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Friday, 22 November, 2024
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जलवायु पर भारत से वैसी उम्मीद नहीं करनी चाहिए जो चीन से है, मोदी को ये स्पष्ट करना होगा

प्रधानमंत्री मोदी को वाशिंगटन शिखर सम्मेलन का उपयोग विकासशील देशों के लिए पर्यावरण अनुकूलन के महत्व पर भागीदार देशों का ध्यान खींचने और इसके वास्ते बहुपक्षीय वित्त और प्रौद्योगिकी की व्यवस्था पर जोर देने के लिए करना चाहिए.

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अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन इस सप्ताह वर्चुअल जलवायु परिवर्तन शिखर सम्मेलन आयोजित कर रहे हैं, जिसमें वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में 80 प्रतिशत का योगदान करने वाले दुनिया के 20 देशों के शीर्ष नेता के शामिल होने की उम्मीद है. लिखते समय तक, ये स्पष्ट नहीं है कि चीन के राष्ट्रपति शी जिंपिंग बाइडन के निमंत्रण को स्वीकार करेंगे या नहीं. वैसे बाइडन के विशेष जलवायु दूत जॉन कैरी ने हाल ही में चीन का दौरा किया था और अपने समकक्ष शी झेन्हुआ के साथ बातचीत की थी लेकिन चीन ने अभी तक इस बारे में कोई आश्वासन नहीं दिया है.

अमेरिका जलवायु परिवर्तन को एक ‘विशिष्ट‘ मुद्दा बताता है, जिसे चीन के शिनजियांग और तिब्बत में मानवाधिकार जैसे अमेरिका-चीन संबंधों से जुड़े अन्य विवादास्पद मुद्दों से अलग करके देखा जाना चाहिए. हाल ही में, ताइवान का मुद्दा भी दोनों देशों के बीच तनाव का कारण बना है. चीन ने बाइडन प्रशासन द्वारा ताइवान की सुरक्षा के प्रति अमेरिकी समर्थन जताने के लिए अमेरिका के पूर्व वरिष्ठ अधिकारियों को ताइवान भेजे जाने पर कड़ी आपत्ति जताई है.

अमेरिकी कांग्रेस एक कानून पर विचार कर रही है जो कि दोनों देशों के बीच आधिकारिक स्तर के संपर्कों को बहाल कर सकेगी. इससे चीन और भड़क गया है. इस बीच चीनी प्रवक्ता ने अमेरिका की दलील को सिरे से खारिज कर दिया है कि जलवायु परिवर्तन को दोनों देशों के बीच सहयोग के लिए एक अलग मुद्दे के रूप में देखा जाना चाहिए और इस बात पर जोर दिया है कि संबंधों का पूरा आयाम परस्पर संबद्ध है.

पृथ्वी दिवस के अवसर पर आयोजित बाइडन के 22-23 अप्रैल के वर्चुअल जलवायु शिखर सम्मेलन से कुछ ही दिन पहले, शी जिंपिंग ने फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और जर्मनी की चांसलर एंगेला मर्केल के साथ त्रिपक्षीय शिखर बैठक की, जिसके एजेंडे में जलवायु परिवर्तन भी शामिल था. इस कारण भी संदेह बनता है कि शी जिंपिंग अंततः बाइडन के निमंत्रण को स्वीकार करेंगे कि नहीं. यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया, तो बाइडन की पहल और जलवायु परिवर्तन पर अमेरिकी नेतृत्व को फिर से स्थापित करने के उनके प्रयास को एक बड़ा झटका लगेगा.

चीन कार्बन का सबसे बड़ा उत्सर्जक है, जो कुल वैश्विक उत्सर्जन के लगभग 30 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार है. अमेरिका का योगदान इसकी लगभग आधी मात्रा का है, जबकि भारत का आंकड़ा अमेरिका के मुकाबले भी आधा है. इसलिए चीन के बिना किसी भी बहुपक्षीय पहल के बहुत अधिक विश्वसनीय होने की संभावना नहीं है.


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भारत को चीन से ‘अलग’ करना

अपनी हालिया भारत यात्रा के दौरान, जॉन कैरी ने स्पष्ट किया था कि उनका एक प्रमुख उद्देश्य नई दिल्ली को 2050 तक कार्बन न्यूट्रल बनने के लक्ष्य को अपनाने के लिए राज़ी करना है. इस तरह के लक्ष्य पर अन्य प्रमुख उत्सर्जकों के सहमत होने की उम्मीद की जाती है.

चीन पहले ही घोषित कर चुका है कि वह अपने कार्बन उत्सर्जन को ‘2030 के आसपास’ अधिकतम स्तर पर ले आएगा, और 2060 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन स्तर हासिल करेगा. चीन की इस घोषणा का इस्तेमाल ऐसे ही लक्ष्यों के लिए भारत पर दबाव बनाने में किया जा रहा है. हमें इस जाल में नहीं फंसना चाहिए. हमें 2050 तक कार्बन न्यूट्रल बनने के वैश्विक लक्ष्य का स्वागत करना चाहिए लेकिन इसे जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की फ्रेमवर्क संधि की सामान्य और विभेदित जिम्मेदारियों और क्षमताओं के सिद्धांत के अनुरूप राष्ट्रीय योगदान के जरिए हासिल करने पर जोर देना चाहिए.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस बात पर बल देना चाहिए कि वैश्विक उत्सर्जन के केवल 7 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार देश के साथ 30 प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार देश के समान व्यवहार नहीं किया जा सकता है. इस संबंध में भारत को चीन से ‘अलग’ करके देखा जाना चाहिए.

