा”. यह अमेरिका की इस छवि को धूमिल करने के लिए महत्वपूर्ण साबित होगा कि वह वैश्विक व्यवस्था की स्थिरता का बड़ा रखवाला है.
यह ईरान और लेबनान जैसे अरब देशों की भी जिम्मेवारी है कि वे हमास पर लगाम कसें और युद्धविराम करवाएं. युद्धविराम के बाद मानवीय उपायों को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी. गेंद अब अमेरिका और अरब देशों के पालों में है. वे न केवल कर्ता-धर्ता हैं बल्कि उनका संयुक्त दबाव मनुष्य की बर्बरता के ज्वार को थामने की उम्मीद जगा सकता है. उन्हें इस बेहद संवेदनशील क्षेत्र में अमन बहाली के प्रयासों से तो पीछे नहीं ही हटना चाहिए.
(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला संस्थान में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक; राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. उनका एक्स हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी हैं)
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