कहां संविधान बदलने के लिए ‘‘400-पार’’ का नारा और कहां चुनाव जीतने के बाद संविधान-वंदना! इसी द्वंद्व में लोकसभा चुनावों की जीत-हार का मर्म छिपा है. सुदर्शन की कालजयी कहानी ‘हार की जीत’ के मुहावरे में कहें तो ठीक इसी वजह से राहुल गांधी हार कर भी जीते हुए दिखते हैं और नरेंद्र मोदी जीतकर भी हारे हुए लगते हैं.
यह सच है कि 240-सांसदों के साथ भाजपा अब भी सबसे बड़ी पार्टी है और गठबंधन की बदौलत मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री भी बन गए हैं. वहीं, दूसरी ओर इंडिया गठबंधन सरकार बनाने से दूर रह गया. हालांकि, जनता की भारी नाराज़गी का फायदा उसे हुआ क्योंकि कांग्रेस की सीटें दोगुनी हो गईं. राहुल गांधी देश की जनता के लिए नायक बनकर उभरे.
2024 के चुनाव में अगर सबसे बड़ा राजनीतिक व्यक्तित्व किसी का निर्मित हुआ है तो वे राहुल गांधी हैं. उन्होंने अपने को साधारण जनता का नेता और मोदी को कॉरपोरेट शक्तियों का नेता साबित किया. यही वह पक्ष है जिसके कारण हार की जीत और जीत की हार का मुहावरा दोहराया जा रहा है.
भाजपा ने 2014 में सत्ता मिलने पर लोकतंत्र, सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और संघीय ढांचे पर व्यवस्थित हमले शुरू किए. जनपक्षीय आर्थिक नीतियों को तिलांजलि दे दी गई. धर्म को राजनीति का आधार बनाया गया. जनता में धर्मांधता पैदा की गई. संवैधानिक संस्थानों को भीतर से खोखला किया और महंगाई और बेरोज़गारी फैल गई. हताश और निराश जनता को धर्म की घुट्टी पिलाकर सत्ता में बने रहने की योजना पर काम शुरू हुआ.
मनोरंजन का साधन
कांग्रेस शुरू से इनके रास्ते में बाधा रही है. इस बाधा को दूर करने के लिए इसके सर्वोच्च नेता राहुल गांधी की विश्वसनीयता को जनता में खत्म करने की नीति अपनाई गई. वैसे तो अपनी स्थापित शैली के अनुरूप चरित्र हनन के हथियार को तब से ही भाजपा इस्तेमाल कर रही है जब से राहुल जी राजनीति में आए हैं, लेकिन 2011 में यमुना एक्सप्रेसवे के लिए भूमि अधिग्रहण नीति के खिलाफ भट्ठा परसौल से अलीगढ़ तक पदयात्रा और किसान हितैषी भूमि अधिग्रहण कानून बनाने के बाद उसे कॉर्पोरेट का भी पूर्ण समर्थन मिल गया.
2014 के बाद से तो झूठ, फ़रेब, घृणा, दुष्प्रचार सामग्री का निर्माण करने वाली फैक्ट्री ही खड़ी कर दी गई. मीडिया और भाजपा के सायबर क्रिमिनल आईटी सेल के बीच अंतर खत्म हो गया. राहुल गांधी को ध्वस्त करने के लिए अनगिनत भ्रामक वीडियो और मीम्स बनाए गए.
राहुल को रथ-विहीन करने के न जाने कितने प्रयास हुए. उनके व्यक्तित्व को खंडित करने के लिए अरबों रुपये खर्च किए गए, उनकी संसद सदस्यता को धूर्ततापूर्वक रद्द किया गया, सरकारी आवास खाली करवाया गया, उनकी सुरक्षा व्यवस्था को कमतर किया गया. राहुल को भयभीत करना और उनके आत्मबल को तोड़ना इन सब कोशिशों का लक्ष्य था. राहुल के टूटने का अर्थ था कांग्रेस को निर्बल होना और कांग्रेस की निर्बलता का अर्थ था भाजपा का विपक्ष और विकल्पविहीन एकछत्र राज्य स्थापित होना!
फलस्वरूप, राहुल गांधी की हंसी उड़ाना ड्राइंग रूम में अभिजात वर्ग के मनोरंजन का साधन बन गया. आत्मबल के धनी और दृढ़प्रतिज्ञ राहुल गांधी बिल्कुल नहीं टूटे. मुख्यधारा के मीडिया के कैमरे और कलम से के विपरीत वे आम हिंदुस्तानी की नज़रों में सच्चे नेता के रूप में चढ़ते गए.
