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Wednesday, 20 November, 2024
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भारत को Chandrayaan-3 से भी ज्यादा जरूरत बिहार में जाति जनगणना की है, SC का फैसला बताता है ऐसा क्यों

चंद्रमा की सतह से प्राप्त डेटा, वैज्ञानिक रूप से अभूतपूर्व होने के बावजूद, व्यक्तियों की पहचान से प्राप्त डेटा के समान प्रासंगिक नहीं हो सकता है.

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जैसे-जैसे देश चंद्रयान-3 के साथ ऊंची उड़ान भर रहा है, एक जिज्ञासा बन रही है. इसे अक्सर नज़रअंदाज किया जाता है या जानबूझकर अस्पष्ट रखा जाता है, यह भारत के गहरे जड़ वाले जाति विभाजन से संबंधित है, एक ऐसी भूलभुलैया जो समाज के स्वरूप को प्रभावित करती रहती है. सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले ने इस धारणा को और मजबूती दी है कि बिहार के जाति सर्वेक्षण के निष्कर्ष — जिसे एक अगस्त को पटना हाईकोर्ट ने हरी झंडी दे दी थी, उससे संबंधित डेटा को तब तक साझा किया जा सकता है जब तक कि वो संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन न करता हो, यह जाति की शक्ति को स्वीकार करने के महत्व को भी रेखांकित करता है. ऐसे राज्य में जहां जाति को अक्सर खुले तौर पर जाना जाता है, गोपनीयता के उल्लंघन पर अदालत का प्रश्न सभी भारतीयों के साझा अनुभवों से मेल खाता है.

बिहार जाति सर्वेक्षण को चुनौती देने वाली याचिकाओं की अदालत की सूक्ष्म जांच उस समाज की धड़कन को प्रतिध्वनित करती है जो इस जनगणना के जरिए से सम्मान और समझ चाहता है.

जैसे ही हम डेटा से भरी दुनिया में घुसते हैं, कोर्ट का सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण हमारे निजता के अधिकार को हमारे समुदायों की लय से मिलाता है. यह दयालु विचार-विमर्श हमें याद दिलाता है कि न्याय केवल एक कानूनी शब्द नहीं है बल्कि सम्मान और निष्पक्षता के लिए हमारी सामूहिक इच्छा का प्रतिबिंब है. सुप्रीम कोर्ट न केवल हमारे संविधान की बल्कि हमारे साझा सपनों और आकांक्षाओं की भी संरक्षक है.

जाति जनगणना विविधता को अपनाने और उन लोगों तक मदद का हाथ बढ़ाने का एक अवसर है जिन्हें इसकी सबसे अधिक ज़रूरत है. समय आ गया है कि हम समझें कि विश्वसनीय डेटा केवल एक ज़रूरत भर नहीं है; यह प्रगति और निष्पक्षता की आधारशिला है. हालांकि, यह मुद्दा 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन इसकी तात्कालिकता महज एक अभियान के टैगलाइन तक सीमित नहीं है.

भारत में जाति-आधारित जनगणना की खोज बिहार से आगे तक फैली हुई है, तेलंगाना, कर्नाटक और ओडिशा जैसे राज्यों में भी समाज के भीतर जाति की गतिशीलता का खुलासा करने का लक्ष्य है. इन कोशिशों के बावजूद, सार्थक परिणाम हासिल करने में अनिश्चितताएं बनी रहती हैं. कर्नाटक सामाजिक और शैक्षणिक सर्वेक्षण — जिसे राज्य में जाति जनगणना के रूप में जाना जाता है — 2014 में सिद्धारमैया सरकार द्वारा शुरू किया गया था, जिसमें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण में अंतर्दृष्टि का वादा किया गया था, लेकिन सार्वजनिक जांच से निष्कर्षों को बाहर आने से रोक दिया गया था. तेलंगाना और ओडिशा पिछड़ी जाति समुदायों को समझने का एक जैसा लक्ष्य रखते हैं, फिर भी उनकी कोशिशें अस्पष्ट हैं.


