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Saturday, 2 November, 2024
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भारत ‘वन चायना’ पॉलिसी से आगे बढ़ चुका है, अब इसे ताइवान के साथ स्वतंत्र रूप से संबंध विकसित करने चाहिए

ह्वाइट हाउस ने दौरे को निजी बताकर मामला रफा-दफा करना चाहा और ‘एक चीन’ नीति के प्रति अमेरिकी प्रतिष्ठान की प्रतिबद्धता को दोहराया. लेकिन बीजिंग सहमत नहीं

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अमेरिकी कांग्रेस की स्पीकर नैंसी पेलोसी के ताइवान के दौरे को लेकर चीन अमेरिका को गंभीर नतीजों की धमकी दे रहा है. बीजिंग ने धमकाने वाले कई कदम उठाए और पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) ने दक्षिण चीन सागर, यलो सी और बोहल पहाडिय़ों में गोला-बारूद से जंगी अभ्यास किया. लेकिन इससे बेफिक्र पेलोसी ने अपने बेहद सफल दौरे को जारी रखा और इस तरह मनोवैज्ञानिक युद्ध का पहला दौर तो अमेरिका का रहा.

ह्वाइट हाउस ने इस दौरे को निजी बताकर मामला रफा-दफा करना चाहा और ‘एक चीन’ नीति के प्रति अमेरिकी प्रतिष्ठान की प्रतिबद्धता को दोहराया. लेकिन बीजिंग सहमत नहीं है. आखिर अमेरिका ने चार युद्धक पोत ताइवान के पूर्व में क्यों खड़ा किया? अमेरिका ने कहा कि ये ‘सामान्य, आम तैनाती’ है.

चीन ने जवाब में ताइवान से फल और मछलियों का आयात घटा दिया और प्राकृतिक बालू का निर्यात निलंबित कर दिया. उसने ताइवान के खिलाफ सैनिक ऑपरेशन भी शुरू कर दिया है. ताइवान ने जवाबी लड़ाई का पूरा संकल्प दिखाया और कहा कि यह एकाधिकारवादी सर्वसत्तावाद और लोकतंत्र के बीच जंग है. यह देखना बाकी है कि अमेरिका अगर अपनी नौसेना को ताइवान खाड़ी की ओर बढ़ाता है तो क्या टकराव बढ़ेगा. यूक्रेन के उलट, ताइवान के चारों ओर समुद्र में पहुंचना अमेरिकी नौसेना और वायु सेना के लिए मुश्किल नहीं है.

भारत ‘एक चीन’ नीति को मानता है, मनमोहन सिंह सरकार ने 2010 में तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री के दौरे के दौरान इसका जिक्र किया था. फिर, 2014 में नरेंद्र मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में ताइवानी राजदूत चुंग क्वांग तीन और केंद्रीय ताइवानी प्रशासन के अध्यक्ष लोबसांग सांगे को न्योता दिया. जाहिर है, भारत चीन की लल्लो-चप्पो करने की नीति से दूर चला गया है. अब वक्त है कि नई दिल्ली ताइवान के साथ व्यापार और कूटनयिक रिश्तों को मजबूत करे.


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इस संकट से किसको फायदा

रूस, ताइवान पर अमेरिका-चीन के बीच तनातनी को बड़े गौर से देख रहा है. मास्को इस मामले में टांग अड़ाने को तैयार तो नहीं दिखता है. पूर्ववर्ती सोवियत संघ कभी पहले के किसी चीन-ताइवान संकट में नहीं उलझा था, भले विचारधारा के मामले में भाईचारा रहा हो. मास्को चाहेगा कि ताइवान का मसला जोर पकड़े, ताकि यूक्रेन से कुछ ध्यान हटे.

