भारत की बिगड़ती व्यापक आर्थिक स्थिति के मद्देनज़र देश के तीन राज्यों ने श्रम कानूनों में अनेक तात्कालिक परिवर्तनों की घोषणा की है, और उम्मीद है कि अन्य राज्य भी ऐसा ही करेंगे. उदाहरण के लिए, कोविड-19 से बाधित औद्योगिक विकास में जान फूंकने के लिए योगी आदित्यनाथ और विजय रूपानी के नेतृत्व वाली क्रमश: उत्तर प्रदेश और गुजरात की भाजपा सरकारों ने अध्यादेश के ज़रिए उद्योगों से जुड़े 38 श्रमिक कानूनों को अगले तीन वर्षों के लिए निलंबित कर दिया है. जबकि शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार ने राज्य में नए उद्यमों को अगले 1,000 दिनों के लिए कारखाना अधिनियम, 1948 के अधिकांश प्रावधानों से छूट दे दी है.
श्रमिक पलायन की समस्या से जूझते कम आय वाले हिंदी पट्टी के ये राज्य भारत के जटिल और अवरोधक श्रम कानूनों में बदलाव की दीर्घकालिक इच्छा को पूरा करने का प्रयास कर रहे हैं. हर साल अपने श्रम बल में विस्तार के अनुरूप औपचारिक अर्थव्यवस्था में रोज़गार के अवसर नहीं बढ़ने की स्थिति से जूझते ये राज्य देश में करीब 200 राज्यस्तरीय श्रम कानूनों और कई राष्ट्रव्यापी श्रम कानूनों में अपेक्षित सुधार में केंद्र की विफलता को लेकर हताश थे.
सस्ते श्रम और बहुप्रचारित ‘मेक इन इंडिया’ अभियान के बावजूद विनिर्माण क्षेत्र की ओर निवेशकों के आकर्षित नहीं होने में इस स्थिति की बड़ी भूमिका रही है. कोविड-19 के कारण ठप आर्थिक गतिविधियों से बनी वित्तीय आपात स्थिति और 24.6 प्रतिशत की भारी बेरोज़गारी दर का सामना कर रहे राज्यों को नीतिगत सुधारों के अपने एजेंडे के कुछ अत्यधिक चुनौतीपूर्ण वादों को पूरा करने का अवसर मिल गया है.
चीन, बांग्लादेश और वियतनाम में हो चुके हैं बदलाव
यह देखते हुए कि श्रम कानूनों में बदलाव का उद्देश्य विदेशी पूंजी और विनिर्माण कंपनियों, खास कर चीन से हटने की इच्छुक, को आकर्षित करना है, इस बात पर विचार करना महत्वपूर्ण हो जाता है कि भारत के श्रम कानून अन्य विकासशील देशों, खास कर उन देशों के मुकाबले कहां ठहरते हैं जिनको वैश्विक मूल्य श्रृंखला में हम प्रतिस्थापित करना चाहते हैं या फिर जिनसे हमारी प्रतिस्पर्धा है.
विकासशील देशों के विनिर्माण क्षेत्र में श्रम सुधारों की एक विशेष दिशा रही है. इन देशों ने आर्थिक विकास के आरंभिक चरणों में रोज़गार सुरक्षा के बजाय श्रमिकों की ‘आय’ बढ़ाने पर ध्यान दिया– और इसलिए इसका असर भर्ती और छंटनी के नियमों, कॉन्ट्रैक्ट पर काम की व्यवस्था तथा यूनियन और हड़ताल संबंधी अधिकारों पर दिखा.
उदाहरण के लिए, चीन में 1980 के दशक में देंग शियाओपिंग के शासन में जब पूंजीवादी आधुनिकीकरण की शुरुआत हुई तो तमाम तरह के सुधारों को संस्थागत रूप दिया गय— जिनमें जीवन भर के लिए रोज़गार के प्रावधान, केंद्रीयकृत वेतन-भत्ता निर्धारण व्यवस्था तथा प्रबंधकीय कर्मियों की नियुक्ति और प्रोन्नति की प्रणाली को खत्म करना शामिल था.
आगे चलकर, 1990 के दशक में खास कर विशेष आर्थिक क्षेत्रों (एसईज़ेड) में, व्यवसाय अनुकूल श्रम कानूनों के ज़रिए चीन के सस्ते श्रम को प्रबंधकों के लचीले प्रावधानों से जोड़ने का प्रयास किया गया. 1985 से 1995 के बीच की अवधि में चीन में कॉन्ट्रैक्ट श्रमिकों का अनुपात 4 प्रतिशत से बढ़कर 39 प्रतिशत हो गया था. और 1997 आते-आते करीब 10 करोड़ कर्मचारी औपचारिक श्रम अनुबंधों के तहत लाए जा चुके थे.
