2024 में ट्रैवल और टूरिज़्म ने ग्लोबल जीडीपी में लगभग 10.9 ट्रिलियन डॉलर का योगदान दिया, जो दुनिया की अर्थव्यवस्था का 10 प्रतिशत है. यह क्षेत्र दुनियाभर में 35.7 करोड़ नौकरियों का समर्थन करता है और रोज़गार को बड़ा सहारा देता है. घरेलू स्तर पर, टूरिज़्म भारत की जीडीपी में करीब 6-7 प्रतिशत का योगदान करता है और कई क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था को चलाए रखता है. इसलिए यह घरेलू और वैश्विक अर्थव्यवस्था दोनों का मज़बूत स्तंभ है.
यात्रा, रोमांच और खोज सिर्फ शौक नहीं, बल्कि बढ़ने और सीखने के तरीके भी हैं. आवाजाही की स्वतंत्रता के अधिकार से सुरक्षित, यह हाल के समय में आत्म-खोज, विकास और एकांत की ज़रूरत बन चुका है. जैसे-जैसे टूरिज़्म सेक्टर बढ़ा है, इसने मेहमाननवाज़ी और इंफ्रास्ट्रक्चर को भी मज़बूत किया है ताकि पर्यटकों की ज़रूरतें पूरी हो सकें. हाल के भू-राजनीतिक घटनाक्रम, जैसे मालदीव और लक्षद्वीप को लेकर हुए विवाद ने दिखाया है कि टूरिज़्म सॉफ्ट पावर का एक मज़बूत साधन है और कूटनीतिक रिश्तों में अहम भूमिका निभा सकता है.
लेकिन एक अहम सवाल उठता है: जब एक नागरिक का यात्रा करने का अधिकार दूसरे के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार पर असर डालने लगे तो क्या होगा? यही सवाल ओवर-टूरिज़्म की बहस के केंद्र में है. जब पर्यटन बढ़ता है तो पर्यटकों की संख्या प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र पर बोझ डालती है, पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर पर दबाव बढ़ाती है और स्थानीय जीवन की गुणवत्ता को कम करती है. यह बहस अक्सर दो अतियों के बीच झूलती रहती है, लेकिन अगर वैज्ञानिक उपाय न हों, तो यह वैश्विक टूरिज़्म के असली संकट से ध्यान हटा सकती है.
इन दो उदाहरणों पर विचार कीजिए. अमेरिका के ग्रेट स्मोकी माउंटेन्स हर साल ट्रेलरों, हाइकर्स और कचरे के दबाव से खराब हो रहे हैं. थाईलैंड की माया बे को 2018 में बंद करना पड़ा क्योंकि वहां के कोरल रीफ खतरे में आ गए थे. दोनों मामले एक दुखद कहानी कहते हैं—सुंदर, प्राकृतिक और सांस्कृतिक धरोहरें इंसानी एड्रेनालिन को बढ़ाने के लिए मनोरंजन और रोमांच के साधन बनकर रह गईं.
‘बहुत ज़्यादा सैलानी, बहुत कम जगह’
वैश्विक जनसंख्या 2025 में 8.2 अरब से ऊपर पहुंचने का अनुमान है और यही पर्यटन बढ़ने की बड़ी वजहों में से एक है. अंतरराष्ट्रीय पर्यटक आगमन पहले ही महामारी-पूर्व स्तर को पार कर चुके हैं और 2025 नए रिकॉर्ड की ओर बढ़ रहा है. भारत, जो अक्सर जनसंख्या-वृद्धि की बहस के केंद्र में रहता है, महामारी के बाद संसाधनों पर दबाव को लेकर नई चिंताओं का सामना कर रहा है. महामारी ने सिर्फ संख्या नहीं, बल्कि संसाधनों के समान बंटवारे पर चर्चा को और तेज़ किया.
ओवर-टूरिज़्म अब एक वैश्विक सच्चाई बन चुका है, जिसने पर्यावरणीय नुकसान, जलवायु परिवर्तन, स्थानीय समुदायों के विस्थापन, सांस्कृतिक ह्रास और महंगाई जैसी चिंताएं बढ़ा दी हैं. वेनिस आज क्रूज़ जहाज़ों और सैलानियों की भीड़ के बोझ तले डूब रहा है.
सबसे बड़ा खामियाजा कौन भुगत रहा है? स्थानीय निवासी.
क्यों स्थानीय समुदायों को सिर्फ किसी और की रोमांचक यात्राओं के लिए कष्ट सहना चाहिए?
अत्यधिक पर्यटन का असर
यह समस्या केवल विकसित देशों तक सीमित नहीं है; विकासशील देश भी इसके गंभीर नतीजे झेल रहे हैं. यात्री सिर्फ बड़े ग्लोबल डेस्टिनेशन ही नहीं जाते, बल्कि वे प्राकृतिक सुंदरता, मेहमाननवाज़ी और सुरक्षा से भी आकर्षित होते हैं. उदाहरण के लिए इक्वाडोर के छोटे से द्वीपसमूह गैलापागोस आइलैंड्स पर पीक सीज़न में 3 लाख से अधिक लोग पहुंचते हैं, जिससे वहां की दुर्लभ वनस्पतियों को खतरा पैदा हो गया है.
अत्यधिक पर्यटन का सबसे बड़ा असर पर्यावरण पर पड़ता है. नाज़ुक इकोसिस्टम टूटने लगते हैं, वायु, जल और ध्वनि प्रदूषण बढ़ जाता है. छोटे समुदायों पर संसाधनों का बोझ बढ़ जाता है. कचरे से समुद्र प्रदूषित होते हैं और ताजमहल से लेकर माचू पिच्चू तक धरोहर स्थल पर्यटन और प्रदूषण के दबाव से क्षतिग्रस्त हो रहे हैं.
