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Wednesday, 1 May, 2024
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भारत-चीन सीमा विवाद: अमेरिका को तवज्जो देकर क्या हम अपने पड़ोस में मुसीबत खड़ी कर रहे हैं

पाकिस्तान और चीन से ही नहीं, नेपाल, श्रीलंका व बंगलादेश जैसे पड़ोसी देशों के साथ भी हमारे संबंध अच्छे नहीं हैं. क्या इसके लिए हम एकतरफा तौर पर सारा ठीकरा इन पड़ोसी देशों पर ही फोड़कर अपना पल्ला झाड़ सकते हैं?

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लद्दाख सेक्टर में चीन के साथ ताजा सीमा विवाद के सिलसिले में वहां के सरकारी समाचार पत्र ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने अभी दो तीन दिन पहले ही जिस तरह आग में घी डालते हुए धमकाने वाले अंदाज में लिखा था कि भारत को लद्दाख को डोकलाम समझने की गलती नहीं करनी चाहिए, क्योंकि लद्दाख में चीनी सेना ने पहाड़ों में उससे लड़ने की पूरी तैयारी कर रखी है, उससे शायद ही किसी ने उम्मीद कर रखी हो कि दोनों देशों में महीने भर से जारी तनातनी सैन्य कमांडरों की महज एक बैठक से खत्म होने की स्थिति बन जायेगी. वैसे ही, जैसे 2017 में डोकलाम का 73 दिन पुराना विवाद तीन घंटों की वार्ता से सुलझ गया था.

इसलिए कमांडरों के बीच जो कुछ हुआ, उसे इस लिहाज से संतोषप्रद मानना चाहिए कि बात बनी नहीं, तो बिगड़ी भी नहीं है. भारत ने चीन को बता दिया है कि उसे हर हाल में अप्रैल से पहले की स्थिति की बहाली अभीष्ट है और चीन भले ही तुरंत अपने सैनिकों को हटाने या पीछे ले जाने को राजी नहीं हुआ है, सैन्य व कूटनीतिक चैनलों को सक्रिय रखकर तनातनी दूर करने और उसके कारणों की समीक्षा करने पर राजी है. इससे कमांडरों के मिलने से पहले दोनों देशों के राजनयिकों की वार्ता के इस निश्चय को नई विश्वसनीयता हासिल हुई है कि सारे मतभेदों को शांतिपूर्वक एक दूसरे की मर्यादाओं, चिंताओं और आकांक्षाओं को ध्यान में रखकर धमकियों की भाषा पर उतरे बगैर निपटाया जाये.

चीन का कहना है कि उसने यह दृष्टिकोण 2018 में वुहान में उसके राष्ट्रपति शी जिनपिंग और भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच हुई अनौपचारिक शिखर बैठक में हुई सहमति का सम्मान करते हुए अपनाया है, जबकि हमारे देश में कई महानुभाव उसकी इस नरमी को भी अपने ‘महानायक’ के पराक्रम से जोड़कर ही खुश होना चाहते हैं. वे कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अमेरिका व ऑस्ट्रेलिया वगैरह के साथ मिलकर जो घेराबंंदी की, उससे चीन की सारी अकड़ निकल गई.

दूसरी ओर ऐसा कहने वाले भी हैं कि मोदी सरकार को विदेश नीति की पेचीदगियां समझ में नहीं आतीं, इसलिए बार-बार उसके पैर ऐसे कीचड़ में जा फंसते हैं, जहां से निकलना मुश्किल होता है. इसके कम से कम दो उदाहरण तो एकदम ताजा हैं.

पहला यह कि ह्यूस्टन में ‘हाउडी मोदी’ और अहमदाबाद में ‘नमस्ते ट्रम्प’ जैसे महत्वाकांक्षी आयोजनों के बाद भी वे परिस्थितियां नहीं टाल सकी, जिनके तहत व्हाइट हाउस ने ट्विटर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अनफॉलो करने जैसा अपमानजनक कदम उठाया और हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन की आपूर्ति को लेकर डोनाल्ड ट्रम्प सीधे धमकी पर उतर आये.

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इतना ही नहीं, चीन से सीमा विवाद शुरू हुआ तो ट्रम्प ने यह बेपर की उड़ाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी कि दोनों देशों के बीच मध्यस्थता के संदर्भ में उनकी मोदी से बात हो चुकी है. यह जानते हुए कि इस मामले में वे मध्यस्थता की योग्यता ही नहीं रखते, क्योंकि वे मोदी के विश्वासपात्र भले ही हों, चीन के नहीं हैं और मध्यस्थ को दोनों का विश्वास प्राप्त होना जरूरी होता है. चीन से तो उनके रिश्ते लगातार तल्ख बने हुए हैं. पहले ट्रेडवॉर और अब कोरोना को चाइनीज वायरस बताने को लेकर.

ज्ञातव्य है कि ट्रम्प इससे पहले भारत के घोषित स्टैंड के खिलाफ कश्मीर के मामले में भी भारत-पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता को उतावले थे ओर ऐसी अटकलें भी हवा में हैं कि उनकी और मोदी की हाल की चर्चा का एक सिरा चीन-भारत सैन्य तनाव तक भी गया. गौरतलब है कि ट्रम्प का यह गैरजिम्मेदाराना भरा बरताव तब है, जब हमारे प्रधानमंत्री उन्हें अपना परम मित्र बताते नहीं थकते. अपनी अमेरिका यात्रा में वे परम्परा के विपरीत उनके लिए वोट भी मांग आये थे.

