यह अप्रत्याशित तौर पर सामने आया लेकिन इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं है. पिछले हफ्ते अमेरिकी मध्यस्थता में एक समझौते के तहत जब संयुक्त अरब अमीरात और इजरायल ने घोषणा की कि वे एक-दूसरे के संग सामान्य संबंध स्थापित करेंगे तो उन्होंने दरअसल उस बात को सार्वजनिक रूप से स्वीकारा जो कई सालों से जाहिर थी- अमीरात के अलावा सऊदी अरब और कई अन्य अरब देशों के राष्ट्रीय हित इजरायली हितों के साथ मिलने में निहित थे.
मध्य पूर्व में त्रिकोणीय मुकाबला– ईरान, तुर्की और सऊदी अरब के बीच क्षेत्रीय प्रभुत्व की होड़- फारसियों, ओटोमन्स और अरबों के बीच पुरानी प्रतिद्वंदिता की आधुनिक पुनरावृत्ति है. इजरायल जब एक तरफ ईरान के कारण अस्तित्व पर खतरा महसूस कर रहा है और वहीं कभी मैत्रीपूर्ण संबंधों वाले तुर्की के खतरा बनने को लेकर सतर्क है तो सही मायने में तार्किक अपेक्षा तो तेल अवीव के अरब देशों की ओर बढ़ने की ही होगी. फिलिस्तीन को लेकर यक्ष प्रश्न ने लंबे समय से इजरायल और अरब ताकतों के बीच गठबंधन को रोक रखा था. इजरायल और अरब देशों ने इसे परे रख दिया है और मध्य पूर्व पर ईरानी-तुर्की आधिपत्य को रोकने की राह पर सह-यात्री बनकर चल पड़े.
यह भी पढ़ें: नए तरीके के राष्ट्रवाद पर आधारित होनी चाहिए आज़ादी की नई लड़ाई, सेक्युलरिज्म की मौजूदा भाषा से लोग दूर हो रहे
इजरायल के लिए चीजें कैसे बदलीं
समझौते के तहत संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) इस शर्त पर राजनयिक संबंध स्थापित करेगा कि इजरायल कुछ फिलिस्तीनी क्षेत्रों पर कब्जे और उनकी स्थिति बदलने की अपनी योजनाओं को स्थगित करेगा. जैसा कि पत्रकार अंशेल फेफर ने हारेत्ज को बताया है, यह इजरायली प्रधानमंत्री के लिए राजनयिक स्तर पर तख्तापलट जैसा है क्योंकि ‘बेंजामिन नेतन्याहू के पास कभी भी वेस्ट बैंक के कुछ हिस्सों पर कब्जे की कोई योजना नहीं थी. न कोई समयसीमा थी, न कोई नक्शा, सरकार या कनेसेट में कोई मसौदा लाने का प्रस्ताव भी नहीं था…नेतन्याहू के लिए यह एक उपलब्धि है क्योंकि उनके पूर्ववर्तियों, जो फिलिस्तीनियों को बड़ी रियायतें देने को तैयार थे, ने केवल सपना देखा था और उन्होंने इसकी कोई कीमत भी नहीं चुकाई, सिर्फ कब्जे की उस योजना के ‘अस्थायी निलंबन’ की बात कही जो वह कभी करने भी नहीं जा रहे थे.’
निश्चित रूप से, इसका नतीजा यह होगा कि भविष्य में एकतरफा कार्रवाइयों की इजरायल की क्षमता अरब देशों के साथ उसके राजनयिक संबंधों पर निर्भर करेगी, क्योंकि इसके पास खोने के लिए कुछ होगा. वास्तव में, यह तर्क दिया जा सकता है कि फिलीस्तीनी हितों को ज्यादा बेहतर ढंग से पेश किया जा सकेगा जब इजरायल की राजधानी में और ज्यादा अरब देशों के दूतावास होंगे.
यह भी पढ़ें: मोदी सरकार और रिजर्व बैंक 2008 के संकट में की गई भूलों से सबक ले सकते हैं, मगर समय हाथ से निकल रहा है
सऊदी का हाथ नहीं
यद्यपि यूएई का निर्णय अपने आप में बेहद अहम है लेकिन यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या सऊदी अरब भी ऐसा ही करेगा. इस बात के पुख्ता संकेत हैं कि रियाद आज इजरायल के साथ रिश्ते सामान्य बनाने के लिए इतना ज्यादा इच्छुक है जितना वह पहले कभी नहीं रहा. निश्चित तौर पर सऊदी अरब की मौन स्वीकृति के बिना यूएई-इजरायल समझौता संभव नहीं था. फिर भी सऊदी अरब के शाही परिवार में एक पीढ़ीगत मतभिन्नता है खासकर किंग सलमान और क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के बीच, फिलिस्तीन मसले पर पुरानी पीढ़ी का दृष्टिकोण इजरायल को मान्यता देने के प्रति अधिक रुढ़िवादी रहा है.