2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान भारत की गरीब जनता ने जो स्नेह और समर्थन राहुल गांधी को दिया है उससे सहसा ही बिहार की मगही बोली में उपेक्षितों के पक्ष में गहन अर्थ लिए एक कहावत है याद आ गई जिसका अर्थ होता है: जिन पर लोग हंसते हैं, उनके घर बसते हैं. (‘हंसले घर बसअ हे’)
चुनावों में राहुल गांधी की स्थिति ‘रावनु रथी विरथ रघुवीरा’ की थी. एक तरफ हर तरह की ताकत से लैस नरेंद्र मोदी और भाजपा तो दूसरी तरफ हर तरह की मुसीबतों, अभावों और कठिनाइयों से घिरे राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी. सरकार ने कांग्रेस को नष्ट करने में पूरी ताकत लगा दी. सरकारी एजेंसियों के सहारे कांग्रेस की जड़ें खोदी गईं. यहां तक कि कांग्रेस पार्टी के बैंक खाते को सीज़ कर दिया गया. लोकतंत्र का ‘लोक’ राहुल गांधी के साथ था तो पूरा ‘तंत्र’ नरेंद्र मोदी के साथ. राहुल गांधी ने लोकशक्ति को जगाया और वंचितों की वह सेना खड़ी की जिसने तंत्र को हिला दिया और अपनी शक्ति का फिर से आभास करा दिया.
संविधान का मुद्दा अहम
जिस तरह राम को समाज के निचले तबके से आए सैनिकों पर भरोसा था, वैसे ही राहुल को भारत की दलित, पिछड़ी, आदिवासी, गरीब जनता पर था, बेरोज़गार युवाओं और छोटे कारोबारियों पर था.
संविधान बचाने के लिए उन्होंने देश की साधारण जनता को आवाज़ दी. महात्मा गांधी की तरह भारत को पहचानने के लिए राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा की. इस यात्रा ने पूरी दुनिया के लोकतंत्र समर्थकों को प्रेरित किया.
स्वतंत्र भारत में पहली बार राहुल गांधी ने इस चुनाव के विमर्श को पूर्णतः वैचारिक और सैद्धांतिक बनाया. मोदी हिन्दू-मुस्लिम और मंगलसूत्र जैसे बेसिर-पैर के मुद्दे पर चुनाव लड़ना चाहते थे, लेकिन राहुल गांधी उन्हें घसीटकर संविधान, सामाजिक न्याय, जातिगत जनगणना और आरक्षण के ठोस और सैद्धांतिक मुद्दों पर लाते रहे.
यह उनकी राजनीतिक परिपक्वता का प्रमाण है कि उन्होंने भांप लिया था कि संविधान रक्षा एक बहुत बड़ा मुद्दा बन सकता है. सामाजिक न्याय को लेकर विधानसभा के चुनाव भले ही हुए हों मगर लोकसभा चुनावों में यह पहला मौका है जब यह मुद्दा प्रमुखता से उठा. इस बार यह मुद्दा किसी तरह का प्रतिपक्ष नहीं गढ़ पाया. अब तक यही होता था कि सामाजिक न्याय का मुद्दा आते ही पिछड़ा और सवर्ण टकराव शुरू हो जाता था और एक निर्विवादित स्थिति नहीं बन पाती थी. राहुल गांधी ने इस बार सामाजिक न्याय की अंतर्धारा में सरकारी नौकरियों को सृजित करने और बचाने की मुहिम भी जोड़ी. संदेश यही गया कि जब सरकारी नौकरी होगी ही नहीं तो किसी भी तरह के आरक्षण का कोई मतलब नहीं रह जाएगा. ध्यान दिया जाना चाहिए कि इस मामले में सवर्ण जातियों का आरक्षण भी प्रभावित हो रहा था. राहुल गांधी ने सामाजिक न्याय को विस्तार देते हुए पांच तरह के न्यायों को जोड़ा. कहां एक ही न्याय पर झगड़े शुरू हो जाते थे वहां इस बार पांच न्याय और जुड़ गए. इन सबका स्वागत हुआ.
इसके लिए उन्हें न केवल बौद्धिक जगत और भाजपा से लड़ना पड़ा बल्कि पार्टी के भीतर भी उन्हें पुरानी शैली से जूझना पड़ा. सामाजिक न्याय की कांग्रेस लाइन को उन्होंने नए एजेंडे और स्वर से रूपांतरित किया है. उसे वह धार दी है जिससे कांग्रेस सामाजिक न्याय की राजनीति में अग्रणी भूमिका निभा सकती है. उन्होंने ‘पांच न्याय’ की बात की जिनका स्वरूप दूरगामी था. उनका सर्वाधिक ज़ोर संविधान को बचाने पर था. संविधान की एक प्रति लेकर वे हर जगह गए, अपने प्रत्येक भाषण में उन्होंने संविधान को दिखाया और अपील की कि इसे बचाना है.
चुनाव परिणाम भले सरकार बनाने लायक नहीं आए, मगर जिन परिस्थितियों में आरएसएस-बीजेपी और मोदी-शाह के रथ की रफ्तार को धीमा कर दिया गया है वह कोई मामूली बात नहीं है.