दुनिया को भारत से ऐसी प्रतिबद्धताओं की उम्मीद नहीं करनी चाहिए जो चीन से अपेक्षित हैं. इसका मतलब ये नहीं है कि भारत और चीन जलवायु संबंधी उन मुद्दों पर मिलकर काम नहीं कर सकते जहां कि उनके हित परस्पर मिलते हों. उदाहरण के लिए, हाल ही में बेसिक देशों (ब्राज़ील, दक्षिण अफ्रीका, चीन और भारत) के समूह ने एक संयुक्त बयान जारी कर यूरोपीय संघ के ‘कार्बन बॉर्डर टैक्स’ के प्रस्ताव का विरोध किया था.

प्रधानमंत्री मोदी को वाशिंगटन शिखर सम्मेलन का उपयोग विकासशील देशों के लिए पर्यावरण अनुकूलन के महत्व पर भागीदार देशों का ध्यान खींचने और इसके वास्ते बहुपक्षीय वित्त और प्रौद्योगिकी की व्यवस्था पर जोर देने के लिए करना चाहिए.

जलवायु परिवर्तन वर्तमान में जारी है. चरम जलवायु परिघटनाओं की आवृत्ति बढ़ रही है. उत्तर और दक्षिण दोनों ही ध्रुवों पर बर्फ की परत खतरनाक दर से पिघल रही है और हिमालय के हमारे ग्लेशियरों का भी यही हाल है. इससे मौसम के ढर्रे के साथ-साथ समुद्री धाराएं भी प्रभावित हो रही हैं. ये प्रभाव वर्तमान को प्रभावित करने के साथ ही भविष्य पर और अधिक गंभीर असर डालने की संभावना रखते हैं और इनका सर्वाधिक खतरा विकासशील देशों के लिए है.

भले ही वैश्विक उत्सर्जन शून्य हो जाए लेकिन जलवायु परिवर्तन हमारे ग्रह को प्रभावित करता रहेगा क्योंकि धरती के वातावरण में मौजूद पूर्व में उत्सर्जित गैसों का भंडार जलवायु परिवर्तन की असल वजह है और यह भंडार धीरे-धीरे ही कम होगा. इसमें दशकों से लेकर एक सदी या उससे भी अधिक का समय लग सकता है. इसके बावजूद सारा ध्यान उत्सर्जन को कम करने पर ही दिया जा रहा है. पर्यावरण अनुकूलन को नजरअंदाज किया जा रहा है जो कि अधिकांश विकासशील देशों के लिए एक बड़ी चुनौती है. भारत को इस उपेक्षा के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय जनमत तैयार करने का प्रयास करना चाहिए.


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‘ग्रीन रिकवरी’ में भारत की भूमिका

मानवता को स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा प्रदान करने के लिए सूर्य की असीम ऊर्जा के दोहन हेतु अंतरराष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देने के लिए भारत ने 2015 के पेरिस जलवायु शिखर सम्मेलन के दौरान अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन की शुरुआत की थी. उसके बाद से भारत ने सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने में काफी प्रगति की है और उसका खुद का अनुभव अन्य विकासशील देशों के लिए एक मिसाल बन सकता है. यदि प्रधानमंत्री मोदी इस महत्वाकांक्षी परियोजना के लिए सभी भागीदार देशों, विशेषकर अमेरिका और यूरोपीय संघ की प्रतिबद्धता हासिल कर पाते हैं तो ये एक बड़ी उपलब्धि होगी.

दिल्ली में कैरी की टिप्पणियों से यही लगता है कि जलवायु परिवर्तन के खिलाफ भारत के कदमों के लिए सरकार के स्तर पर वित्तीय सहायता के रूप में ज्यादा कुछ उपलब्ध नहीं होगा. उन्होंने निजी पूंजी और प्रौद्योगिकी स्थानांतरण के महत्व पर जोर दिया है. यानि शिखर सम्मेलन में भारत जो भी संकल्प लेगा, उसके लिए घरेलू संसाधनों पर निर्भर रहना होगा.

कोविड-19 महामारी के प्रभाव के कारण, देश का आर्थिक विकास सुस्त पड़ा है और आने वाले कुछ समय के लिए इस संबंध में अनिश्चितता बने रहने की संभावना है.

भारत को ‘ग्रीन रिकवरी’ के लिए प्रतिबद्धता जतानी चाहिए और सतत विकास की वैकल्पिक आर्थिक रणनीति तैयार करनी चाहिए. क्योंकि हमारे आर्थिक विकास की मौजूदा दिशा हमें एक अंधी गली में ले जा छोड़ेगी. संसाधनों की व्यवस्था के बगैर घोषित महत्वाकांक्षी लक्ष्यों के बजाय भारत सतत विकास की रणनीति के निर्माण और अनुपालन के जरिए अंतरराष्ट्रीय विश्वसनीयता हासिल कर सकता है और ये रणनीति हमें कम उत्सर्जन वाले विकास के रास्ते पर ले जाएगी.

(श्याम सरन पूर्व विदेश सचिव और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में वरिष्ठ अध्येता हैं. वह जलवायु परिवर्तन मामलों पर प्रधानमंत्री के विशेष दूत (2007-2010) थे. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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