लेकिन इसकी संभावना कम है कि अमेरिका मास्को को यूक्रेन से निपटने के लिए अकेला छोड़ देगा. नैंसी पेलोसी जब ताइवान के रास्ते पर बढ़ीं, उसके एक दिन पहले अमेरिकी विशेष अभियान बलों ने अल-कायदा के मुखिया अयमान अल-जवाहिरी को अफगानिस्तान के काबुल में सुरक्षित ठिकाने पर मार गिराया. ह्वाइट हाउस ने अपनी महाशक्ति की ताकत का इजहार करके यह दिखाया कि वैश्विक मामलों में वह एक साथ कई अभियान चलाने के काबिल है. इसलिए यह सोचना बचपना होगा कि अमेरिका एक वक्त में किसी एक देश से घबरा जाएगा.
फिलहाल तो चीन संकट बढ़ाने के मूड में नहीं लगता है. चीन सुनियोजित तरीके से और अपने मुआफिक समय और स्थान पर वार करने के लिए जाना जाता है.

लेकिन शी जिनपिंग जल्दबाजी में हैं क्योंकि उन्हें मजबूत और अमेरिका के आगे न झुकने वाले नेता की अपनी छवि की रक्षा करनी है. उनके सामने विकल्प दो हैं. या तो राष्ट्रपति पद पर तीसरा कार्यकाल हासिल करें या फिर बेआबरू विदाई की तैयारी करें. इसके अलावा, बीजिंग को कोविड महामारी के पुछल्ले और तेजी से गोता लगाती अर्थव्यवस्था से जूझना है. इसलिए इसमें संदेह है कि बीजिंग ऐसे मौके पर आर्थिक प्रतिबंधों को झेल भी पाएगा या नहीं.


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अर्थव्यवस्था का मामला

महामारी के बाद आर्थिक बहाली में इलेक्ट्रॉनिक पार्ट्स और उपकरणों की मांग बढ़ी दिखती है. ताइवान इन उद्योगों के मामले में अगली कतार में खड़ा है. उसने वैश्विक फाउंड्री बाजार और सेमीकंडक्टर उत्पादन और निर्यात में हिस्सेदारी 64 फीसदी दर्ज की है. वाहन उद्योग कई इलेक्ट्रॉनिक कल-पुर्जों और उससे जुड़े दूसरे उत्पादों के लिए ताइवान के उत्पादन केंद्रों पर बुरी तरह निर्भर है.

चीन का उपभोक्ता सामग्री उत्पादन उद्योग ताइवान के निर्यात पर निर्भर है, मगर ताइवान भी हेवी एनर्जी और उपभोक्ता सामग्री के आयात पर निर्भर है, जो चिंता की वजह हो सकता है. लेकिन उम्मीद की किरण यही है कि ताइवान का विदेशी मुद्रा भंडार अपने जीडीपी के करीब 280 फीसदी है, जो 13 महीने तक आयात के लिए काफी है. टकराव लंबा खिंचने और चीन के ‘दंड’ से लंबी अवधि में ताइवान की अर्थव्यवस्था पर दबाव पड़ सकता है.
आर्थिक अनिश्चितता से न चीन को मदद मिलेगी, न ताइवान को. भारी फौजी कार्रवाई और जबरन कब्जा करने की कोशिश से यूक्रेन जैसा संकट पैदा होगा, जो ताइवान के लिए भारी मुश्किल भरा होगा लेकिन चीन भी अलग-थलग हो जाएगा.

दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया की कुछ अर्थव्यवस्थाएं बुरी हालत में हैं, भारत में इस संकट से पार पाने की काबिलियत है. नई दिल्ली को इस टकराव में उलझे बगैर कोशिश करनी चाहिए कि टकराव की स्थितियां कम हों.
ताइवान के साथ बृहत्तर आर्थिक साझेदारी के साथ घरेलू उत्पादन क्षेत्र को बढ़ावा देना चाहिए और उसके लिए सभी दिक्कतों को दूर किया जाना चाहिए, टैक्स उदार बनाना चाहिए और आपूर्ति शृंखला को मजबूत करना चाहिए. उभरती विश्व व्यवस्था में आर्थिक ताकत नेतृत्व तय करने में अहम होगी.

(लेखक ‘आर्गेनाइजर’ के पूर्व संपादक हैं. उनका ट्विटर हैंडल @seshadrichari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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