scorecardresearch
Tuesday, 5 November, 2024
होममत-विमतज़ोमैटो प्रकरण में सीईओ दीपेंद्र गोयल का दिखा घोर अवसरवादी चेहरा

ज़ोमैटो प्रकरण में सीईओ दीपेंद्र गोयल का दिखा घोर अवसरवादी चेहरा

ज़ोमैटो का समर्थन करने वाले उदारवादियों ने भी अपने दोमुंहेपन को प्रदर्शित किया है.

Text Size:

हम ज़ोमैटो प्रकरण से क्या निष्कर्ष निकाल सकते हैं, जिसमें अमित शुक्ला नामक एक व्यक्ति ने खाने की डिलिवरी लेने से इसलिए इनकार कर दिया कि खाना डिलिवर करने वाला व्यक्ति मुसलमान था, और ज़ोमैटो ने मुफ्त की पब्लिसिटी के लिए इसे तूल देने का फैसला किया? जवाब आसान नहीं हैं क्योंकि उनसे प्रकरण में शामिल हर पक्ष बुरा साबित होता है.
खानपान का विषय नितांत व्यक्तिगत होता है, भले ही इसके पीछे धार्मिक, नैतिक या फिर स्वास्थ्य संबंधी कारण रहते हों. इस अर्थ में, क्षेत्रीय व्यंजन हो या देश भर में प्रचलित खानपान, वे उनमें शामिल साग्रियों, पकाने के तरीकों या आहार के विकल्पों के अनुरूप व्यक्ति विशेष की अभिव्यक्ति होते हैं.

धार्मिक आहार विकल्पों ने वास्तव में खाने को लेकर गहन कल्पनाशीलता और विविधता को जन्म दिया है. उदाहरण के लिए, लहसुन-प्याज रहित मांस और ‘निरामिष’ कहलाने वाली फिश करी का प्रचार-प्रसार बंगाल की ‘विधवा पाक-कला’ के ज़रिए हुआ है. और यहूदियों की आहार परंपराओं के कारण ही उत्तरी यूरोप में सूअर की चरबी का चलन बंद हुआ, और जिसके परिणाम स्वरूप लज़ीज़ फोई ग्रास पाने के लिए बत्तखों को खिला-खिला कर मोटा करने का चलन आरंभ हुआ; और सूअर के मांस पर रोक ने वसायुक्त और स्वादिष्ट बीफ़ पास्त्रामी की शुरुआत में योगदान दिया. आश्चर्यजनक रूप से, और समाजशास्त्री सिद्धांतों के विपरीत, आहार विशेष की मनाही वास्तव में खानपान की विविधता में ही योगदान करती है.

धर्मसम्मत खानपान और कड़े नियम

लेकिन, उस स्थिति में क्या होता है जब आपका धर्मसम्मत आहार नियम ये तय करता हो कि खाना कोई खास धार्मिक व्यक्ति स्वयं बनाए या अपनी निगरानी में बनवाए?

एक बार फिर, यह व्यवस्था तार्किक लगती है क्योंकि धर्मसम्मत आहार व्यवस्था में खाना बनाने की विधि को लेकर भी सख्त निर्देश होते हैं. इसमें एक कारक शुद्धता का होता है, क्योंकि भोजन को भगवान का भोग माना जाता है. क्या भगवान का भोग ऐसा कोई व्यक्ति तैयार कर सकता है जो कि खुद शुद्ध नहीं है. उदाहरण के लिए, भगवान को अर्पित चढ़ावा भला चढ़ावा माना जाएगा यदि किसी नास्तिक ने चढ़ाया हो?

दूसरा कारक विशेषज्ञता का है. उदाहरण के लिए, कोशर आहार व्यवस्था अपनी जटिलता के लिए बदनाम है और इसके पालन के लिए यहूदी धर्मशास्त्रों का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए. इसी तरह, तमिल ब्राह्मणों के खाने से जुड़े कई तरह के नियम हैं, जैसे- रसोइए का स्नान करना, निश्चित प्रार्थनाएं करना, विशिष्ट तरीके से पकाना, रसोई का बर्तन धोने वाले हिस्से से बिल्कुल अलग होना, आदि-आदि. कुल मिला कर बात इस बिंदु पर आ जाती है कि क्या आप किसी काइरोप्रैक्टिक (वैकल्पिक उपचार) चिकित्सक द्वारा ब्रेन ट्यमूर का ऑपरेशन किए जाने को स्वीकार करेंगे, क्योंकि तकनीकी रूप से तो ‘सब इंसान’ हैं?

