अमेरिका में लोकतंत्र की जीत के सहगान, और वहां के सबसे बुज़ुर्ग राष्ट्रपति, व अभी तक की पहली महिला उप-राष्ट्रपति के विजय गीतों के बीच, सबसे बड़ा अहसास ये है, कि ‘बाइडन व्हाइट हाउस में हैं, और दुनिया में सब ठीक है’. दिलचस्प ये है कि व्हाइट हाउस में बदलाव के बाद, बहुत से सोशल मीडिया ‘एक्सपर्ट्स’ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए, ‘क्या करें क्या न करें’ की लंबी सूची, पोस्ट करनी शुरू कर दी है.
कुछ ने तो व्यंग से उनके ‘नमस्ते ट्रंप आयोजन’ और ‘अब की बार ट्रंप सरकार’ नारे की भी याद दिलाई है. जहां इन तानों और सलाहों को नज़रअंदाज़ करना ही बेहतर है, वहीं इसमें कोई शक नहीं कि अब तक नई दिल्ली को, व्हाइटहाउस में हुए बदलाव से निपटने के लिए तैयार हो जाना चाहिए.
भारत की आज़ादी के बाद से, दो ‘विरक्त लोकतंत्रों’ के बीच रिश्तों में, ख़ूब उतार चढ़ाव देखे गए हैं. लेकिन, भारत-अमेरिकी रिश्ते दोनों की राजधानियों में हुए नेतृत्व बदलावों से पैदा हुई बड़ी अस्थिरताओं से, काफी हद तक अछूते रहे हैं.
नई दिल्ली के लिए उस रोडमैप की परिकल्पना करना महत्वपूपूर्ण होगा, जिसका ख़ाका बाइडन प्रशासन ऐसे समय में तैयार करेगा, जब अमेरिका नस्लीय फूट के सबसे ख़राब दौर से गुज़र रहा है, और आक्रामक चीन बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) के ज़रिए, यूरेशिया और इंडो-पैसिफिक को जोड़कर, महाद्वीपों और समुद्री क्षेत्रों में अपना जाल बुन रहा है. एक और चीज़ जो अनिश्चित है, वो है महामारी के बाद वॉशिंगटन की आर्थिक और सुरक्षा संरचना, जो अज्ञात सीमाओं से विकसित होगी.
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किससे संचालित होंगे भारत-अमेरिकी रिश्ते
भारत और अमेरिका के रिश्ते तीन पहलुओं पर टिके हैं, जिन्हें दोनों देशों को पहचानने की ज़रूरत है. दोनों लोकतंत्रों की घरेलू मजबूरियां, क्षेत्रीय फैक्टर्स, और महामारी के बाद उभरती विश्व व्यवस्था. ये तीनों घटक भू-राजनीतिक गतिशीलता के आधीन हैं. भारत के विपरीत अमेरिका को किसी सामाजिक-सांस्कृतिक, और राजनीतिक रूप से विषम ‘क्षेत्र’ से निपटना नहीं पड़ता. ट्रंप के दौर में पड़ोसी मेक्सिको के साथ रिश्तों में जो परेशानी थी, वो किसी सिद्धांतवादी या वैचारिक मतभेदों की बजाय, घरेलू राजनीतिक मजबूरियों की वजह से ज़्यादा थी.
ख़बरों के मुताबिक़ बाइडन के नामित विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने, अपनी पुष्टि सुनवाई में कथित रूप से कहा है, कि उस संयुक्त व्यापक कार्य योजना (जेसीपीओए) को फिर से जीवित करने से पहले, जिसे बराक ओबामा ने ईरान के साथ साइन किया था, और जिससे ट्रंप बाहर आ गए थे, नया प्रशासन इज़राइल और अरब देशों के साथ बात करेगा.
हालांकि अमेरिकी विदेश विभाग संतुष्ट था, कि जेसीपीओए काम कर रहा था, और उसने ईरान के परमाणु संवर्धन कार्यक्रम को सीमित कर दिया था, ट्रंप ने एकतरफा तौर पर समझौते को रद्द कर दिया, और ईरान पर प्रतिबंध लगा दिए. बाइडेन ने अमेरिका-ईरान समझौते को फिर से जीवित करने के संकेत दिए हैं, बशर्ते कि ईरान उसके प्रावधानों को मानने को सहमत हो जाए. तेहरान एक सख़्त रवैया अपनाए हुए है, ताकि प्रतिबंध ख़त्म कराकर, अपने आर्थिक संकट से बाहर आ सके. यही वो मौक़ा जब नई दिल्ली इसमें शामिल हो सकती है.
