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Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतअमित शाह और अजय देवगन के बयानों से शुरू नहीं हुई है भारत को हिंदी राष्ट्र बनाने की जिद

अमित शाह और अजय देवगन के बयानों से शुरू नहीं हुई है भारत को हिंदी राष्ट्र बनाने की जिद

पहले राजभाषा आयोग में हिंदी और संस्कृत को जिस तरह से महत्व मिला उससे जाहिर है कि भारत में भाषा की बहस में सरकार पहले भी हिंदी और संस्कृत के पक्ष में खड़ी होती रही है.

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भारत में भाषा की बहस एक बार फिर शुरू हुई है. दिलचस्प ये है कि ये बहस खुद सरकार ने छेड़ी है. संसदीय राजभाषा समिति की बैठक को संबोधित करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने एक बयान दिया, जिसकी देश भर में विभिन्न तरीके से प्रतिक्रिया हुई. इस बयान में उन्होंने कहा कि – ‘अब कैबिनेट का 70 प्रतिशत ऐजेंडा हिंदी में ही तैयार होता है. सरकार चलाने का माध्यम राजभाषा है और इससे हिंदी का महत्व निश्चित तौर पर बढ़ेगा.’ उन्होंने कहा कि ‘अब राजभाषा को देश की एकता का महत्वपूर्ण अंग बनाने का समय आ गया है. अन्य भाषा वाले राज्यों के नागरिक जब आपस में संवाद करें तो वो भारत की भाषा में हो. हिंदी की स्वीकार्यता स्थानीय भाषाओं के नहीं, बल्कि अंग्रेज़ी के विकल्प के रूप में होनी चाहिए.’

इससे एक अलग ही माहौल और संदर्भ में, हिंदी फिल्मों के स्टार अजय देवगन सोशल मीडिया पर कन्नड़ स्टार किच्छा सुदीप से भाषा को लेकर भिड़ गए. सुदीप ने एक फिल्म समारोह में ये इस कहे जाने पर आपत्ति जताई थी कि दक्षिण भारतीय फिल्में अब पूरे देश के लिए बनाई जा रही हैं. इसी दौरान उन्होंने ये भी कहा कि पूरे देश के लिए बनाई जाने वाली हिंदी फिल्में गैर हिंदी इलाकों में नहीं चलतीं और हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है. इसके जवाब में अजय देवगन ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बताया और ये चुनौती भी दी कि अगर हिंदी राष्ट्रीय भाषा नहीं है तो दूसरी भाषाओं वाले अपनी फिल्मों को हिंदी में डब करके रिलीज क्यों करते हैं?

इस बयान को बाद में अभिनेत्री कंगना रानौत का भी समर्थन मिला, जिन्होंने देवगन का समर्थन करने के साथ संस्कृत की भी वकालत की. यूपी के मंत्री संजय निषाद तो ये भी बोल गए कि ‘जो भारत में रहना चाहते हैं उन्हें हिंदी से प्यार करना होगा. अगर आपको हिंदी पसंद नहीं है तो यह मान लिया जाएगा कि आप विदेशी हैं या विदेशी शक्तियों से जुड़े हुए हैं. हिंदी नहीं बोलने वालों की देश में कोई जगह नहीं है.’

हिंदी को लेकर दिए गए इन बयानों की दक्षिण भारत और पश्चिम बंगाल आदि अहिंदी भाषी राज्यों में तीखी प्रतिक्रिया हुई. सवाल उठता है कि हिंदी की ये बहस अभी आई ही क्यों? जिस तरह से एक के बाद एक बयान आए, उससे ये अंदाजा लगाया जा सकता है कि भाषा के मामले में देश में कुछ तो चल रहा है. दरअसल भाषा, खासकर हिंदी का सवाल नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का पहला ड्राफ्ट बहस के लिए जारी होने के बाद से ही चर्चा में आ चुका है. बेशक इसे तेजी अब मिली है.


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नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के पहले ड्राफ्ट में हिंदी को पूरे भारत में सेकेंडरी स्तर पर अनिवार्य बनाने के संकेत थे. ऐसा खासकर अहिंदी भाषी राज्यों में करने का प्रस्ताव था. तमिलनाडु समेत कई राज्यों में इसका व्यापक विरोध हुआ. सरकार ने जब नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति को अंतिम रूप दिया तो हिंदी वाली बात तो हटा दी गई, लेकिन तीन भाषा वाले फॉर्मूले को मान लिया गया, जिसमें कम से कम दो भाषाएं भारतीय होंगी.

