कोरोना महामारी में दुनिया के आस्तिक यानि ईश्वर और धर्म में आस्था रखने वाले लोग भी मदद की उम्मीद मानव निर्मित संस्थाओं जैसे सरकार, अस्पताल, नगर निगम, प्रयोगशाला आदि से कर रहे हैं. अगर उन्हें कोई मदद मिल भी रही है तो इन संस्थाओं से ही मिल रही है.
मंदिर-मस्जिद-चर्च-गुरुद्वारे-दरगाह-सिनेगॉग आदि काफी समय तक बंद रहने के बाद अब फिर से खुलने लगे हैं. लगभग हर देश और धर्म के साथ ये हुआ कि ईश्वर की सार्वजनिक उपासना के लिए बने स्थानों पर लंबे समय तक सन्नाटा तना रहा. लेकिन अब ईश्वर की सार्वजनिक तौर पर वापसी हुई है. इसके साथ ही उन उपासना स्थलों पर भक्तों की भीड़ भी लौटने लगी है. बड़े जमावड़ों को लेकर अभी रोक है लेकिन यह रोक भी लंबे समय तक चल नहीं पाएगी.
ईश्वर का व्यक्ति से जहां तक निजी संबंध है, वह तो शायद लॉकडाउन में भी कायम रहा होगा लेकिन सार्वजनिक तौर पर भी एक दीर्घविराम के बाद ईश्वर की वापसी हो चुकी है.
जाहिर है तमाम तर्कवादियों की कामना के बावजूद ईश्वर मरा नहीं है. जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्से ने 1882 में कहा था कि ईश्वर मर गया है या कहीं छुप गया है? नीत्से का ईश्वर इसलिए मर गया था क्योंकि यूरोप में पुनर्जागरण हो चुका था और चर्च तथा ईश्वर की सत्ता कमजोर हो गई थी. हालांकि नीत्से को पढ़ कर ये भ्रम पूरी तरह नहीं जाता कि ईश्वर के मरने से नीत्से खुश है या दुखी.
कोरोना ही नहीं, विश्व इतिहास के तमाम युद्ध, महामारी, सुनामी और ज्वालामुखी विस्फोट के बाद का अनुभव यही बताता है कि ईश्वर किसी बीमारी से या आपदा की वजह से नहीं मर सकता है. ईश्वर की सत्ता वही खत्म कर सकता है जिसने ईश्वर की सत्ता को स्थापित किया है.
लेकिन हम इस बारे में एकमत हो सकते हैं कि अभी धर्म (इसे बहुवचन में पढ़िए, क्योंकि धर्म कई हैं) भी जिंदा है और ईश्वर भी. दुनिया में नास्तिक लोगों की संख्या बढ़ रही है लेकिन धार्मिक लोगों की संख्या नास्तिकों से कई गुना ज्यादा है.
चूंकि ईश्वर मरा नहीं है और संकट काल में अपने भक्तों और अनुयायियों की मदद के लिए सामने भी नहीं आया इसलिए मानना होगा कि संकट काल में ईश्वर छिप जाता है. भक्तों ही नहीं, वह किसी के भी काम नहीं आता.
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ईश्वर कहां-कहां छिप सकता है?
ईश्वर के पास छिपने की बहुत जगहें हैं. मसलन वह उन तमाम धर्म ग्रन्थों और कथाओं में छुप सकता है जो उसके बचाव के लिए हमेशा लोगों को मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार करते हैं और तमाम तरह के तर्क और मान्यताएं गढ़ते हैं. वह उन धर्मस्थलों में भी छिप सकता है, जहां से पुरोहित वर्ग सदियों से उसके बचाव के लिए तैयार की गई धार्मिक सेना का नेतृत्व करते हैं. यहां तक कि ढेर सारे लोगों ने ईश्वर के छिपने के लिए अपने घर का सबसे सुरक्षित स्थान ‘आरक्षित’ कर रखा है. वे घर बनाते समय अपने बच्चों के लिए किताबें रखने के कोने या स्टडी रूम के बारे में नहीं सोचते लेकिन ईश्वर के रहने का स्थान अक्सर सबसे पहले बनाया जाता है.
इन तमाम जगहों में से ईश्वर के लिए छिपने का सबसे सुरक्षित स्थान आस्थावान लोगों का दिमाग है जहां पर वह आराम से रह सकता है. ऐसे लोग कभी अपने दिमाग की साफ-सफाई भी नहीं करते हैं. ऐसी जगहें तर्क और प्रश्नों से परे होती हैं. ईश्वर को यहां रहना रास आता है. ईश्वर की इसी छिपने की प्रवृति के बारे में ई.वी. रामासामी पेरियार सवाल करते हैं, ‘क्या तुम कायर हो जो हमेशा छिपे रहते हो, कभी किसी के सामने नहीं आते?’ पेरियार तर्कवादी थे, तो ये सवाल पूछ पाए. लेकिन एक अतार्कित मस्तिष्क ऐसे सवाल कैसे पूछ सकता है, खासकर तब जब उस दिमाग में ईश्वर पहले से बैठा हो.
ईश्वर इतना ताकतवर कैसे हुआ?