तेहरान पर पिछले अमेरिकी प्रतिबंधों (1979, 1987, 2006, 2018) ने, नई दिल्ली के पास ईरान के साथ व्यापार जारी रखने, और उसके बंदरगाह इस्तेमाल करने का कोई विकल्प नहीं छोड़ा था. और भारत के मजबूरन पीछे हटने के नतीजे में, चीन का इलाक़े में घुसने का रास्ता आसान हो गया, और बीजिंग ने चीन के साथ व्यापार समझौते कर लिए, क्योंकि नई दिल्ली की तरह उसके ऊपर, अमेरिकी प्रतिबंधों का सम्मान करने का कोई दायित्व नहीं था.
ये भारत के हित में होगा, कि वो व्हाइट हाउस के नए निवासी को समझाए, कि विदेश नीति औज़ारों के तौर पर, प्रतिबंधों से शायद ही कभी वांछित परिणाम मिले होंगे. इसके अलावा, नई दिल्ली ने पहले ही चाबहार बंदरगाह पर, ईरान के साथ सीमित काम करना शुरू कर दिया है, जो चीन-पाकिस्तान धुरी, और अफगानिस्तान से अमेरिका की प्रस्तावित वापसी के मद्देनज़र, भारत के लिए महत्वपूर्ण है.
बाइडन और चीन
2017 में जारी अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति दस्तावेज़ में, स्पष्ट रूप से माना गया है, कि ‘भारत एक उभरती हुई अग्रणी वैश्विक शक्ति, और एक अधिक मज़बूत रणनीतिक व रक्षा साझीदार है’. चीन के ख़तरे ने, जिसका उदय बहुत शांतिपूर्ण नहीं रहा है, भारत और अमेरिका के बीच एक तरह का, रणनीतिक सौहार्द पैदा कर दिया है. लेकिन नई दिल्ली को ये नहीं भूलना चाहिए, कि अमेरिका का चीन से रिश्तों का, एक अलग प्रक्षेप पथ है, जो उसके राष्ट्रीय हितों पर आधारित है. अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध के चरम पर भी, ठीक एक साल पहले जनवरी 2020 में, ट्रंप ने पहले चरण का व्यापार समझौता कर लिया, जिसके तहत चीन 2021 तक, अतिरिक्त 200 बिलियन डॉलर मूल्य की अमेरिकी वस्तुएं और सेवाएं ख़रीदने, और उन कारोबारी प्रथाओं के खिलाफ कार्रवाई करन को प्रतिबद्ध हो गया, जिन्हें ट्रंप प्रशासन ने आपत्तिजनक क़रार दिया था.
इस क्षेत्र के लिए बाइडन की चीन नीति के दूरगामी परिणाम होंगे, ख़ासकर उभरते हुए इंडो-पैसिफिक ढांचे के लिए, जो वॉशिंगटन और बीजिंग के बीच, ताक़त के मुक़ाबले का एक नया थिएटर बन गया है. शीतयुद्ध ने गुट-निर्पेक्ष पथ पर चल रहे भारत के लिए, गंभीर बाधाएं पैदा कर दी थीं, जिनमें अमेरिका इस बार पर बल देता था, कि ‘अगर आप हमारे साथ नहीं हैं, तो आप हमारे खिलाफ हैं’. बदले हुए हालात में, दोनों लोकतंत्रों को एक दूसरे की बाध्यताओं को समझना होगा, लोकतंत्रों का एक गठबंधन बनाने की दिशा में काम करना होगा, और उसमें ऐसे देशों को शामिल करना होगा, जो नेविगेशन की आज़ादी और एक स्वतंत्रत, खुली, और नियमों पर आधारित विश्व व्यवस्था के लिए प्रतिबद्ध हों.
अमेरिका के उलट, भारत चीन का पड़ोसी है और तत्काल तथा विस्तारित पड़ोस में, चीन के बढ़ते प्रभाव क्षेत्र को देखते हुए, चुनौती ये है कि एक ऐसी रणनीति बनाई जाए जिससे उसके क्षेत्र सुरक्षित रहें. तिब्बत, ताइवान, हॉन्ग कॉन्ग और अफगानिस्तान किसी समाधान के इंतज़ार में हैं, जो शायद भारत और अमेरिका के बीच, रणनीतिक साझेदारी में मिलेगा. चुनौती ये है कि स्वतंत्रता, मानवाधिकार, और लोकतंत्र के मौलिक सिद्धांतों पर दृढ़ता से खड़े रहकर, चीन का विरोध करने में बाइडेन प्रशासन कितना आगे तक जा सकता है.
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(लेखक ‘ऑर्गनाइज़र’ के पूर्व संपादक हैं. ये उनके निजी विचार हैं)
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