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Friday, 22 November, 2024
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इस बजट में पानी नहीं सिर्फ कीचड़ है

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने पहले बही-खाता भाषण में कई परंपराएं तोड़ते हुए समाज के जल संरक्षण की तकनीकों को भी धता बता दिया.

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तकरीबन चालीस साल पहले यानी अस्सी के दशक के शुरुआत में राष्ट्रीय जल ग्रिड बनाने पर चर्चा हुई थी, उस वक्त नीति नियंताओं ने पाया कि यह प्रस्ताव समाज के हित में नहीं है इसलिए इस पर आगे नहीं बढ़ा जाना चाहिए. वक्त बीता और सरकारें समाजपरक से बढ़कर विकासपरक हो गई. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने पहले बही-खाता भाषण में कई परंपराएं तोड़ते हुए समाज के जल संरक्षण की तकनीकों को भी धता बता दिया. उन्होने नारा दिया, ‘वन नेशन, वन ग्रिड’.

ग्रिड होता क्या है. ग्रिड का मतलब ये है कि किसी हिस्से में बनने वाली बिजली सबसे पहले अपने निर्धारित ग्रिड तक पहुंचती है और यहां से राज्यों को उनकी जरूरत और मांग के अनुसार सप्लाई की जाती है. क्षेत्रीय स्तर पर कई पॉवर ग्रिड पहले से ही काम कर रहे हैं। और जल ग्रिड का मतलब है पहले सभी नदियों और नहरों को जोड़कर पानी को एक जगह जमा किया जाएगा और यहां से जरूरत के अनुसार आगे सप्लाई किया जाएगा.

अब इस शानदार योजना की व्यावहारिकता पर एक नजर डालिए – हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में व्यास नदी पर एक बांध बनाया गया. 1975 में बने इस बांध को पोंग बांध या महाराणा प्रताप सागर कहते हैं. हिमाचल में बने बांध को महाराणा प्रताप नाम इसलिए दिया गया क्योंकि इसका निर्माण ही राजस्थान को पानी पिलाने के लिए किया गया था.

अब यहां से एक नहर निकाली गई, जो सुदूर पश्चिम यानी बीकानेर और जैसलमेर तक पानी पिलाती है. तो हुआ यूं कि इस बांध से ठंडी पहाड़ियों पर रहने वाले हजारों लोग विस्थापित हुए और उनके विस्थापन की जिम्मेदारी भी राजस्थान पर डाल दी गई. क्योंकि हिमाचल के पास जमीन नहीं थी और राजस्थान के पास कमी नहीं थी. तो 25 डिग्री में गर्मी की शिकायत करने वाले हिमाचल के लोगों को 50 डिग्री वाले इलाके में जमीने आवंटित कर दी गई. खूब हो हल्ला हुआ, खान-पान, नाच – गाना, परंपराएं, यानी संस्कृति के हर पक्ष की दुहाई दी गई लेकिन नतीजा वही, ढाक के तीन पात. क्योंकि देश तो एक ही है. उन्हें कहा गया कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है.


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इसके बाद राजस्थान के हिमाचली जमीन मालिकों ने अपनी जमीनें औने पौने दामों में बेची और कहीं खो गए.
यह छोटी सी कहानी इसलिए जानना जरूरी है ताकि यह समझा जा सके जब आप राष्ट्रीय जल ग्रिड की दिशा में आगे बढ़ेंगे तो होगा क्या. यानी जब पूर्वोत्तर के राज्यों को इससे जोड़ा जाएगा तो वहां किस स्तर पर और कितना विस्थापन होगा? पहाड़ में जमीन तो होती नहीं तो वे जाएगे कहां ? क्या राष्ट्रवादी नारें में इस समस्या का समाधान छुपा है? जिन्हे रूचि हो वे नर्मदा, दामोदर, टिहरी जैसे शब्द गुगल कर विस्थापन की अनगिनत कहांनियां पढ़ सकते हैं.