इसी के साथ हम तीसरे मुद्दे पर आ जाते हैं, जो खाने की डिलिवरी का है. और, यहां आकर मामला थोड़ा जटिल हो जाता है, क्योंकि डिलिवरी की यह प्रक्रिया अभी हाल ही में चलन में आई है. एक बार फिर यहूदियों के खानपान से तुलना करें तो कायदे से कोशर खाना किसी यहूदी द्वारा ही सर्व किया जाना चाहिए. पर, यहूदी धार्मिक नियमों में ये व्यवस्था है कि प्लास्टिक पैकेजिंग जैसे आधुनिक साधनों के मद्देनज़र गैर-यहूदी भी खाना सर्व कर सकते हैं, बशर्ते पकाने और पैकिंग का काम किसी यहूदी ने किया हो. फिर भी, चूंकि हिंदू धर्म में ऐसे नियमों को सख्ती के साथ संहिताबद्ध नहीं किया गया है या आधुनिक वास्तविकताओं के अनुसार उनकी पुनर्व्याख्या की व्यवस्था नहीं है, इसलिए हर शख्स अपने ढंग से उनके माने निकालता है.

क्यों अमित शुक्ला धर्मांध है

इसी संदर्भ में अमित शुक्ला का मामला आता है और ये सवाल भी कि वह किस आधार पर धर्मांध है. सबसे पहली बात, उसने इस बात की कोई परवाह नहीं की कि खाने को किसने पकाया या पैक किया था. उसे सिर्फ डिलिवरी ब्वॉय के मुसलमान होने पर आपत्ति थी. इसीलिए उसका सावन के महीने वाला कारण बताना, घटना के बाद खुद को तर्कसंगत ठहराने का प्रयास प्रतीत होता है.

इसीलिए ज़ोमैटो की शुरुआती प्रतिक्रिया – ऑर्डर कैंसल करने के बावजूद पैसे वसूलना क्योंकि डिलिवरी ब्वॉय पैकेट उठा चुका था – सही थी. वास्तव में ज़ोमैटो ने ग्राहकों की धार्मिक संवेदनशीलता के मद्देनज़र कई विकल्प उपलब्ध करा रखे हैं. मसलन उसके ऐप में एक बटन है जिसे ऑन करने पर सिर्फ शाकाहारी विकल्प दिखते हैं, इसी तरह हलाल व्यंजनों के विकल्प के लिए भी एक बटन है. साथ ही उसने विशेष आग्रहों को दर्ज कराने के लिए एक स्पेस भी उपलब्ध करा रखी है, जहां इस तरह के आग्रह लिखे जा सकते हैं: ‘कृपया हिंदू डिलिवरी ब्वॉय की सेवा सुनिश्चित करें क्योंकि सावन चल रहा है’. ज़ोमैटो इस आग्रह को मानता या नहीं ये अब अकादमिक चर्चा का विषय है, पर तकनीकी रूप से देखें तो अमित शुक्ला ने खाना मंगाने का कॉन्ट्रैक्ट पूरा हो जाने के बाद अतिरिक्त शर्त जोड़ने की कोशिश की थी.

ज़ोमैटो की सस्ती पब्लिसिटी की ट्रिक

ज़ोमैटो ने इसके बाद गड़बड़ की और आगे उसकी तमाम प्रतिक्रियाओं से सस्ती लोकप्रियता हासिल करने और सांप्रदायिकता को उभारने की बू आती है.

पहले, इसने ‘भोजन का धर्म नहीं होने’ की नैतिकता की सीख देने का फैसला किया – जो कि सरासर गलतबयानी है, खास कर जब कंपनी हलाल और शाकाहारी के विकल्प उपलब्ध कराती हो. बेशक, ये अटकलों का विषय हो सकता है कि शुक्ला के धर्मांध विचारों वाले ट्वीट पर ज़ोमैटो ने मामले को तूल देने का फैसला क्यों किया, पर हम सभी इस बात पर सहमत हो सकते हैं कि एक कारक सस्ती पब्लिसिटी पाने का भी था.