हां, अच्छी बात यह कि भारत और चीन दोनों ने उनकी मध्यस्थता की पेशकश को नकार दिया और भारत को ‘सर्वशक्तिमान अमेरिकी खेमे’ में दिखाने की उनकी कोशिशें सफल नहीं हुई. हो जातीं तो चीन से उनकी प्रतिद्वंदिता के कारण भारत की मुश्किलें बढ़ती हीं. चीन उसे ‘दुश्मन के दोस्त’ की तरह ट्रीट करता और उस पर कुछ ज्यादा ही अविश्वास करता.

ऐसे में देश में कोई मोदी सरकार का समर्थक हो या विरोधी, सबको समझने की जरूरत है कि घरेलू राजनीति के विपरीत अंतरराष्ट्रीय मामलों में चीजें एकरेखीय नहीं हुआ करतीं और एक दूजे को खलनायक करार देने से विवादों के समाधान के नये रास्ते खुलने से पहले ही बंद होने लगते हैं. मामला पड़ोसियों का हो तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के उस कथन के अनुसार भी सदाशयता परिहार्य होती है कि ‘हम मित्र तो चुन सकते हैं लेकिन पड़ोसी नहीं ‘. उससे हर हाल में निभाना पड़ता है.

इसके मद्देनजर चीन से तनाव की चिंता अमेरिका से साझा करना, ट्रम्प की मध्यस्थता की कोशिश पर विचार या उस पर नाक भौं सिकोड़ने से ज्यादा जरूरी यह सुनिश्चित करना है कि चीन से रिश्ते उस मोड़ पर कतई न जाने पायें, जहां किसी तीसरे देश के दखल की जरूरत पड़े. इस सवाल से भी जूझना ही होगा कि डोकलाम विवाद की सुखद परिणति के बाद मोदी और शी जिंपिंग की मुलाकातों में आपसी रिश्तों को जिन नई ऊंचाइयों पर ले जाने के इरादे जताये गये, अब उन्हीं ऊंचाइयों पर सैनिक आमने-सामने क्यों हैं? इसके पीछे दोनों देशों के बीच की अपरिभाषित नियंत्रण रेखा ही है या उससे जुड़ी कुछ नई पेचीदगियां भी? अगर भारत द्वारा सीमा पर अपने क्षेत्र में आधारभूत जरूरी निर्माणों के कारण चीन ‘आक्रामक’ है तो अपने राष्ट्रीय गौरव और स्वाभिमान की रक्षा के लिए समय रहते उसका समाधान भी ढूंढ़ना ही होगा.

अच्छी बात है कि रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने वस्तुस्थिति को झुठलाने के बजाय स्वीकार किया है कि पूर्वी लद्दाख में चीनी सैनिक अच्छी खासी संख्या में आ गए हैं. उन्होंने यह भी कहा है कि भारत कतई पीछे नहीं हटने वाला और स्थिति से निपटने के सभी आवश्यक कदम उठाए गये हैं. बेहतर होता कि वे यह भी बताते कि इन आवश्यक कदमों के लिए स्थिति के इतनी जटिल होने का इंतजार क्यों किया गया?


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हमारे देश में बहुतेरों के लिए चीन और पाकिस्तान दोनों एक जैसे खलनायक हैं. वे प्रायः तय किया करते हैं कि उनमें कौन दुश्मन नम्बर एक है और कौन दो? ऐसे में पाकिस्तान से लगी सीमा पर मुठभेड़ या घुसपैठियों पर सैन्य कार्रवाई की तत्परतापूर्वक खबर देने वाले हमारे रक्षातंत्र को चीन से टकराव के मामले में लुका-छिपी और अपारदर्शिता की इजाजत क्यों होनी चाहिए? क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि चीनी राष्ट्रपति के साथ झूला झूलने और नाव की सैर करने जैसी युक्तियां चीन से बेहतर संबंधों में मददगार साबित नहीं हो रहीं, तो अपनी रणनीति पर फिर से विचार करने के लिए किस घड़ी का इंतजार है? इस इंतजार को इस सोच के तहत भी लम्बा नहीं होने दिया जा सकता कि हमारा देश चीन के उत्पादों के लिए इतना बड़ा बाजार है कि वह पाकिस्तान से अपनी दोस्ती निभाने के लिए भी हमसे युद्ध का विकल्प नहीं चुनेगा, हम एक बार उसे उसके माल के बहिष्कार की धमकी देंगे और वह औकात में आ जायेगा.

लेकिन दूसरे पहलू पर जायें तो पाकिस्तान और चीन से ही नहीं, नेपाल, श्रीलंका व बंगलादेश जैसे पड़ोसी देशों के साथ भी हमारे संबंध अच्छे नहीं हैं. क्या इसके लिए हम एकतरफा तौर पर सारा ठीकरा इन पड़ोसी देशों पर ही फोड़कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ सकते हैं? अगर नहीं तो क्या इसे हमारी विदेश नीति की विफलता के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए? अमेरिका को जरूरत से ज्यादा तवज्जो देकर कहीं हम अपने पड़ोस में मुसीबतें तो खड़ी नहीं कर रहे? याद रखना चाहिए कि सवालों से मुंह चुराने से वे हल नहीं होते, उलटे और जटिल हो जाते हैं.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, व्यक्त विचार निजी हैं)

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