अब आइए नदियों पर, जिन्हे सरकारें हमेशा से एक उत्पाद मानती रही हैं. बेहद बेशर्मी के साथ नदी जोड़ों योजना में यह सफाई दी जाती है कि दुनिया का सारा पानी कहीं ना कहीं एक है. सोच कर देखिए क्या ए नेगेटिव ब्लड, बी पाजिटिव व्यक्ति को दिया जा सकता है. जबकि खून का रंग तो एक ही है. हर नदी के पानी के आचार व्यवहार में फर्क होता है. नहीं तो हर नदी का पानी गंगा जल ना होता.

सरकार को एक बार वैज्ञानिकों की सुननी चाहिए कि सारे पानी को मिला देने से क्या होगा. दूसरी बकवास बात यह कही जाती है कि नदी का पानी समुद्र में बेकार जा रहा है. नदी और समुद्र का मिलन प्रकृति ने तय किया है जब आप नदी को समुद्र तक नहीं जाने देंगे तो समुद्र आगे आएगा नदी से मिलने. और समुंद्र के आगे बढ़ने से क्या होगा यह जानने के लिए बंगाल के साउथ चौबीस परगना की खेती और खम्बात की खाड़ी के भुज क्षेत्र को देख लीजिए. समुद्र ने आगे बढ़कर यहां की खेती को किस कदर तबाह किया है. समुद्र का पानी खारा होता है, वह जब खेत में पहुंचेगा तो उसकी उत्पादकता को समाप्त कर देगा.

जल ग्रिड के समर्थन में एक सरकारी मजाक यह भी फैलाया जा रहा है कि इससे बाढ़ नियंत्रण में मदद मिलेगी. इसे यूं समझिए देश की पहली नदी जोड़ो परियोजना केन- बेतवा, मध्यप्रदेश में है. आम तौर पर बेतवा में पानी कम रहता है यानी केन से बेतवा में पानी पहुंचाया जाएगा. लेकिन आज जब मानसून माने बाढ़ का सीजन शुरु हो चुका है, दोनों नदियां उफान पर हैं. तो बाढ़ पर नियंत्रण कैसे होगा ? मानसून में सारी नदियां उफान पर रहती है, हर नदी पर बने बांधों को ओवर फ्लो से बचाने के लिए पानी छोड़ दिया जाता है. और जब जरूरत होती है तो सभी नदियों को ही होती है. जल शक्ति मंत्रालय को बताना चाहिए कि क्या नहरों ने कभी बाढ़ को रोका है?


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इस ग्रिड के बजाए बजट को हर नदी के पाट पर तालाबों की खुदाई पर जोर देना चाहिए था ताकि जब नदी को पानी की जरूरत हो तब तालाब उसे रिचार्ज कर सके. और इसी तालाब से लोगों के घर पीने के पानी को पहुंचाने की व्यवस्था की जानी चाहिए. लेकिन सरकार जमीन खोदकर पानी निकालने जैसे आसान उपायों पर काम कर रही है.

बजट में गंगा नदी में कार्गों चार गुना बढ़ाने की बात भी की गई है. लेकिन डिसिल्टिंग पर बात नहीं हुई जिसके बिना कार्गों कागज पर ही चल सकता है जैसे अभी चल रहा है. इस बजट से यह भी साफ हो गया कि सरकार ने गंगा सफाई को ताक पर रख दिया है. गंगा सफाई पर वित्त मंत्री ने बात ना करना ही उचित समझा.

बजट में 2024 तक हर घर नल जल पहुंचाने पर जोर दिया गया है, जिस पर पिछले लेख में हमने विस्तार से चर्चा की थी. लेकिन तात्कालिक लाभ वाली नीतियां यह सबक पढ़ने को तैयार नहीं है कि – ‘हर घर नल जल मत कर’.

(अभय मिश्रा लेखक और पत्रकार हैं. यह उनका निजी विचार है)

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