सऊदी नेतृत्व को इस तथ्य से भी जूझना पड़ता है कि यदि वह यहूदी राष्ट्र को मान्यता देता है तो सुन्नी इस्लामी देशों के नेता के तौर पर उसे तुर्की-मलेशिया कॉकस से कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा. बदले में यह राजनीतिक चुनौतियां पेश करने वालों को सामने लाकर आंतरिक स्तर पर सऊदी राजवंश की वैधता को कमजोर कर सकता है. इसलिए, रियाद बेहद सावधानी के साथ लेकिन स्पष्ट तौर पर इजरायल को ओर उन्मुख हो रहा है.
यह भी पढ़ें: प्रशांत भूषण के लिए बोलने वाले लोग जस्टिस कर्णन के मामले में चुप क्यों थे
बदलता मध्य पूर्व
यूएई का कदम मध्य पूर्व में एक पुनर्संगठन का संकेत है जिसका व्यापक असर होगा. एक तो इसने क्षेत्र में इस तरह त्रिकोणीय ध्रुवीकरण बढ़ा दिया है कि देश या तो अरब अथवा ईरान या तुर्की के साथ हैं और उनके दखल से प्रभावित हो रहे हैं. ठीक 1914 से पहले के यूरोप की तरह एक बड़े क्षेत्रीय युद्ध का खतरा बढ़ गया है. लेकिन उस समय के विपरीत, यहां ऐसी बाहरी ताकतें परिदृश्य में हैं जो अपने हितों के कारण मध्य पूर्व में युद्ध नहीं देख सकतीं. इसलिए, क्षेत्र की सुरक्षा अब भी अमेरिका, रूस और चीन के साथ इसके रिश्तों पर निर्भर करती है.
अरब (और इजरायल) के तीनों बाहरी शक्तियों के साथ अच्छे संबंध हैं और चीन एकमात्र बाहरी ताकत है जिसके सभी क्षेत्रीय शक्तियों के साथ मजबूत रिश्ते हैं. अपने हथियार निर्यात, निवेश और क्रय शक्ति के जरिए बीजिंग ने यह सुनिश्चित किया है कि उसे तीनों पक्षों और चारों यदि आप इजरायल को शामिल करें तो, द्वारा एक अहम साझीदार के तौर पर देखा जाए. चीन इस प्रकार मध्य पूर्व समीकरणों के सभी पक्षों का साथ निभा सकता है, जैसे सऊदी वैश्विक शक्ति समीकरण के सभी पक्षों को साध सकता है.
यह भी पढ़ें: भारत के विधायक ज्यादा सवाल नहीं पूछते, ताबड़तोड़ बिल पास हो रहे हैं लेकिन सारा ध्यान केंद्र पर टिका है
भारत के लिए अवसर
दिलचस्प बात यह है कि पाकिस्तान अपने नए आका चीन के साथ संबंधों के दम पर सऊदी खेमे से दूर जा रहा है. यह सऊदी अरब से हटकर तथाकथित इस्लामिक देशों का नेतृत्व कब्जाने की कवायद में तुर्की और मलेशिया के साथ खड़े होने पर भी विचार कर रहा है. जैसा कि सी. राजामोहन लिखते हैं, ‘इस्लामाबाद शायद यह सोचकर दांव लगा रहा है कि अमेरिका मध्य पूर्व से बाहर निकल रहा है और चीन के साथ बढ़ती उसकी सदाबहार रणनीतिक साझेदारी पाकिस्तान को बदलते मध्य पूर्व में नए अवसर देगी. अंतरिम स्तर पर तुर्की और ईरान के साथ गठबंधन की धमकी सऊदी और अमीरात पर दबाव बनाने के साधन के रूप में काम करती है.’
भारत के लिए इजरायल और खाड़ी के अरबों के बीच रिश्ते सामान्य होना एक अच्छी बात है क्योंकि इससे क्षेत्र में हमारे जुड़ाव के और अधिक अवसर खुलते हैं. हालांकि, यह बेहद अहम है कि नई दिल्ली मध्य पूर्वी त्रिभुज के किसी एक पक्ष की तरफ न झुके. ईरान भारत के लिए महत्वपूर्ण है और अमेरिका द्वारा इसे अलग-थलग करने की परवाह किए बिना इससे जुड़े रहना चाहिए. पुनर्संगठन के बावजूद अरब देशों, इजरायल और ईरान के साथ संबंध के मामले में भारत बेहतर स्थिति में है. जहां तक तुर्की से रिश्तों का मामला है, भारतीय विदेश नीति को नया दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है. क्योंकि उसके पास खोने को कुछ नहीं है. रिसेप ताईप एर्दोगन अपनी खुद की स्थिति मजबूत करने के लिए भारत विरोधी रुख अपना रहे हैं. ऐसे में क्यों न उन्हें कुछ गंवाने दिया जाए?
(लेखक लोकनीति पर अनुसंधान और शिक्षा के स्वतंत्र केंद्र तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: चीन ने लद्दाख के बाद इस तरह शुरू किया मनोवैज्ञानिक युद्ध, और भारत जवाब क्यों नहीं दे रहा