ईश्वर को ताकतवर बनाने में सबसे बड़ी भूमिका पुरोहित वर्ग की रही है. उसने धर्मग्रंथ गढ़कर ईश्वर को असीमित शक्ति से संपन्न बनाया. फिर गरीब और शोषित लोगों ने अपने भाग्य का निर्धारक ईश्वर को मानकर उसके सामने हाथ जोड़े और उसकी ताकत को स्वीकार कर लिया. इंसानों ने आत्म-समर्पण करके ईश्वर को ताकतवर बनाया है.
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ईश्वर लम्बे समय तक एक विचार के रूप में उपस्थित रहा और फिर पुरोहितों ने उसे भौतिक शक्ति बना दिया. मूर्तियां बनाई गई, धार्मिक किताबों की सत्ता स्थापित हुई और मंदिर-मस्जिद-गिरजे-सिनेगॉग बनाए गए. हमेशा ही ईश्वर की शक्ति का उपयोग पुरोहित वर्ग जनता का शोषण करने के लिए करता रहा है. ऐसा किसी धर्म परंपरा में वह अपने लिए करता है तो किसी और परंपरा में ये काम वह राजा और राजसत्ता के लिए करता है. कहीं वह राजा से ऊपर है तो कहीं नीचे. वक्त के साथ भी राजा और पुजारियों की स्थिति बदलती है. ऐसे भी उदाहरण हैं जब पुरोहित और राजा के पद एक बन जाते हैं और पुरोहित ही राजा बन जाता है.
इंसान ईश्वर को विदा कब करेगा
हर व्यापक मानवीय संकट के बाद लगता है कि इंसान इस बार जरूर ईश्वर का दामन छोड़ देगा. तस्लीमा नसरीन कोरोना संकट के समय इसी बात की कामना कर रही हैं कि लोग ईश्वर को झटक देंगे. वे कह रही हैं कि बीमारियों का इलाज गॉड, अल्लाह या भगवान नहीं, वैज्ञानिक करेंगे. इसलिए उनकी सलाह है कि मनुष्यों को आस्था की जगह तर्क की ओर देखना चाहिए.
भूख, अन्याय और शोषण के हज़ारों साल के इतिहास पर नज़र डालें तो कई बार इंसान के गुस्सा होने, समझदार होने और विवेकवान होने के संकेत मिलते हैं. तब उम्मीद बंधती है कि वह ईश्वर की विदाई करके मानव सभ्यता को मुक्त करेगा. लेकिन ऐसा होता नहीं है.
अभी भी कई लोगों को लग ही रहा होगा कि कोरोना संकट में मदद के लिए उपस्थित न रहने वाले ईश्वर से लोग छुटकारा पा लेंगे. लेकिन ऐसा कुछ नहीं होगा. ईश्वर जिंदा रहेगा. कुछ लोग तो ये भी कह रहे हैं कि वह पहले से मजबूत होकर उभर सकता है. इंसान ने अभी तक वह भौतिक और तार्किक साहस अर्जित ही नहीं किया है जो उसे वैज्ञानिक विकासवाद पर अडिग रख सके. बुद्धिवाद का प्रखर प्रसार ही उसे ईश्वर से मुक्ति के लिए प्रेरित करेगा.
ईश्वर पैदा तो पहले विचार के रूप में हुआ है लेकिन उसका अंत भौतिक शक्ति के रूप में होगा. भौतिक शक्ति का अंत तभी होगा जब उसके रहने के घर मिटाए जायेंगे. उसके लिए निर्मित बाज़ार को समाप्त किया जाएगा. ईश्वर का अस्तित्व कुछ मायने में उससे जुड़े आर्थिक तंत्र और व्यापार पर टिका हुआ है. उसके अस्तित्व में आध्यात्मिकता ही नहीं, एक वर्ग का स्वार्थ भी है.
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ईश्वर के भौतिक रूप का अंत उत्पीड़ित वर्ग करेगा, जब वह अपने उत्पीड़न के लिए ज़िम्मेदार कारणों में एक प्रमुख कारण के रूप में ईश्वर की पहचान करेगा. ईश्वर के भौतिक रूप के अंत के बाद उसे विचार रूप में पुरोहित भी ज़िंदा नहीं रख सकेंगे. जब ईश्वर के चाहने वाले नहीं होंगे, उसके नाम पर चढ़ावा नहीं आएगा, उससे जुड़ा अर्थ तंत्र ही नहीं रहेगा तो वे उसकी रक्षा क्यों करेंगे? इस अनुपयोगी ईश्वर को बचाने के लिए कोई भी धर्म युद्ध नहीं लड़ा जाएगा. लेकिन वह समय अभी आया नहीं है. अभी तो मानव सभ्यता आपसी झगड़ों में काफी व्यस्त है. जब इंसान को आपस में एक दूसरे को मरने-मारने से फुरसत मिलेगी तब वह ईश्वर से मुक्ति पाने की सोचेगा.
तब तक ईश्वर को अपने अस्तित्व को लेकर चिंतित होने की जरूरत नहीं है.
(लेखक साहित्यकार हैं. इनका कार्य क्षेत्र राजस्थान है. व्यक्त विचार निजी है)
very superficial thinking.