scorecardresearch
Saturday, 16 November, 2024
होममत-विमतक्या हम अपने जनसांख्यिकीय लाभों को गंवा देंगे ?

क्या हम अपने जनसांख्यिकीय लाभों को गंवा देंगे ?

जो देश अपने यहां परिवर्तन के दौर का सार्थक उपयोग करते हैं वे ही आर्थिक तेजी का लाभ उठा पाते हैं.

Text Size:

हरेक देश में उसके विकास के क्रम में जन्म तथा मृत्यु की दरों में गिरावट होती है. दोनों दरों की गिरावट की गति में अंतर होता है. जन्मदर से पहले मृत्युदर में गिरावट आती है, और परिवर्तन के क्रम में चीज़ें स्थिर हों, इससे पहले आबादी में भारी वृद्धि होती है. परिवर्तन के क्रम में अलग-अलग उम्र वालों की आबादियों के अनुपातों में भी बदलाव होता है. कामकाजी उम्र (आमतौर पर 15 से 65 के बीच) वाले लोगों का प्रतिशत भी बढ़ता है और एक शिखर पर पहुंचने के बाद गिरता है.

जब कुल आबादी में से बड़ा प्रतिशत कामकाजी होता है तब यह आय, बचत और उत्पादकता को बढ़ावा देकर अर्थव्यवस्था को उछाल प्रदान करने के अलावा दूसरे लाभ देता है. जो देश अपने यहां परिवर्तन के दौर का सार्थक उपयोग करते हैं वे आर्थिक तेजी का लाभ उठाते हैं. पिछली सदी के उत्तरार्द्ध में पूर्वी एशिया के देशों ने जिस तेज गति से प्रगति की उसमें 25 से 40 प्रतिशत तक का योगदान जनसांख्यिकीय लाभों का माना जाता है. जनसांख्यिकीय परिवर्तन को ‘डिपेंडेंसी’ अनुपात से नापा जाता है यानी कामकाजी उम्र वाले लोगों में इस उम्र से बाहर के लोगों (बच्चों तथा बूढ़ों) के अनुपात से.

भारत में यह अनुपात 1980 में भी लगभग वही 75 प्रतिशत था, जो 1960 में था. इस अवधि में वृद्धिदर बेहद नीची थी और इसे ‘हिंदू दर’ कहा जाता था. इसके बाद इस अनुपात या प्रतिशत में गिरावट आने लगी. नब्बे के दशक के मध्य से ‘डिपेंडेंसी’ अनुपात में तेजी से गिरावट आई, और एक दशक में यह 70 से 60 प्रतिशत हो गया. इसके अगले दशक में यह 50 प्रतिशत से थोड़ा ऊपर पहुंच गया. इसे सिर्फ संयोग नहीं कहा जा सकता कि ये भारत की आर्थिक वृद्धि में सबसे तेजी के साल रहे.


यह भी पढ़ें: पीएम मोदी बड़े आर्थिक मुद्दों की उपेक्षा अब नहीं कर सकते


कुछ अनुमान बताते हैं कि अगले दो दशकों में देश का ‘डिपेंडेंसी’ अनुपात शून्य हो जाएगा और इसके बाद फिर बढ़ने लगेगा. यह चीन सहित पूर्वी एशिया के कुछ देशों में इसकी गति से भिन्न होगा. ये देश अपने ‘डिपेंडेंसी’ अनुपात को 40 प्रतिशत और इसके नीचे लाने में सफल रहे. भारत ऐसा शायद ही कर पाएगा क्योंकि इसकी जन्मदर में पर्याप्त तेजी से गिरावट नहीं आई. यह इसकी स्वास्थ्य तथा पोषण नीति की विफलता ही है. यह देश को कुछ पूर्वी एशियाई देशों की तरह 8 से 10 प्रतिशत की वृद्धिदर हासिल करने से रोकेगा.

अब सवाल यह उठता है कि क्या भारत अपने कुछ और संभावित जनसांख्यिकीय लाभों को गंवा देगा? ऐसा होगा तो यह दो कारणों से होगा: जनसांख्यिकीय लाभों का पूरा दोहन तभी किया जा सकता है जब कामकाजी उम्र के लोग वास्तव में काम कर रहे हों. दूसरे, कम करने वालों को अगर उपयुक्त शिक्षा और हुनर हासिल हो तो वे कार्यस्थल पर ज्यादा उत्पादक साबित हो सकते हैं. हर कोई जानता है कि देश दोनों मामलों में पिछड़ गया है.

रोजगार को लेकर सरकार एक ताज़ा सर्वे में कहा गाय है कि कम करने की उम्र वाले केवल आधे लोग ही रोजगार में हैं, 2004-05 में या अनुपात 64 प्रतिशत का था. जहां तक शिक्षा तथा हुनर की बात है, ‘प्रथम’ के शिक्षा संबंधी सर्वे और कौशल संबंधी कार्यक्रम की गति उनकी दुखद कहानी बयान कर देती है. फिर भी, भारत का ‘डिपेंडेंसी’ अनुपात अगले दो दशकों में ऊपर चढ़ने से पहले 50 प्रतिशत के नीचे रहता है, तो स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के मोर्चों पर भारी विफलता की भरपाई करने और जनसांख्यिकीय लाभों के दोहन की संभावना बनी रहती है.


यह भी पढ़ें: निर्मला सीतारमण को अपने पहले बजट में देश के आर्थिक संकट का सच बताना चाहिए


समस्या यह है कि दक्षिणी के राज्यों, पश्चिम बंगाल और एक-दो और राज्यों के लिए — जो जनसांख्यिकीय परिवर्तन के मामले में उत्तर के राज्यों से आगे हैं. यह संभावना खत्म हो चुकी है या अगले पांच वर्षों में खत्म हो जाएगी. बाकी दूसरे कई राज्यों के लिए यह खिड़की एक दशक तक खुली रहेगी, जबकि बिहार जैसे सुस्त राज्यों में ज्यादा समय तक जनसांख्यिकीय परिवर्तन होए रहेंगे.

ये अंतिम राज्य ऐसे हैं जहां शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्रगति सबसे खराब है. वे कितना जनसांख्यिकीय लाभ उठा सकेंगे, यह एक खुला सवाल है. याद रहे कि किसी भी देश को उसके एक कालखंड में जनसांख्यिकीय लाभ केवल एक बार उपलब्ध होते हैं क्योंकि आबादी का परिवर्तन एक बार ही होता है. समय एक ऐसी नेमत है जो देशों को उपलब्ध नहीं होती.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments