प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी निराश महसूस कर रहे होंगे. बीते कुछ दिनों की अखबारों की सुर्खियां देखिए — जिरीबाम की आग इंफाल तक फैली: सीएम बीरेन और विधायकों के घरों को भीड़ ने निशाना बनाया; मणिपुर में 6 पुलिस थानों में फिर लगा AFSPA, केंद्र ने कहा — स्थिति अभी भी अस्थिर; सीआरपीएफ कैंप पर हमला करने वाले हमलावर LMG से लैस वाहन से चूके, गोलीबारी में मारे गए; मणिपुर की नदी में महिला और दो बच्चों के शव मिले. ये सब प्रधानमंत्री मोदी की मणिपुर में सामान्य स्थिति की ओर लौटने की टिप्पणी पर बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा करते हैं. विपक्ष द्वारा मणिपुर का दौरा न करने के बारे में की गई आलोचनाओं का जवाब न दे पाना भी प्रधानमंत्री को आहत करता होगा.
संयोग से 29 मई 2004 की इंडियन एक्सप्रेस के संपादकीय की एक पुरानी क्लिपिंग भी सोशल मीडिया पर अचानक वायरल हो रही है, जिसका शीर्षक है: “मोदी, टाइम टू पैक अप”. दक्षिणपंथी एक्स-यूजर्स इस पर काफी कमेन्ट्स कर रहे हैं.
अगर मोदी ने गोधरा दंगों के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा नहीं दिया, तो वे मणिपुर के सीएम बीरेन सिंह को क्यों हटाएंगे? हां, मणिपुर में पिछले डेढ़ साल में बड़े पैमाने पर अराजकता के कारण लोगों में भारी आक्रोश है, लेकिन क्या आप इसकी तुलना पूर्व सीएम मोदी के उस आक्रोश से कर सकते हैं, जिसका सामना उन्हें अपनी भारतीय जनता पार्टी के भीतर और बाहर दोनों जगह करना पड़ा था? कम से कम, बीरेन सिंह को अपने प्रधानमंत्री से राजधर्म के बारे में नहीं सुनने को मिल रहा है.
कठपुतली मुख्यमंत्री
चूंकि, लगभग सभी चाहते हैं कि बीरेन सिंह इस्तीफा दें, इसलिए मैं थोड़ा उनकी स्थिति पर नज़र डालता हूं. हां, पिछले मई में हिंसा भड़कने के कुछ दिनों के भीतर ही उन्हें पद छोड़ देना चाहिए था, या उन्हें बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए था, खासकर तब जब उन्हें मैतेई मिलिशिया, अरंबाई टेंगोल से निपटने में पक्षपातपूर्ण भूमिका निभाते हुए देखा गया था. उन्हें सार्वजनिक रूप से कुकी को निशाना बनाने के लिए भी बर्खास्त करना चाहिए था.
सच तो यह है कि हिंसा भड़कने के कुछ दिनों के भीतर ही, केंद्र या केंद्रीय गृह मंत्रालय ने मणिपुर की बागडोर अपने हाथ में ले ली थी — पूर्व सीआरपीएफ डीजी कुलदीप सिंह को सीएम के सुरक्षा सलाहकार बनाकर भेजा, विनीत जोशी को केंद्रीय प्रतिनियुक्ति से वापस बुलाकर राज्य के मुख्य सचिव का पदभार दिया गया और त्रिपुरा कैडर के आईपीएस अधिकारी राजीव सिंह को पुलिस महानिदेशक तैनात किया गया. मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लागू करने की संभावना को खारिज करते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने लोकसभा में कहा था: “अनुच्छेद 356 तब लगाया जाता है जब राज्य सरकार हिंसा के दौरान सहयोग नहीं करती है. हमने डीजीपी बदल दिया, उन्होंने केंद्र के डीजीपी को स्वीकार कर लिया. हमने मुख्य सचिव को बदल दिया, उन्होंने हमारे भेजे मुख्य सचिव को स्वीकार कर लिया. मुख्यमंत्री को बदलने की ज़रूरत तब पड़ती है जब वे सहयोग नहीं करते. अगस्त 2023 में जब शाह ने यह बयान दिया था, तब से बहुत कुछ नहीं बदला है.
बीरेन सिंह कठपुतली मुख्यमंत्री बने हुए हैं, जबकि केंद्र नई दिल्ली से मणिपुर को चला रहा है, सिंह सभी विफलताओं के लिए एक पंचिंग बैग का भी रोल अदा करते हैं. हालांकि, वे इस भूमिका में थोड़ा बेचैन होते दिख रहे हैं. अब, वे एकीकृत कमान का नियंत्रण चाहते हैं.
शनिवार को राज्य सरकार ने केंद्रीय गृह मंत्रालय को पत्र लिखकर AFSPA लगाने के अपने फैसले की समीक्षा करने और उसे वापस लेने के लिए कहा. ज़रा सोचिए कि भाजपा का एक मुख्यमंत्री अमित शाह से अपने फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए कह रहा है. सिंह शायद अब इससे तंग आने लगे हैं. वे स्पष्ट रूप से अपने राज्य के मामलों को चलाने में अपनी बात रखना चाहते हैं.