बांग्लादेश, जिसकी विकास यात्रा भारत के अधिक अनुरूप रही है, के श्रम कानूनों के तहत ट्रेड यूनियन शुरू करने के लिए श्रम बल के 30 प्रतिशत की सहमति की दरकार होती है. वहां निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्रों (ईपीज़े) में कानूनन श्रमिक संगठन स्थापित करने की अनुमति नहीं है. इसी तरह, विदेशी भागीदारी में स्थापित कारखानों में आरंभिक तीन वर्षों में हड़ताल की इजाज़त नहीं है.
इसी तरह, चीन से कंपनियों को हटाए जाने के चलन का सर्वाधिक फायदा उठाने वाले वियतनाम ने भी एक नई श्रम नीति बनाई है. 2021 से प्रभावी होने वाली इस नीति के तहत कंपनियों को अपने स्तर पर वेतन-भत्ते तय करने की अधिक स्वतंत्रता होगी, साथ ही सरकारी हस्तक्षेप या प्रशासनिक निपटान की जगह आंतरिक सुलह प्रक्रिया को बढ़ावा देकर विवाद सुलझाने के तंत्र को अधिक लचीला बनाया जाएगा.
इसी तरह, स्वतंत्र श्रमिक संगठन सरकारी संस्था वियतनाम जनरल कंफेडरेशन ऑफ लेबर की पूर्व अनुमति के बिना काम नहीं कर सकेंगे. इस संदर्भ में ये उल्लेखनीय है कि भारत में 2015 में हड़ताल, तालाबंदी और श्रमिक विवाद जैसी वजहों से बने वित्तीय संकट के कारण 600 वस्त्र कंपनियां बंद हो गई थीं.
रोज़गार सृजन का भारत का अप्रयुक्त तरीका
श्रम बाज़ार के उदारीकरण ने श्रमिकों के लिए रोज़गार और आर्थिक अवसर पैदा किए हैं- यानि कानूनी सुरक्षा कम किए जाने से बनी असुरक्षा की भरपाई हुई है. दरअसल, कानूनों में ढील दिए जाने से निजी कंपनियों के लिए अनुपालन संबंधी उच्च लागत की चिंता किए बिना भर्तियां करना और इसके कारण अपना उत्पादन स्तर बढ़ाना और निर्यात संबंधी जोखिमों को सहन करना संभव हो गया. उदाहरण के लिए, भारत की कपड़ा कंपनियों में औसत 240 कर्मचारी होते हैं, वहीं बांग्लादेश की परिधान निर्माण इकाइयों में औसत 797 कर्मचारी होते हैं.
पिछले दशक के दौरान कम लागत वाली परिधान निर्माण इकाइयों के चीन छोड़कर बांग्लादेश और वियतनाम, तथा लेदर और फुटवियर निर्माण इकाइयों के वियतनाम और इंडोनेशिया जाने की मुख्य वजह उत्पादन स्तर को बढ़ाने में सहूलियत ही रही थी. इसके कारण इन देशों में रोज़गार की स्थिति में सुधार हुआ और लाखों लोगों को गरीबी की जकड़ से बाहर निकाला जा सका. एक बार फिर बांग्लादेश का उदाहरण लें तो पगार में वास्तविक वृद्धि के कारण वह व्यावहारिक स्वास्थ्य और शिक्षा संबंधी विकास सूचकांकों में लगातार भारत से बेहतर प्रदर्शन कर रहा है.
अंतरराष्ट्रीय तुलनाओं से साफ ज़ाहिर होता है कि भारत में अधिक लचीले श्रम कानूनों की दिशा में सुधारों की अत्यधिक ज़रूरत है. जैसा कि अर्थशास्त्री कौशिक बुस ने कहा है, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 जैसे प्रावधान अनुबंध पर श्रमिकों को रखकर श्रम बल का विस्तार करने की कंपनियों की क्षमता में अवरोध बनकर अंतत: फायदे से अधिक नुकसान ही करते हैं. उद्योग या तो पूंजी सघन क्षेत्रों की तरफ आकर्षित हुए या उन्होंने श्रम ज़रूरतों के लिए आमतौर पर अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्रों का सहारा लिया है.
चीन, वियतनाम और बांग्लादेश में सुधारों के लिए कानूनी साधनों का उपयोग किया गया. हालांकि भले ही मजदूरों से संबंधित सुरक्षा उपायों को बहुत कम कर दिया गया, लेकिन कुछ कानूनी प्रावधानों – उदाहरण के लिए न्यूनतम मजदूरी से संबंधित – को बरकरार रखा गया ताकि श्रमिकों के अधिकारों को एक सीमा तक ही कमज़ोर बनाया जा सके.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
(अमेय प्रताप सिंह ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पीएचडी के छात्र हैं, जबकि उर्वी टेम्बे अंतरराष्ट्रीय व्यापार एवं निवेश मामलों की वकील हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)