इस बात की काफी आशंका है कि उत्तर भारत में त्रिभाषा के नाम पर इंग्लिश, हिंदी और संस्कृत का फॉर्मूला बनेगा और ये मुमकिन है कि बाकी इलाकों में हिंदी को बढ़ावा दिया जाए. भारत के पहले राजभाषा आयोग ने 1957 में जारी अपनी रिपोर्ट में ये कहा कि हिंदी भाषी इलाकों के विद्यार्थियों के लिए दक्षिण भारत की भाषा को अनिवार्य नहीं बनाया जाएगा बल्कि इसकी जगह उन्हें संस्कृत या फ्रेंच या जर्मन पढ़ने का विकल्प दिया जाएगा. जबकि इसी रिपोर्ट में दक्षिण भारत में अनिवार्य रूप से हिंदी पढ़ाने की बात थी.

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में संस्कृत को सरकार ने बहुत ऊंचा पायदान दिया है. यहां तक कहा गया है कि संस्कृत में जितना शास्त्रीय साहित्य है उतना लैटिन और ग्रीक भाषा में मिलाकर भी नहीं है. शिक्षा नीति में ये दावा किया गया है कि संस्कृत में गणित, दर्शनशास्त्र, व्याकरण, संगीत, राजनीति, औषधि विज्ञान, आर्किटेक्चर, धातु विज्ञान, नाटक, कविता सब कुछ का बहुत बड़ा भंडार है. नीति में कहा गया है कि विद्यार्थियों के पास हर स्तर पर संस्कृत पढ़ने और सीखने का मौका होगा.

पहले राजभाषा आयोग में हिंदी और संस्कृत को जिस तरह से महत्व मिला उससे जाहिर है कि भारत में भाषा की बहस में सरकार पहले भी हिंदी और संस्कृत के पक्ष में खड़ी होती रही है. ये सिर्फ सरकार की ही बात नहीं है, संविधान सभा में भी ऐसा माहौल बना कि संविधान में भी हिंदी को प्राथमिकता मिल गई. अनुच्छेद 343 में लिखा गया है कि भारतीय संघ की भाषा देवनागरी में लिखी गई हिंदी होगी. इसमें सिर्फ शुरुआती 15 साल के लिए ही अंग्रेजी में काम करने का विकल्प दिया गया था.

जहां तक संस्कृत की बात है तो संस्कृत को महत्व देने का सिलसिला भी आज का नहीं है. 1950 मे जब संविधान लागू हुआ तो संस्कृत को 13 अन्य भाषाओं के साथ भारत में राजकाज की भाषा की मान्यता मिली. लेकिन जब अगले साल जनगणना हुई तो सिर्फ 555 लोग ऐसे थे, जिन्होंने संस्कृत को अपनी मातृभाषा के तौर पर लिखवाया. जाहिर है इस भाषा को महत्व देने के पीछे ये सोच नहीं थी कि इस भाषा को काफी लोग बोलते हैं और इसलिए इसे राजभाषा का दर्जा दिया जाए. इसके पीछे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की प्रभावी विचारधारा का भी हाथ था.

अगर संस्कृत को राजभाषा का स्थान देने के प्रश्न को फिलहाल छोड़ दें और इस बात पर विचार करें कि आखिर वह कौन सी स्थिति और कौन से तर्क हैं, जिसके आधार पर कई लोग हिंदी को राष्ट्रभाषा मान लेते हैं या केंद्रीय गृह मंत्री को ऐसा क्यों लगता है कि हिंदी को ही संपर्क भाषा होना चाहिए? हिंदी की ताकत उसे बोलने वाले लोगों की संख्या है और संख्या बल के आधार पर ही हिंदी कई लोगों के दिमाग में राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित है. लोगों को लगता है कि जिस भाषा को देश में सबसे ज्यादा लोग बोलते हैं, उसे राष्ट्रभाषा मान लेने में समस्या क्या है या कि अगर हिंदी नहीं तो आखिर किस भाषा को संपर्क भाषा बनाया जाए.

लेकिन किसी संघीय ढांचे यानी फेडरल स्ट्रक्चर वाले गणराज्य में सभी प्रश्न और विवाद संख्या के आधार पर हल करने की कोशिश होगी, तो जाहिर है कि असंतोष पैदा होगा. भाषा विवाद के मूल में लोकतंत्र की ये विकृत परिभाषा ही है कि ये अल्पमत के ऊपर बहुमत के शासन का सिद्धांत है. लोकतंत्र आपसी सहमति से शासन किए जाने का सिद्धांत है, जिसमें बहुमत को प्राथमिकता मिलनी चाहिए. यही उदारता और उदात्तता ही भाषा विवाद को हल कर सकती है.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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