गढ़वाल के तीर्थ स्थल जोशीमठ में जमीन धंसने, मकानों में दरारें पड़ने और खतरे में पड़े लोगों को विस्थापित करने की खबरों आदि में पिछली चेतावनियों पर ध्यान न देने की बातें सही हैं.
इन खबरों में हिमालय के एक भाग में रेल, सड़क, पनबिजली परियोजनाओं के निर्माण के साथ पर्यावरण को होने वाले खतरों का भी जिक्र किया गया है. हिमालय का यह भाग जंगल को बड़े पैमाने पर काटे जाने के कारण पहले ही जमीन धंसाव और इससे जुड़ी आपदाओं का शिकार बनता रहा है.
जोशीमठ को लेकर मीडिया में जो खबरें आ रही हैं उन्होंने पर्यावरण को लेकर इन बड़ी चिंताओं को जन्म दिया है— उत्तर भारत के मैदानी इलाकों के शहरों में वायु प्रदूषण; शहरी बस्तियों में बनते कूड़े के ऊंचे पहाड़ों; पानी जैसे घटते महत्वपूर्ण संसाधन के दुरुपयोग; जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने; औद्योगिक कचरे में होती वृद्धि आदि को लेकर.
संदेश यह फ़ेल रहा है कि इन समस्याओं को लेकर चिंताएं ऐसी प्रभावी कार्रवाई में नहीं तब्दील हो रही हैं जिनसे देश की हवा, पानी, मिट्टी, जंगल और खनिज जैसे प्राकृतिक संसाधनों को दशकों से जो नुकसान पहुंचा है उसकी भरपाई हो सके.
आम मर्सिया यही है, लेकिन अधिकतर पाठकों को यह जान कर आश्चर्य होगा कि ‘ग्रीन लेखा-जोखा’ यह दर्शाता है कि भारत में पर्यावरण के रेकॉर्ड में कुल मिलाकर सुधार देखा गया है.
‘ग्रीन लेखा-जोखा’ के तहत टिकाऊ आर्थिक वृद्धि का हिसाब जीडीपी के आकलन के पारंपरिक तरीकों को जीडीपी की वृद्धि की कोशिश में प्राकृतिक परिवेश को पहुंचे नुकसान के अनुमानों से जोड़कर लगाया जाता है. यह संदेश पिछले अक्टूबर में भारतीय रिजर्व बैंक के बुलेटिन में प्रकाशित एक लेख में दर्ज था, लेकिन मीडिया ने इस पर कम ही ध्यान दिया.
वास्तव में, कहा जा रहा है कि पारंपरिक जीडीपी और ग्रीन जीडीपी के बीच की खाई सिकुड़ रही है. इसका अर्थ यह हुआ कि ग्रीन जीडीपी पारंपरिक जीडीपी के मुक़ाबले ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है. दूसरे शब्दों में, भारत नुकसान की भरपाई कर रहा है.
अगर आपको लगता है कि वास्तविकता इससे विपरीत है, तो उक्त लेख ने उन कई सरकारी कदमों को रेखांकित किया है जिनके कारण सुधार हो रहा है. इन कदमों में ये शामिल हैं— अक्षय ऊर्जा को महत्वाकांक्षी बढ़ावा, प्रति यूनिट जीडीपी पर सामग्री खपत में कमी, एलईडी बल्बों के व्यापक उपयोग और ऊर्जा केंद्रित गतिविधियों के लिए अनिवार्य ऊर्जा ऑडिट जैसे कदमों के कारण ऊर्जा खपत में कमी, सामग्री की रीसाइकलिंग में वृद्धि, ‘स्वच्छ भारत’ पहल के तहत ठोस कचरे का बेहतर निपटारा, नमामि गंगे कार्यक्रम, आदि. लेख के लेखकों ने स्वीकार किया है कि हाल के वर्षों में हुए कुछ सुधार आंकड़ों की बेहतर उपलब्धता के कारण हुए हैं.
सामान्य दृष्टि से, रिजर्व बैंक बुलेटिन की रिपोर्ट ग्रीन जीडीपी के आकलन का पहला प्रयास है. इसे मापने के तरीके, उपलब्ध आंकड़े, और इस वजह से निष्कर्ष भी बेहतर होंगे अगर ज्यादा दिमाग मिलकर हिसाब-किताब करेंगे और संभवतः परिभाषा तय करेंगे.
उक्त लेख का संदेश बेशक सकारात्मक है. लेकिन असली सवाल यह है कि क्या ग्रीन जीडीपी (जो परिभाषा के मुताबिक गतिविधियों से जुड़ा है) यह भी दर्शाता है कि प्राकृतिक पूंजी के भंडार के साथ बैलेंस शीट वाले नजरिए से क्या हो रहा है? उपयुक्त नाप-जोख हमेशा सुसंगत सुधार की शुरुआत करता है. तो पारंपरिक जीडीपी के अनुमानों के साथ ग्रीन जीडीपी के आंकड़े भी क्यों न जारी किए जाएं? तब, टिकाऊ विकास को उसके उपयुक्त संदर्भ में समझा जाएगा और उस पर चर्चा की जाएगी.
इस बीच, कुछ विकल्प चुनने हैं और कुछ सवालों के जवाब देने हैं. जोशीमठ के आसपास निर्माण आदि फिलहाल बंद कर दिए गए हैं लेकिन हिमालय और दूसरी जगहों से उभरीं पर्यावरण संबंधी चेतावनियों की पहले जो उपेक्षा हुई वह दोबारा न हो, इसकी व्यवस्था कैसे की जाएगी? क्या पानी की ज्यादा खपत करने वाले धान और गन्ने की खेती हरियाणा और महाराष्ट्र के उन इलाकों में की जाएगी जहां पानी का अभाव है?
चूंकि खेती पानी की सबसे बड़ी उपभोक्ता है, क्या किसानों को मौजूदा दर से भूजल का इस्तेमाल न करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है? इसके लिए क्या पानी की कीमत बढ़ाने, और पानी की कम खपत करने वाले धान की खेती को प्रोत्साहित करने जैसे कदम उठाए जा सकते हैं? क्या इंजीनियर और निर्माण उद्योग की मिलीभगत को तोड़ा जा सकता है? और क्या हम ऐसी ताकतवर नियमन व्यवस्था और संबंधित संस्थाएं बना सकते हैं जो पर्यावरण की सुरक्षा कर सकें.
यदि नहीं, तो जोशीमठ की घटना प्रभाव एक सप्ताह से ज्यादा नहीं टिकेगा.
(बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष प्रबंध द्वारा)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: अगले 10 साल में भारत 6.5% की आर्थिक वृद्धि तभी हासिल कर सकता है जब कुछ प्रमुख नीतिगत बदलाव करे