पहली अप्रैल को दिल्ली से एक दोस्त ने बड़ी हड़बड़ी में यह जानने के लिए फोन किया कि क्या यह अफवाह सच्ची है कि प्रधानमंत्री इमरान खान को दिल का दौर पड़ा है, या यह महज अप्रैल फूल वाला मज़ाक है? मैंने उसे बताया कि नेता बन चुके क्रिकेटर न केवल भले-चंगे हैं बल्कि ऐसा लगता है कि अप्रैल फूल वाला अपना मज़ाक उन्होंने खुद ही उड़ाया है.
उनके मंत्रिमंडल की आर्थिक समन्वय कमिटी ने भारत से कपास और चीनी आयात करने का जो प्रस्ताव भेजा था उसे इमरान खान ने खारिज कर दिया है. हकीकत यह है कि कॉमर्स और कपड़ा मंत्रालय संभाल रहे इमरान खान ने खुद ही इस पर दस्तखत किया था. यही नहीं, इसके बाद विदेश मंत्री शाह महमूद कुरेशी ने बयान दिया कि भारत के साथ तब तक कोई बात शुरू नहीं हो सकती जब तक वह जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को रद्द करने का फैसला वापस नहीं लेता.
ऐसा लगता है कि यह पाकिस्तान के सेना अध्यक्ष जनरल क़मर जावेद बाजवा की उम्मीदों की राह में पहला रोड़ा साबित होगा. बाजवा ने 18 मार्च को इस्लामाबाद सिक्यूरिटी डायलॉग में अपने भाषण में ‘बुनियादी बदलाव’ लाने की महत्वाकांक्षा जाहिर की थी. ऐसा लगता है कि सेना अध्यक्ष सुरक्षा तंत्र के पारंपरिक कर्णधारों से सलाह किए बिना अपना मुंह खोल बैठे. मुझे 2007 में अपनी मित्र और पत्रकार निरुपमा सुब्रह्मण्यम से हुई बातचीत याद आ गई, जब वे ‘हिंदू’ अखबार की संवाददाता के रूप में इस्लामाबाद में तैनात थीं. उस बातचीत में यही उभरा था कि यह तय है कि अमन नहीं होने वाला क्योंकि राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र में इसका समर्थन करने वाले ज्यादा नहीं हैं. परवेज़ मुशर्रफ की और अमन की पहल की विदाई में ज्यादा वक़्त नहीं लगा था.
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व्यापार इतना आसान क्यों नहीं है
‘बुनियादी बदलाव’ रणनीतिक और सामरिक दृष्टि से भी मुश्किल है. किसी भी फौजी कमांडर के लिए ढांचागत समस्या सबसे बड़ी होती है. राजनीतिक नेतृत्व को अमन की पहल के बारे में सोचने और लागू न करने देना बताता है कि बचाव का कवच मौजूद नहीं है. कोई जनरल जब अमन कायम करने की ज़िम्मेदारी खुद उठा लेता है तब वह अपने ही लोगों के साथ अपना समीकरण गड़बड़ कर लेता है. न तो मुशर्रफ यह समझ सके, न बाजवा समझ पा रहे हैं. सामरिक स्तर पर, एकदम पीछे लौटना भी जरूरी हो जाता है.
सोशल मीडिया का लिहाज रखने वाले पाकिस्तानी सुरक्षा तंत्र को जल्दी ही एहसास हो गया कि बहुत जल्दबाज़ी करने से ऐसी छवि बनेगी कि सरेंडर किया जा रहा है, और यह 1971 की भी याद दिला देता है.
आज सोशल मीडिया बाजवा को यह याद दिलाने वाले संदेशों से भरा है कि वे शांति वार्ता की जो बात कर रहे हैं वह ऐसा ही है जैसा उन्होंने और उनके लोगों ने पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को इस क्षेत्र में सहकारी शांति और स्थिरता कायम करने के लिए यथास्थिति मुक्त तथा गैर-पारंपरिक उपायों का इस्तेमाल करने से रोक दिया था.