यह भी पढ़ें: ज़ोमैटो ने सांप्रदायिक घृणा के अंधेरे कोने में उजाले की कम से कम एक किरण तो फेंकी ही है


 

आखिर में, ज़ोमैटो के सीईओ दीपेंद्र गोयल ने नैतिकता का थोड़ा और पाठ पढ़ाया, और खुद को धार्मिक कट्टरता के खिलाफ मज़बूती से डटने वाले शख्स के रूप में प्रदर्शित किया. यहां फिर से, सस्ती लोकप्रियता के अलावा और कोई उद्देश्य नहीं दिखता.

मध्यप्रदेश की पुलिस ने अमित शुक्ला के ट्वीट का स्वत: संज्ञान लिया है और शायद उसके खिलाफ 153ए/295ए धाराओं के तहत मामला भी दर्ज किया जाए. मैं इसके खिलाफ हूं. जब तक कोई हिंसा को सक्रिय रूप से बढ़ावा नहीं दे रहा हो, धर्मांधों को धार्मिक कट्टरता का अधिकार है. पर, यदि पुलिस अमित शुक्ला के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करना ही चाहती है, तो समान रूप से यह भी आवश्यक है कि वह ज़ोमैटो और दीपेंद्र गोयल, दोनों के खिलाफ भी आईपीसी की धाराओं 153ए और 295ए के तहत मामले दर्ज करे, क्योंकि उन्होंने पब्लिसिटी पाने के सुविचारित इरादे से मामले को भड़काने और लाखों फॉलोअर्स के बीच नफ़रत की बात को फैलाने का काम किया.

सबसे बुरा कौन?

संभवत: जानबूझ कर इन सिद्धांतों को समझने से इनकार कर, ज़ोमैटो का समर्थन करने वाले उदारवादियों ने अपना दोमुंहापन ही ज़ाहिर किया है. अपने आहार नियमों से नहीं डिगने वाले वक़्फ़ बोर्डों को सरकारी मदद पर तो वे चुप रहते हैं, पर इस्कॉन संचालित एनजीओ के मध्याह्न भोजन संबंधी विकल्पों में इन्हें बदलाव चाहिए क्योंकि उसे सरकारी सहायता दी जाती है. वे सरकारी उपक्रम एयर इंडिया के घरेलू उड़ानों में शाकाहारी भोजन परोसे जाने की नीति को भी बदलवाना चाहते हैं, ये जानते हुए भी कि शाकाहारी भोजन पर सबसे कम लागत आती है.

दरअसल, व्यक्तिगत आस्थाएं, आर्थिक नीतियां और कानूनी मिसालें, सब उदारवादियों की सनक के अनुरूप होनी चाहिए. हालांकि ये कहने के बाद भी, हमें इस बात पर कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि अमित शुक्ला एक बुरी तरह शिक्षित धर्मांध है. पर उसी पैमाने से, कथित ‘आईआईटी ग्रेजुएट’ दीपेंद्र गोयल उससे भी कहीं अधिक गए बीते हैं; एक अवसरवादी, इरादतन संघर्ष से पैसे बनाने वाले युद्धकालीन मुनाफाखोरों का शांतिकालीन प्रतिरूप।

(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कंफ्लिक्ट स्टडीज़ में वरिष्ठ अध्येता हैं. वह @iyervval से ट्वीट करते हैं. यहां प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं.)

share & View comments

1 टिप्पणी

  1. अपने घरौ में जब हम ब्रेड पकौड़े बनाते हैं,या सोयाबीन सहित अन्य दालौ से बनी बरियां और पापड़, नमकीन सांस, आचार, चटनी,जैम,जैली,स्क्वास,शर्वत, मुरब्बा और अन्य प्रिजर्व व डिब्बाबंद सामग्री का उपयोग करते हैं तभी हमै यह भी सोच लेना चाहिए।
    दरवाजे पर पहुंचे सामान का बहिष्कार इन सब बातों के मद्देनजर करने के करता मकसद हो सकते हैं!!!?
    यदि मकसद होम डिलीवरी के प्रबंधन को चीट करने का है तो यह अन्य उपभोक्ता को भी प्रभावित करने वाला अस्वीकृत निर्णय ही कहा जा सकता है ।
    खानपान निजता है मगर किसी जनसेवा के लिए विचलनकारी हो तो यह कटट और दुष्प्रेरण ही समझा जा सकता है।

Comments are closed.