भारत में वामपंथी विचारधारा से संबंध रखने वालों के लिए जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार एक ताज़ी हवा की तरह आए हैं. उनके लोकसभा चुनाव लड़ने को लेकर वामपंथी विचारधारा के लोग काफ़ी उत्साहित रहे. यह उत्साह एक ऐसी पार्टी के लिए बेहद जरूरी है. जिसने 1952 से लेकर 1967 तक देश में प्रमुख विपक्ष की भूमिका निभाई थी और अब जो पार्टी ढलान भरे रास्ते पर है.
कन्हैया कुमार के बेगूसराय से चुनाव लड़ने के फ़ैसले ने देश में वामपंथी विचारधारा और सामाजिक न्याय की विचारधारा के बीच एक दूसरे की प्रासंगिकता को लेकर बहस छेड़ दी है. इस बहस की शुरुआत का श्रेय वामपंथी विचारधारा के लोगों को जाता है. जिन्होंने कन्हैया कुमार की उम्मीदवारी का समर्थन न करने के लिए सामाजिक न्याय की पार्टी की आलोचना की. सीपीआई ने आरजेडी से यहां तक अपील कर डाली कि वह अपना उम्मीदवार कन्हैया कुमार के समर्थन में वापस ले लें.
अकादमिक क्षेत्र में छिड़ी वामपंथ बनाम सामाजिक न्याय की बहस
उक्त आलोचना के जवाब में सामाजिक न्याय से सरोकार रखने वालों ने भी जाति और प्रतिनिधित्व के सवाल को लेकर कन्हैया कुमार समेत पूरे वामपंथी राजनीति की प्रतिबद्धता को आड़े हाथों लिया. पहले यह बहस सिर्फ़ सोशल मीडिया तक ही सीमित थी. लेकिन धीरे-धीरे यह अकादमिक जगत में भी प्रवेश करती जा रही है. जिसकी शुरुआत दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद के कन्हैया कुमार के समर्थन में जारी किए एक वीडियो से कही जा सकती है. जिसमें उन्होंने उन लोगो को जवाब देने की कोशिश की जिन्होंने कन्हैया कुमार की जाति और सामाजिक न्याय के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को लेकर सवाल उठाया. प्रो अपूर्वानंद के प्रति उत्तर में दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफ़ेसर डॉ लक्ष्मण यादव ने भी एक लेख लिखा है.
अपूर्वानंद जहां से देख रहे हैं, उसमें समस्या है!
प्रो. अपूर्वानंद का सामाजिक न्याय पर विचार निसंदेह ही गरीबों और मजलूमों के पक्ष में रहता है, परंतु कन्हैया कुमार का बचाव करते समय वो वामपंथ में लिपटे जातिवाद को देखने में असमर्थ रह जाते हैं. इसकी मूल वजह उनका वामपंथ के ‘वर्ग संघर्ष के सिद्धांत’ की प्राथमिकता से ग्रसित होना दिखता है. जो कि उन्हें जाति समस्या को गंभीरता से न देख पाने के लिए मजबूर कर रहा है.
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यह बिलकुल चौंकाने वाली बात है कि जिस दौर में विश्व भर में वामपंथी आंदोलन नयी समस्याओं के अनुसार अपने को ढाल रहा है. उस दौर में भी भारत का वामपंथी आंदोलन जाति के सवाल को लेकर कोई ख़ास सीख लेने के लिए तैयार नहीं दिखता. अगर ऐसा होता तो प्रो अपूर्वानंद इस बात से बिलकुल विचलित नहीं होते कि कुछ लोग कन्हैया कुमार की जाति को लेकर सवाल उठा रहे हैं.
एक तरफ़ प्रो अपूर्वानंद यह बताते हैं कि कन्हैया कुमार सबके नेता हैं. क्योंकि वो सबकी बात करते हैं, वहीं दूसरी वे दार्शनिक प्रो. सुन्दर सारुकाई की एक अवधारणा, जिसमें उन्होंने भारत में जाति के प्राकृतिक जैसा हो जाने की बात की है, का उपयोग करके जो लोग जाति और सामाजिक न्याय पर उनकी प्रतिबद्धता पर सवाल पूछ रहे हैं. उन्हीं को जाति की बीमारी से ग्रसित बताने की कोशिश कर रहे हैं.
परंतु ऐसा करते समय शायद वह भूल जाते हैं कि अपने को सबका नेता कहने के लिए यह साबित भी करना पड़ता है कि वह जातिवादी नहीं है. वरना सबके पक्ष में बात करना एक कला भी हो सकती है. जिसको राजनेता अकसर विकसित कर लेते हैं. ख़ैर इस पूरे प्रकरण को देखकर ऐसा लगता है कि भारत के वामपंथियों को जाति समस्या को ठीक ढंग से समझने की ज़रूरत है.
भारतीय वामपंथ और जाति समस्या
भारत के वामपंथियों पर जाति की समस्या को ठीक से न समझ पाने का आरोप नया नहीं है. लेकिन इससे सवाल उठता है कि ऐसा क्यों है कि भारत के वामपंथी जाति समस्या को ठीक ढंग से समझने में नाकाम रहे हैं?
