scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतकोरोना संकट के दौर में नौकरशाही ने नरेंद्र मोदी को निराश किया

कोरोना संकट के दौर में नौकरशाही ने नरेंद्र मोदी को निराश किया

नरेंद्र मोदी काफी हद तक नौकरशाही पर निर्भर रहते हैं. लेकिन नौकरशाही में रचनात्मकता यानी क्रिएटिविटी और व्यक्तिगत रूप से पहल लेने की प्रवृत्ति का अभाव होता है. संकटकाल में नौकरशाही असरदार नहीं रह जाती.

Text Size:

कोरानावायरस को फैलने से रोकने के लिए दुनिया के कई देशों ने अपने यहां लॉकडाउन  या स्टे एट होम लागू किया, लेकिन इस वजह से भारत में जिस तरह का कोहराम मचा और जनता की तबाही हुई, वह अभूतपूर्व है. लॉकडाउन घोषित होने के बाद से ही यहां लाखों लोग लगातार सड़कों पर है. आबादी का एक अंतहीन रेला है जो शहरों से गांव के बीच चलता ही जा रहा है.

सवाल उठता है कि भारत ने कोरोना संकट के दौर में जो मानवीय त्रासदी देखी और इतना बड़ा पलायन झेला, वह दुनिया में सिर्फ भारत में ही इस पैमाने पर क्यों हुआ? न तो भारत दुनिया का सबसे गरीब देश है, न सबसे ज्यादा आबादी वाला देश है, न सबसे घनी आबादी वाला देश है. फिर वो क्या खास बात हुई, जिसकी वजह से इतनी बड़ी आबादी अचानक सड़कों पर आ गई और वो सिलसिला थम ही नहीं रहा है.


यह भी पढ़ें: इलाहाबाद हाईकोर्ट का प्रार्थना स्थलों पर लाउडस्पीकर पर प्रतिबंध लगाना आस्था के नाम पर पाखंड को बेनकाब करता है


कोरोना संकट में नेतृत्व और नौकरशाही

ये लेख यह जानने की कोशिश है कि कहीं इसकी जड़ें भारतीय लोकतंत्र और नौकरशाही के रिश्तों और संसद की भूमिका के कारण तो नहीं है. इसके लिए हम भारत और ब्रिटेन के इस दौर के अनुभवों का तुलनात्मक अध्ययन करेंगे. ब्रिटेन का चयन इसलिए किया गया है क्योंकि कोरोना ने वहां भी काफी कहर ढाया है और भारतीय लोकतंत्र ने अपना काफी कुछ ब्रिटिश लोकतंत्र से ग्रहण किया है, जिसमें कार्यपालिका यानी एक्जिक्यूटिव का संसद के प्रति जवाबदेह होना एक प्रमुख पहलू है.

कार्यपालिका में दो तरह के लोग होते हैं. कुछ लोग तो इसमें निर्वाचित होते हैं, जैसे प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और अन्य मंत्री. तथा कुछ लोक चयनित या सलेक्टेड होते हैं जैसे कि अफसरशाही और सेना. ब्रिटिश और भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली में चुने हुए लोगों को निर्वाचित लोगों के अधीन रखा गया है. इस वजह से प्रधानमंत्री का दर्जा कैबिनेट सेक्रेटरी या सेनाध्यक्ष से ऊपर होता है. लेकिन पूरी व्यवस्था अगर कई फेल होती है, तो एक्जिक्यूटिव के दोनों तरह के लोगों की जिम्मेदारी की परीक्षा होनी चाहिए क्योंकि इनसे मिलकर ही व्यवस्था का निर्माण होता है.

दक्षिणपंथी लोकप्रिय नेताओं का उभार

कोरोनावायरस का कहर ऐसे समय में आया है जब भारत और ब्रिटेन समेत दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में इस समय दक्षिणपंथी लोकप्रिय नेताओं का दौर चल रहा है, इसलिए कोरोना वायरस के निपटने में अगर कहीं ढील हुई है और इसकी वजह से अगर लोगों को तकलीफ हुई है तो इसकी जिम्मेदारी से ये नेता बच नहीं सकते. ये लोकप्रिय नेता अपनी उग्र भाषण शैली, तीखे मिजाज, विरोधियों पर तीखे प्रहार और विरोधियों के दमन को अपनी ताकत के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. अपनी भाषण शैली से ये नेता जनता या जनता के एक हिस्से के साथ भावनात्मक संबंध बना लेते हैं, जहां उनके कामकाज की समीक्षा का माहौल ही नहीं बन पाता.