इसलिए, सेना अध्यक्ष क्या इसलिए अमन की बात कर रहे हैं कि पाकिस्तान के पास भारत से बात करने के सिवा कोई विकल्प नहीं है? बाजवा ने वास्तविक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोईद यूसुफ का लिखा हुआ भाषण भले पढ़ा हो जिसमें बुनियादी बदलाव और भू-अर्थनीति की बात की गई है, लेकिन वे अपने जनरलों के सामने और ज्यादा सवालिया नहीं बनना चाहेंगे. भू-रणनीति से भू-अर्थनीति की ओर बढ़ने की बात करना आसान है लेकिन इस बदलाव को संभालना काफी मुश्किल है. जो भी हो, जिस सेना अध्यक्ष का कार्यकाल बढ़ाया जाता है वह उधार के पेट्रोल पर चल रही गाड़ी जैसा होता है.
इस सबका जो आंतरिक प्रभाव पड़ा है उससे यथास्थितिवादी ताक़तें नाराज दिखती हैं. उन्होंने अड़ंगा लगा दिया, और इमरान खान ने व्यापार के मामले में दो साल से अटकी जो पहल की थी उसे आगे बढ़ाने के लिए जो पहला कदम उठाया उसे बीच में ही रोक दिया, और इसके लिए भारत को जिम्मेदार बता दिया. पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) के नेता और सीनेटर शेरी रहमान ने ‘भारत के उग्र तत्वों’ पर आरोप लगा दिया कि वे बुनियादी बदलाव की पेशकश को भारत की जीत के रूप में देख रहे हैं या इसे पाकिस्तान की आर्थिक मजबूरियों का नतीजा मान रहे हैं.
सत्ता तंत्र के अंदर बैठे यथास्थितिवादियों के बीच यह चर्चा चल रही है कि अमन की जरूरत पाकिस्तान से ज्यादा भारत को है. भारत को अपनी अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने से लेकर एलओसी पर अमन कायम करने तक बहुत कुछ हासिल हो सकता है, लेकिन पाकिस्तान और कश्मीर के लिए जो अहम मुद्दे हैं उन पर अनुकूल जवाब देने की अहमियत को वह कम करके नहीं आंक सकता.
सत्ता तंत्र के करीबी लोगों ने मुझे बताया कि जनरल बाजवा के 18 मार्च के भाषण में अनुच्छेद 370 या यूएन के प्रस्तावों का कोई जिक्र न होना यही संकेत देता है कि पाकिस्तानी फौज एक संगठन के तौर पर शायद बदल रही है और सरहद के मामले में यथास्थिति चाहती है. लेकिन सत्ता तंत्र को जल्दी ही यह एहसास हो गया कि अपनी संस्थात्मक वैधता की खातिर यथास्थिति को बदलना बेहद महंगा पड़ेगा. घरेलू अवाम को अगर यह संदेश गया कि अमन के लिए भारत से ज्यादा पाकिस्तान उत्सुक है, तो इससे मुल्क में एक राजनीतिक हुकूमत को, जिसने खास कुछ हासिल नहीं किया है, बिठाने पर ही सवाल खड़ा हो जाएगा, और लोकतांत्रिक प्रक्रिया अस्थिर हो जाएगी. भू-राजनीतिक स्तर पर सेना इस धारणा को तोड़ने की कोशिश करेगी कि अमन से भारत को ज्यादा फायदा होगा.
नये ओझा-हकीम
यह कोई हैरत की बात नहीं थी कि व्यापार के मामले में इमरान खान का फैसला आने के बाद शाम होते-होते ही पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआइ) के सोशल मीडिया एक्टिविस्ट इमरान खान की दूदर्शिता और काबिलियत की तारीफ करने लगे कि उन्होंने नरेंद्र मोदी को किस तरह झटका दे दिया, कि जितना पाकिस्तान को भारत से आयात करने की जरूरत नहीं है उससे ज्यादा भारत पाकिस्तान को निर्यात करने को उत्सुक है. पाकिस्तान में जो एक समानान्तर संसार है वह डॉक्टर जेकिल और मिस्टर हाइड की याद दिला देता है. अभी हाल में ही राष्ट्रीय सुरक्षा मामलों पर प्रधानमंत्री के विशेष सहायक मोईद यूसुफ ने, जो खुद को एनएसए ही मानते हैं, भारत की ऋणात्मक आर्थिक वृद्धि के बारे में बताते हुए कहा कि पाकिस्तान उस आर्थिक परिवर्तन के रास्ते पर है कि ‘जल्दी ही दूसरे मुल्कों के इमिग्रेशन अफसरान पाकिस्तान के ग्रीन पासपोर्ट को सलाम ठोकेंगे.’