स्वतंत्र भारत में नेहरू, इंदिरा और राजीव गांधी को चुनावी संग्राम में शायद इस दर्ज़े का संघर्ष नहीं करना पड़ा था. इतनी बड़ी संगठित और निर्मम ताकत जो अपने साध्य को साधने में किसी भी प्रकार की नैतिकता को आड़े आने नहीं देती हो, इन तीनों के सामने कभी नहीं खड़ी हुई थी.
राहुल गांधी के सामने भाजपा, आरएसएस, व्यापारी मित्र मंडली, सरकारी एजेंसियां, मीडिया और न जाने कितने नामों के साथ बने हुए छद्म संगठन एकसूत्र होकर राहुल को नष्ट करने पर तुले हुए थे.
राहुल गांधी ने सधे हुए सिद्धांतकार, विचारक और रणनीतिकार होने का परिचय दिया है. कांग्रेस के पांच न्याय और घोषणापत्र पर उनकी सोच की स्पष्ट छाप देखने को मिलती है. भारत की विशाल आबादी को जोड़ते हुए जाति जनगणना और सामाजिक न्याय के एजेंडे को उन्होंने जिस तरह उठाया वह अभूतपूर्व था. उनके नेतृत्व में सोशल मीडिया में कांग्रेस और इंडिया गठबंधन 10 सालों में पहली बार बीजेपी के शक्तिशाली आईटी सेल को परास्त करते हुए दिखा. गरीब वर्गों के हज़ारों शिक्षित युवा इंडिया एलायंस के सैनिक बन गए. अलग-अलग घटक दलों के बीच सामंजस्य स्थापित करना कठिन कार्य था जिसको राहुल गांधी ने बखूबी निभाया.
मोदी-शाह द्वारा बनायी गई भीषण परिस्थितियों में राहुल की मौजूदा सफलता का अर्थ बहुत बड़ा है. राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने भारतीय लोकतंत्र पर आए आसन्न खतरे को कम कर दिया है. फिर भी वे समझते हैं: मीलों चले हैं और मीलों चलना है.
राहुल ने गठबंधन करते हुए व्यापक उदारता का परिचय दिया. उन्होंने कोशिश की कि आपसी अंतर्विरोध को समाप्त कर परस्पर एकता के बिंदुओं को मजबूत किया जाए. इसके लिए उन्होंने घटक दलों को सुविधाजनक पर्याप्त सीटें दीं. कई जोखिम भरी सीटों को कांग्रेस के खाते में रहने दिया. बनारस की सीट कठिन थी, मगर कांग्रेस ने वहां मुकाबला करने का साहस किया और एक रिकॉर्ड बना कि निवर्तमान प्रधानमंत्री आज तक के न्यूनतम रिकॉर्ड वोट से जीत पाए, वह भी कई दौर में पीछे-पीछे चलकर! कई जगहों पर पोस्टर लगाकर ‘घमंड टूटने की बधाई’ सार्वजानिक रूप से दी गई. अपनी छवि को लेकर डरपोक मोदी ने ऐसे पोस्टरों को तंत्र की ताकत से तुरंत हटवाया.
राहुल ने मित्र दलों के साथ पर्याप्त उदारता बरती. उन्होंने जिन मुद्दों को आगे बढ़ाया उनमें से एक भी ऐसा नहीं था जो एक तरफे ढंग से केवल कांग्रेस के पक्ष में हो. उत्तर-प्रदेश में सर्वाधिक सीट समाजवादी पार्टी को मिली है. इस जीत को साकार बनाने में राहुल की भूमिका को जबरदस्त ढंग से स्वीकृति मिली है. सोचा जा सकता है कि जब मोदी की हालत इतनी खराब हो गई थी तो बाकी जगहों के भाजपा उम्मीदवारों की हालत के बारे अनुमान लगाया जा सकता है. अयोध्या से भाजपा की हार धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के पक्ष में बहुत बड़ा संकेत है कि धर्म हमारे जीवन का अंग है, वह पवित्र है, वह आह्लादक है; हम उसे सांप्रदायिक राजनीति के हवाले नहीं कर सकते.
घटक दलों को मिली विजय में राहुल के निरंतर श्रम और दूरगामी राजनीतिक उद्देश्यों का बड़ा हाथ है. वे संविधान को लेकर आगे आए जो पूरे देश का मामला है. राहुल के संघर्ष और सक्रियता को वैश्विक स्तर पर देखने की भी ज़रूरत है, जहां पूरे विश्व में लोकतंत्र खतरे में पड़ता जा रहा है वहां भारत का यह चुनाव परिणाम लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं के ससम्मान पुनर्स्थापित होने का संकेत दे रहा है.
(लेखक कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव हैं. उनका एक्स हैंडल @chandanjnu है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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