ऐसी स्थिति में संसद, न्यायपालिका और स्वतंत्र मीडिया शासकों की आलोचना करने और उन पर अंकुश लगाने का काम कर सकता है. इसमें से भी मुख्य भूमिका संसद की ही बनती है क्योंकि ऐसे नेता न्यायपालिका को स्वतंत्र रहने नहीं देते और मीडिया को या तो अपने पाले में ले आते हैं या उसकी साख को नष्ट कर देते हैं.

भारत और ब्रिटेन की तुलना

कोरोनावायरस के प्रकोप के दौर में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को ब्रिटिश प्रेस की आलोचना का लगातार शिकार होना पड़ा है और वहां की संसद ने भी प्रधानमंत्री को बख्शा नहीं है. ब्रिटिश संसद ने इस पूरे दौर में अपनी सर्वोच्चता साबित की है. कोरोना संकट के दौरान संसद लगातार काम करती रही और प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल के सदस्यों से लगातार सवाल पूछे जाते रहे. ये सवाल सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ओर से आए. प्रधानमंत्री ने लगातार प्रेस कॉन्फ्रेंस की और सवालों के जवाब दिए.

इसके विपरीत, भारतीय संसद के दोनों सदनों मे कोरोना वायरस को लेकर कोई बहस नहीं हुआ. दोनों सदनों में इस बारे में पूछे गए सवालों के चलताऊ जवाब दिए गए या चर्चा कराई ही नहीं गई. लॉकडाउन से ठीक पहले जनता कर्फ्यू की घोषणा संसद से बाहर की गई, जबकि उस समय संसद का सत्र चल रहा था. लॉकडाउन घोषित करने से एक दिन पहले 23 मार्च को संसद के दोनों सदनों को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया. संसद तब से लगातार स्थगित है और कार्यपालिका जो कुछ कर रही है, उसकी जवाबदेही तय करने वाली इस समय देश में कोई संस्था सक्रिय नहीं है. इस बीच में प्रधानमंत्री ने किसी प्रेस कॉनफ्रेंस को भी संबोधित नहीं किया.

ऐसा नहीं है कि प्रधानमंत्री इस समय लोगों से संवाद नहीं कर रहे हैं. लेकिन ये संवाद संसद से बाहर हो रहा है. उन संवाद में खिलाड़ी शामिल हैं, लेकिन सांसद अनुपस्थित हैं. कोई भी महामारी एक साथ जनस्वास्थ्य और कानून-व्यवस्था का विषय है. ये दोनों मामले राज्यों के कार्यक्षेत्र में आते हैं. इस नाते उचित होता कि लॉकडाउन से पहले प्रधानमंत्री मुख्यमंत्रियों से बात करते. लेकिन बातचीत के सिलसिले में मुख्यमंत्रियों की बारी आखिर में आई. इस बीच कैबिनेट की भी नियमित बैठकें नहीं हुईं. इस वजह से प्रधानमंत्री बड़े फैसले करते समय जमीनी हकीकत से वाकिफ नहीं रह पाते हैं. अगर उन्होंने लॉकडाउन से पहले ऐसी चर्चा की होती तो शायद उन्हें अंदाजा लग जाता कि लॉकडाउन का असर जनता पर किस तरह से पड़ेगा. लेकिन यह किसी भी दक्षिणपंथी लोकप्रिय नेता के आचरण के अनुरूप ही है क्योंकि वह सारा फैसला खुद ही लेता दिखना चाहता है. इसके दो फायदे हैं- एक, शासन के अंदर असंतोष की गुंजाइश कम हो जाती है और अलग फैसला सही निकला तो सारा श्रेय नेता को जाता है.