इसका असर स्थानीय निवासियों की ज़िंदगी पर भी दिखता है. मकानों की मांग बढ़ जाती है, और घरमालिक ऊंचा किराया देने वाले सैलानियों को कम अवधि के लिए कमरे किराए पर देना पसंद करते हैं, जबकि स्थानीय लोगों को लंबे समय के लिए घर नहीं मिलता. नतीजा यह होता है कि परिवार शहरों से बाहर खदेड़े जाते हैं और कहीं और नई ज़िंदगी शुरू करने को मजबूर होते हैं.
यह असर धीरे-धीरे अर्थव्यवस्था, समाज और उद्योग तक पहुंचता है. यात्रा, होटल कारोबार और स्थानीय बाज़ार तो फलते-फूलते हैं, लेकिन इसकी असली कीमत पर्यावरण और निवासी चुकाते हैं. भूस्खलन, अचानक बाढ़, सूखा और अकाल — ये सब ओवर-टूरिज़्म के सीधे नतीजे हैं. मसूरी और नैनीताल में भूस्खलन, मनाली में ग्रीन टैक्स का लागू होना और मंडी में हाल की बाढ़ इसके गवाह हैं.
दुनिया के लोकप्रिय पर्यटन स्थल भी इससे अछूते नहीं हैं. बार्सिलोना और सेंटोरिनी जैसे शहरों में बड़ी संख्या में पर्यटक एक साथ पहुंचते हैं और एक जैसी गतिविधियों — क्रूज़िंग, बोटिंग, शॉपिंग में जुट जाते हैं, जिससे इकोसिस्टम पर भारी बोझ पड़ता है. किराए आसमान छूने लगते हैं और ज़रूरी दुकानें जैसे राशन और लॉन्ड्री गायब हो जाती हैं, उनकी जगह स्मृति-चिह्न (सॉवेनियर) और बाइक रेंटल की दुकानें खुल जाती हैं.
भारत में भी कूर्ग और वायनाड जैसे इलाके पीक सीज़न में इसी तरह की परेशानियों से जूझते हैं. कॉफी और प्राकृतिक दृश्यों के लिए मशहूर कूर्ग पर ओवर-टूरिज़्म का सबसे ज़्यादा दबाव है. यहां के होमस्टे और रिसॉर्ट्स पर्यावरण, संसाधनों और स्थानीय निवासियों पर भारी बोझ डाल रहे हैं.
कूर्ग की कॉफी किसान अनुष्का ने कहा, “हम जैसे स्थानीय किसान अब पानी की गंभीर कमी का सामना कर रहे हैं. इलाका सूखे से जूझ रहा है और पर्यटन की तेज़ी ने हालात और बिगाड़ दिए हैं. सरकार इस स्थिति को लेकर बिल्कुल भी सक्रिय नहीं है.”
प्रबंधन और समाधान
पृथ्वी के संसाधनों पर बढ़ते बोझ को देखते हुए समाधान ज़रूरी और तात्कालिक हैं. सबसे पहले, सरकारें पास और ई-पर्मिट जारी कर सकती हैं ताकि पर्यटकों की भीड़ पर नियंत्रण रखा जा सके. नाज़ुक इलाकों जैसे ट्रैकिंग ट्रेल्स, झीलें और राष्ट्रीय उद्यान तक पहुंच को सीमित किया जा सकता है. कम-प्रसिद्ध जगहों को बढ़ावा देकर दबाव कम किया जा सकता है. सामान और किराए के दाम नियंत्रित करना स्थानीय निवासियों के हितों की रक्षा में मदद करेगा. परमिट सिस्टम, अग्रिम बुकिंग और रोज़ाना आने वाले पर्यटकों पर सीमा लगाने जैसे उपाय जैसा गैलापागोस में होता है प्रभावी साबित हो सकते हैं.
जलवायु-सचेत कदम जैसे टिकाऊ वॉकवे, पुनर्चक्रण योग्य उत्पाद और अस्थायी ढांचा भी बड़े आयोजनों, त्योहारों और मेलों के लिए लागू किए जा सकते हैं, ठीक वैसे ही जैसे कुंभ मेले में व्यवस्थाएं की जाती हैं.
सरकारी कार्रवाई के साथ-साथ निजी और औद्योगिक क्षेत्रों को भी योगदान देना होगा. डायनेमिक प्राइसिंग और पीक प्राइसिंग से मांग को लंबे समय तक फैलाया जा सकता है. अंततः, यह एक वैश्विक समस्या है और इसके लिए सभी हितधारकों द्वारा मिलकर लगातार प्रयास करने की ज़रूरत है.
यह मसला यात्रा के अधिकार और जीवन व स्वतंत्रता के अधिकार के बीच का है. अगर ‘ओवर-टूरिज़्म’ पर काबू नहीं पाया गया तो दुनिया की सबसे बड़ी संपत्ति ही इसकी सबसे बड़ी समस्या बन जाएगी. आर्थिक विकास और पर्यावरण व सांस्कृतिक संरक्षण के बीच की रेखा बहुत पतली है. दोनों मोर्चों पर प्रगति ज़रूरी है, लेकिन किसी की कीमत पर नहीं. पर्यटन को संस्कृतियों के बीच पुल बनाना चाहिए, न कि उन तटों का बोझ बढ़ाना चाहिए जिन्हें वह निहारना चाहता है.
(कार्ति पी चिदंबरम शिवगंगा से सांसद और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य हैं. वे तमिलनाडु टेनिस एसोसिएशन के उपाध्यक्ष भी हैं. उनका सोशल मीडिया हैंडल @KartiPC है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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