पाकिस्तान के खुफिया तंत्र से उभरे वे एक नये हकीम हैं. आर्थिक पत्रकार और ‘डॉन’ अखबार के स्तंभकार खुर्रम. हुसैन का मानना है कि आयात के फैसले को उलटने के पीछे जनरल बाजवा के भाषण पर पाकिस्तान के व्यावसायिक तथा औद्योगिक खेमे में उपजी आशंकाओं का हाथ हो सकता है, जो भारत से आयात करने की इजाजत के लिए पैरवी कर रहा होगा. हुसैन का कहना है कि पलटने का फैसला खुद इमरान खान ने अपने तईं नहीं किया होगा बल्कि इसके पीछे पाकिस्तानी फौज का हाथ हो सकता है.
अपनी छवि से लड़ता पाकिस्तान
भारत के लिए बुनियादी सबक पहले की तरह फिर यही है कि केवल आर्थिक वजहों से पाकिस्तान अपना रास्ता नहीं बदलेगा. वित्तीय बोझ और ‘फाइनांशियल ऐक्शन टास्क फोर्स’ (एफएटीएफ) के तहत प्रतिबंधों से उसकी अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा है. लेकिन उसकी फौज अभी भी यह मानने को राजी नहीं है कि सैन्य सुरक्षा या राष्ट्रीय सुरक्षा की खातिर लोगों से बदहाली में रहने के लिए मजबूर न करना भी एक विकल्प है.
राष्ट्रीय सुरक्षा तंत्र अफगानिस्तान में हाल में हासिल सामरिक कामयाबियों से संतुष्ट नज़र आता है, और तालिबान के सत्ता में रहने के दीर्घकालिक खतरे की अनदेखी कर रहा है. इसके साथ ही वह पश्चिम एशिया में अपनी ताकत और भूमिका बढ़ाने के लिए मध्य एशिया में अपने विकल्प तलाशने में व्यस्त है. इस्लामाबाद सिक्यूरिटी डायलॉग के दौरान एक विषय यह भी उभरा कि दक्षिण एशिया को दो नजरिए से देखा जाए. एक, पाकिस्तान बनाम भारत और बाकी क्षेत्र; और दूसरा, मध्य एशिया, रूस और चीन की ओर हाथ बढ़ाता अफगानिस्तान. पाकिस्तान अब भारत को यह याद दिलाएगा कि बाजवा ने जब बुनियादी बदलाव की बात की थी तब इस बात पर भी ज़ोर दिया था कि वह पाकिस्तान को ऐसी कोई पेशकश करे जिससे उसे लगे कि उसे सचमुच कोई फायदा हुआ है. व्यापार का रास्ता खोलने भर से ही बात नहीं बनेगी. कश्मीर में कुछ नये वैधानिक-संवैधानिक बदलाव की मांग की जा रही है. ऐसा लगता है कि पाकिस्तान का राष्ट्रीय सुरक्षा महकमा अभी भी यह मानता है कि मोदी सरकार के लिए अनुच्छेद 370 वाले अपने फैसले को रद्द करना मुमकिन है. निकट भविष्य में जिहादियों को अपनी छत्रछाया से बाहर करने में उसकी असमर्थता भी इसके साथ ही जुड़ी है. केवल आर्थिक प्रतिबंधों का डर ही नहीं बल्कि पाकिस्तान के बारे में एक सकारात्मक सोच अपनाने से ही बात आगे बढ़ेगी.
परदे के पीछे चलने वाले संवादों से तनाव कुछ कम हुआ तो दिखता है लेकिन नीति बनाने वालों की अपेक्षाओं और नीति तय करने की कठोर हकीकतों के बीच बड़ी खाई बनी हुई है. एक विकल्प तो यह है कि कश्मीर में सीमा पार से व्यापार बहाल करने की नयी पहल की जाए. हकीकत यह भी है कि एक सीमा के बाद नरेंद्र मोदी के लिए राजनीतिक दांव एकदम बूते से बाहर भले न हो जाएं, बढ़ जरूर जाएंगे. परदे के पीछे चलने वाले संवादों को और बढ़ाने से अपेक्षाओं और संभावनाओं की सीमाओं को समझने में शायद मदद मिले. भारत और पाकिस्तान ने आपस में संवाद शुरू तो किया है मगर वे उस मुकाम पर नहीं पहुंचे हैं जब अमन को मजबूती देना मुमकिन हो जाता है.
(लेखिका एसओएएस, लंदन में रिसर्च एसोसिएट हैं. उन्होंने ‘मिलिट्री इंक’ नामक पुस्तक लिखी है. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
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