इस सवाल का एक जवाब यह है कि ‘वर्ग-संघर्ष’ की अवधारणा के प्रति भारत के वामपंथियों का अति-विश्वास. इस अति-विश्वास की वजह से वो दलितों-पिछड़ों की अस्मिता की लड़ाई को समझना नहीं चाहते. उन्हें लगता है कि एक न एक दिन वंचित वर्ग अपनी अस्मिता की राजनीति को भुलाकर, उनके पीछे लामबंद हो जाएगा. सिर्फ़ इतना ही नहीं, उनका यह भी मानना है कि अस्मिता की राजनीति चाहे वह जाति के आधार पर हो यह लिंग के आधार पर हो, वह वर्ग-संघर्ष को कमज़ोर करती है.
फ्रेजर बनाम होनेथ: न्याय की अवधारणा और पहचान का सवाल
अस्मिता की राजनीति से जुड़ी इस समझ को लेकर प्रो. नैंसी फ़्रेज़र और प्रो. एक्सेल होनेथ के बीच काफ़ी बहस हो चुकी है. नैंसी फ़्रेज़र जहां ये मानती हैं कि पुनर्वितरण ही सभी प्रकार के व्यक्तियों को सामाजिक न्याय दिला सकता है, वहीं एक्सेल होनेथ अस्मिता और सम्मान के लिए लड़ी जा रही ‘पहचान की राजनीति’ का समर्थन करते हैं. प्रो होनेथ मानते है कि आर्थिक रूप से पिछड़े, सामाजिक रूप से वंचित और अपमानित लोगों के लिए अस्मिता की लड़ाई को प्राथमिकता देकर ही सामाजिक न्याय को पाया जा सकता है.
आसान शब्दों में कहें तो नैंसी फ़्रेज़र आर्थिक पिछड़ेपन को खतम करने के लिए पिछड़े और असम्मान के शिकार वर्ग को ‘वर्ग संघर्ष’ की राजनीति में समाहित होने के लिए आह्वान करती हैं तो दूसरी तरफ एक्सेल होनेथ सम्मान और अस्मिता के लिए पहचान की राजनीति के रास्ते ही आर्थिक पिछड़ेपन से लड़ने की सलाह देते हैं.
भारत में सामाजिक न्याय के सवाल पर वामपंथ की दुविधा
भारत के परिपेक्ष्य में यदि इस बहस को समझने की कोशिश की जाए तो यह कहा जा सकता है कि वर्ग-संघर्ष के लिए अगर लोगों को उठ खड़ा होना है तो भी जरूरी है कि वंचित लोगों में आत्मविश्वास हो. आत्मविश्वास जागृत करने के लिए विभिन्न समुदायों को नेतृत्व देना पड़ेगा. इस नज़रिए से अगर भारत में वामपंथ की राजनीति को देखा जाए तो वह दलितों, पिछड़ों और महिलाओं को नेतृत्व देने में असफल रहा है. भारतीय वामपंथी इसके बगैर ही भारत में क्रांति कर लेना चाहते हैं.
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भारत में वामपंथियों पर जाति समस्या को ठीक से न समझ पाने का दूसरा कारण ख़ुद की उनकी अपनी जाति को कहा जाता है. दरअसल भारत में वामपंथ के नेतृत्व पर उच्च जातियों का क़ब्ज़ा रहा, जिसकी वजह से कहा जाता है कि उनको जाति की समस्या को न देख पाने की बीमारी लग गयी है. इस तरह का आरोप दलित-बहुजन आंदोलन के लोग लंबे समय से लगाते रहे हैं. ख़ुद मान्यवर कांशीराम वामपंथियों की इस कमी की वजह से उन्हें ‘हरे घास का हरा साँप कहते’ थे.
वामपंथी प्रभुत्व वाले शिक्षा संस्थानों में प्रतिनिधित्व का हाल
वामपंथियों पर लगे इस आरोप में कितना दम है, इसको समझने के लिए वामपंथी विचारधारा के प्रभुत्व वाले शिक्षण संस्थानों (जैसे जेएनयू या जादवपुर यूनिवर्सिटी) को देखने की ज़रूरत है, जहां पर लंबे समय तक आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों के प्रतिनिधित्व का वही हाल रहा जैसा कि किसी दक्षिणपंथी विचारधारा के प्रभुत्व वाले संस्थान का होता है. वामपंथी विचारधारा के प्रभुत्व वाले संस्थानों में भी दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को अपने प्रतिनिधित्व के लिए लड़ाई लड़नी पड़ी. वंचित समुदायों को हिस्सेदारी देने के मामले में वामपंथी बुद्धिजीवी कोई बेहतर मॉडल नहीं पेश कर पाए.
दलित-बहुजन आंदोलन से इतर, हाल फ़िलहाल में पश्चिमी देशों के वामपंथी विचारकों ने भी भारत के वामपंथियों की रणनीति पर सवाल उठाया है. इसमें सबसे प्रमुख नाम प्रोफेसर पेरी एंडर्सन का है, जिन्होंने अपनी किताब इंडियन आइडियोलाजी में भारतीय वामपंथ की सैद्धांतिक अवधारणाओं पर तीखे सवाल उठाए हैं. हालांकि इसके जवाब में कई लोगों ने लेख लिखे लेकिन उनके द्वारा उठाया गया मूल सवाल अनुत्तरित रहा.
संसदीय वामपंथ जब लोकसभा में अपनी न्यूनतम उपस्थिति की ओर बढ़ रहा है, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि वह अपनी रणनीति और कार्यनीति पर पुनर्विचार करेगा.
(लेखक आईआईटी दिल्ली से पीएचडी कर रहे हैं)