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विज्ञान मायने रखता है, लेकिन लोगों से ज़्यादा नहीं

चंद्रयान-3 जैसे वैज्ञानिक मिशनों को संचालित करने के लिए भारत सरकार का उत्साह राष्ट्रव्यापी जाति जनगणना आयोजित करने में उसकी झिझक के बिल्कुल विपरीत है. जबकि पहला ब्रह्मांड को जीतने के लिए देश की आकांक्षाओं को प्रदर्शित करता है, दूसरा सामाजिक असमानताओं को दूर करने की इच्छा के बारे में महत्वपूर्ण आत्मनिरीक्षण को प्रेरित करता है. यह तुलना एक परेशान करने वाले विरोधाभास को उजागर करती है — जहां हम सितारों को छूने की इच्छा रखते हैं, लेकिन ज़मीन पर साथी नागरिकों के अनुभवों को पहचानने में चूक जाते हैं.

दरअसल, एक व्यापक जाति जनगणना तार्किक पेचीदगियों के दायरे से कहीं आगे तक फैली हुई है. यह न्याय के लिए एक स्पष्ट आह्वान, मान्यता के लिए एक अपील और समावेशिता के लिए एक दलील है. हमारे राष्ट्र की आधारशिला बनाने वाली विविध पच्चीकारी का अनावरण करके, हम प्रत्येक सूत्र, कथा और हृदय की धड़कन को उचित मान्यता प्रदान कर रहे हैं.

जाति जनगणना विभाजित नहीं करेगी — मौन करेगा

जाति जनगणना के आलोचक यह तर्क दे सकते हैं कि इस तरह की कोशिश से विभाजन और बढ़ेगा. हालांकि, करीब से देखने पर पता चलता है कि विभाजन वास्तविकता की पहचान से नहीं, बल्कि मौन को कायम रखने से पैदा होता है. चुप रहने, भारत की सामाजिक संरचना की पेचीदगियों को स्वीकार करने से इनकार करने का कार्य, बड़ी खाई की ओर ले जाता है. सत्ता के गलियारों से नीतियां तैयार करना, ज़मीनी हकीकत की गहन और सहानुभूतिपूर्ण समझ से रहित, ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रह रहे समुदायों पर लगातार नुकसान पहुंचाने का जोखिम है.

सरकार की आशंकाएं उस भारत के दृष्टिकोण के बिल्कुल विपरीत हैं जहां प्रत्येक व्यक्ति, जाति, पंथ या लिंग के बावजूद, केवल एक आंकड़ा नहीं है, बल्कि सुनी जाने वाली आवाज़ है, एक ऐसा जीवन है जिसे संजोया जाना चाहिए.

संक्षेप में किसी राष्ट्र की महानता तकनीकी उपलब्धियों या ब्रह्मांडीय अन्वेषण की सीमाओं से परे है. यह इस बात में सन्निहित है कि यह कितनी दयालुता से विविधता को अपनाता है, न्याय के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की प्रामाणिकता और अपने इतिहास के साथ जुड़ने की इच्छा में है. चूंकि, भारत वैश्विक नेतृत्व की दहलीज़ पर खड़ा है, इसलिए उसे अपने प्रक्षेप पथ पर विचार करना चाहिए. सच्ची प्रगति, एकता और समृद्धि ब्रह्मांड के विशाल विस्तार में नहीं बल्कि इस भूमि पर रहने वालों के दिलों में पाई जाती है.

जाति जनगणना के आह्वान की उपेक्षा करना एकजुट करने वाला संकेत नहीं है; यह मिटाने का कार्य है. हर आवाज़, चाहे वह कितनी भी धीमी क्यों न हो, गिनने, स्वीकार करने और जश्न मनाने लायक है.

चंद्रमा की सतह से प्राप्त डेटा, वैज्ञानिक रूप से अभूतपूर्व होने के बावजूद, व्यक्तियों की पहचान से प्राप्त डेटा के समान प्रासंगिक नहीं हो सकता है, जहां एक ब्रह्मांड के रहस्यों को उजागर करता है, वहीं दूसरा वास्तविक लोगों के जीवन और कहानियों पर प्रकाश डालता है. उत्तरार्द्ध को स्वीकार करना सिर्फ एक ज़िम्मेदारी नहीं है; यह एक घोषणा है कि विविध, समावेशी, एकजुट भारत में हर आवाज़ मायने रखती है.

(लेखक संयुक्त राष्ट्र से संबद्ध एनजीओ फाउंडेशन फॉर ह्यूमन होराइजन के अध्यक्ष हैं, जो संयुक्त राज्य अमेरिका में जाति-विरोधी कानून आंदोलन का नेतृत्व कर रहा है और जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी में एक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) रिसर्च स्कॉलर हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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