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काम के बोझ से दबे गृह मंत्री
व्यावहारिक रूप से कहें तो सीएम सिंह शायद एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें विफलता के लिए दोषी ठहराया जा सकता है. मणिपुर में जो कुछ हो रहा है उसके लिए केंद्रीय गृह मंत्री को दोषी नहीं ठहराया जा सकता. उनके पास काफी काम है. उन्हें भारत सरकार के हर बड़े फैसले में शामिल होना पड़ता है. उन्हें भाजपा को भी चलाना है. बार-बार चुनाव होने से उनका बहुत समय बरबाद होता है. शाह को बूथ स्तर तक पार्टी मशीनरी को अच्छी तरह से चलाना पड़ता है. उन्हें पार्टी की रणनीति बनानी होती है और देश भर में लोकसभा से लेकर नगर निगम और पंचायत स्तर तक के हर चुनाव में उम्मीदवारों की पहचान करने में भी रोल करना होता है. उन्हें प्रधानमंत्री मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तरह स्टार प्रचारक की भूमिका भी निभानी होती है. इस साल पहले लोकसभा चुनाव थे, फिर हरियाणा विधानसभा चुनाव और अब महाराष्ट्र और झारखंड के महत्वपूर्ण चुनाव. ज़ाहिर है कि शाह अगले साल होने वाले दिल्ली चुनाव के बारे में भी सोच ही रहे होंगे.
उनके लिए हमेशा ऐसा ही रहा है. यह राजनीति विचलित करने वाली हो सकती है. 2021 में जब मिज़ोरम पुलिस ने असम के छह पुलिसकर्मियों की हत्या कर दी, जिससे दोनों राज्यों के बीच टकराव की स्थिति पैदा हो गई, तो गृह मंत्री कई हफ्तों तक उन राज्यों का दौरा नहीं कर पाए क्योंकि राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के कारण वे व्यस्त थे. जैसा कि मैंने 2 अगस्त 2021 को अपने पॉलिटिकली करेक्ट कॉलम में लिखा था, जब अमित शाह चुनावी राज्य उत्तर प्रदेश में परियोजनाओं की आधारशिला रख रहे थे और भाषण दे रहे थे, उस समय असम और मिज़ोरम के पुलिस बल सीमा पर आमने-सामने थे.
हालांकि, एक बात स्पष्ट कर दें. एक मंत्री या पार्टी रणनीतिकार के रूप में अमित शाह की योग्यता से इनकार नहीं किया जा सकता. वे अपने काम में माहिर हैं. गृह मंत्रालय के अधिकारियों से पूछिए. उनके साथ बैठक करने के बारे में सोचते ही उनके पसीने छूटने लगते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि गृह मंत्री ने पहले ही मुद्दे के हर एक विवरण को समझ लिया होगा. जब वे किसी बैठक की अध्यक्षता करते हैं, तो वे गोल-मोल बातें नहीं कर सकते और उन्हें यह भी बखूबी मालूम होता है कि उन्हें क्या करना है और कैसे करना है. अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्ज़ा हटाए जाने के बाद कश्मीर में कई लोग भयंकर परिणाम और अशांति की चेतावनी दे रहे थे. अमित शाह ने उन्हें गलत साबित कर दिया. दरअसल, अगले पांच साल कश्मीर के इतिहास में सबसे शांतिपूर्ण अवधियों में से एक रहे, हालांकि, लोगों ने शुरू में बहुत नाराज़गी जताई, लेकिन अंततः नया कश्मीर की असलियत को स्वीकार कर लिया. इसका श्रेय निश्चित रूप से गृह मंत्री को जाता है.
जो लोग उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानते हैं, उनका कहना है कि अगर अमित शाह अपना तन-मन दोनों लगा दें, तो ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे हासिल नहीं किया जा सकता है. अमित शाह 24×7 काम करने वाले व्यक्ति हैं. बहरहाल, वे भी इंसान हैं और एक दिन में केवल 24 घंटे होते हैं. मणिपुर या अन्य जगहों पर हुई चूकों को इसी से समझा जा सकता है.
बेशक, भाजपा को शाह की ज़रूरत है. राजनीतिक सूझबूझ और जीतने के लिए किसी भी हद तक जाने की इच्छा के मामले में कोई भी उनके करीब भी नहीं आता, लेकिन भारत को पूर्णकालिक गृह मंत्री की और भी दरकार है. कई चुनौतियां सामने खड़ी हैं. यह केवल मणिपुर की बात नहीं है. चुनावों के बाद कश्मीर घाटी में हुए आतंकी हमले, जिसके पहले जम्मू क्षेत्र में कई घातक हमले हुए, खतरे की घंटी हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में कश्मीर में इंजीनियर रशीद और पंजाब में अमृतपाल सिंह और सरबजीत सिंह जैसे कट्टरपंथी तत्वों की जीत एक ऐसा रुझान दिखाती है, जिसकी और अधिक बारीकी से जांच और निगरानी करनी होगी. एनएससीएन-आईएम या नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड 2015 के फ्रेमवर्क समझौते के क्रियान्वयन में देरी को लेकर बेचैनी के संकेत मिल रहे हैं.
सबसे ज़्यादा चिंता की बात यह है कि NSCN-IM मणिपुर संघर्ष में कूदने को तैयार है. इसने अरंबाई टेंगोल पर ईसाइयों को परेशान करने और उन पर हमला करने का आरोप लगाया है. बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन भी चिंताजनक है उत्तर पूर्व में विद्रोही समूहों के संदर्भ में.
भारत जैसे विशाल और जटिल देश के गृह मंत्री को कई अन्य चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. इसलिए उसे पूर्णकालिक गृह मंत्री की ज़रूरत है, जो अमित शाह नहीं हैं. भाजपा को उन्हें पूरी तरह से शासन पर ध्यान केंद्रित करने के लिए छोड़ना चाहिए. ऐसा करने के लिए पार्टी को एक वास्तविक राष्ट्रीय अध्यक्ष का चयन करना होगा, कोई ऐसा व्यक्ति जो शाह की तरह काम करे और हमेशा शाह के निर्देशों का इंतज़ार न करे. देश को शाह की ज़्यादा ज़रूरत है.
(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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