यह भी पढ़ें: कोविड में रची गई आधुनिक राग दरबारी, नीति-अनीति में उलझे नेता और राजनीति


नौकरशाही का राजसी चरित्र

इस दौरान कैबिनेट की भूमिका भी घटी हुई नजर आई. स्वास्थ्य और गृह मंत्रालय के फैसलों के बारे में प्रेस को बताने का दायित्व लगातार इन मंत्रालयों के दो ज्वायंट सेक्रेटरी स्तर के अधिकारी निभा रहे हैं जो नौकरशाही में भी मझौले स्तर के अफसर माने जाते हैं. इससे ऐसा लगता है कि कोरोना संकट से निपटने के लिए प्रधानमंत्री पूरी तरह से नौकरशाही पर निर्भर हैं.

शास्त्रीय यानी क्लासिक अर्थों में नौकरशाही एक आधुनिक और प्रभावशाली संस्था है. समाजशास्त्री मैक्स वेबर ने जिस आईडियल टाइप की बात की है, उस रूप में नौकरशाही में संस्था को चलाने वाले विशेषज्ञ होने चाहिए, जिन्हें व्यक्तिगत राग-द्वेष से मुक्त होकर तार्किक यानी रैसनल-लीगल तरीके से काम करना चाहिए. लेकिन कोरोना संकट के दौर में भारतीय नौकरशाही ने जिस तरह से काम किया, उसमें उसकी कमजोरियां जगजाहिर हो गईं.

इसका कारण तो वह है जिसकी चर्चा मैक्स वेबर ये कहते हुए करते हैं कि नौकरशाही की संस्था तत्काल और जरूरत के हिसाब से स्वंय फैसले लेने में सक्षम नहीं होती है. इसमें रचनात्मकता यानी क्रिएटिविटी और व्यक्तिगत रूप से पहल लेने की प्रवृत्ति का अभाव होता है. ऐसे में संकटकाल में नौकरशाही असरदार नहीं रह जाती. ऐसे फैसले निर्वाचित नेता ही कर पाते हैं क्योंकि नौकरशाही को तय नियमों में बंधकर काम करना होता है. प्रक्रिया में बंधे रहकर काम करने की वजह से ही भारतीय नौकरशाही ने कोरोना संकट के दौरान 4,000 से ज्यादा आदेश और अधिसूचनाएं पारिक कीं.

नौकरशाही के असफल होने की दूसरी वजह ये रही कि भारतीय नौकरशाही ये मानती हैं कि वह हर जिम्मेदारी को पूरी कुशलता से पूरा कर सकती है. इस क्रम में विशेषज्ञता की अनदेखी कर दी जाती है. भारतीय नौकरशाही में अलग अलग विभागों में काम करने के लिए अफसरों में अलग विशेषता की आवश्यकता से इनकार किया गया है. इसे लेटरल भर्ती से पूरा किया जा सकता है, लेकिन उसमें अपने किस्म की समस्याएं हैं.

चूंकि अब लोकप्रिय नेता चुनकर आ रहे हैं जो खुद किसी मामलों के विशेषज्ञ नहीं है, इसलिए वे विशेषज्ञता के लिए नौकरशाही पर निर्भर होते हैं, जबकि खुद नौकरशाही का चरित्र और सेलेक्शन का तरीका ऐसा है कि वहां विशेषज्ञ होते नहीं हैं. ऐसी ही नौकरशाही और नेताओं के जिम्मे देश कोरोना संकट से जूझ रहा है. भारतीय नौकरशाही की एक और समस्या ये है कि कायदे से तो इसे विचारधारा और राग-द्वेष से मुक्त होना चाहिए. लेकिन अपनी संरचना में इसका चरित्र अभिजनवादी यानी इलीट बन गया है और इन्हें आम जनता से अलग-थलग और ऊपर रहने की ट्रेनिंग भी दी जाती है. इसलिए भी उन्हें पता नहीं होता कि सतह पर, यानी लोगों के बीच चल क्या रहा है.

अगर वे जनता से जुड़े होते, जो प्रधानमंत्री को शायद बता पाते कि अचानक लॉकडाउन करने से करोड़ों लोगों पर संकट आ जाएगा और लोग सड़कों पर निकल आएंगे.


यह भी पढ़ें: कोरोना महामारी में बाजार का पीछे हटना और राज्यसत्ता की वापसी


(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं .ये लेखक के निजी विचार हैं.)

share & View comments