कैथोलिक चर्च को ये मानने में साढ़े तीन सौ साल लग गए कि जब कॉपरनिकस, गैलीलियो और ब्रूनो कह रहे थे कि धरती स्थिर नहीं है बल्कि सूर्य के चारों और परिक्रमा करती है, तो वे विज्ञान से प्रमाणित सत्य बोल रहे थे. आस्था और विज्ञान के बीच चले लंबे संघर्ष के बाद, चर्च और वेटिकन ने आखिरकार मान लिया कि धरती घूमती है. ऐसा कहने वाले वैज्ञानिकों और विद्वानों को प्रताड़ित करने के लिए चर्च ने सार्वजनिक माफी मांगी. पोप जॉन पॉल द्वितीय ने कहा कि चर्च द्वारा गैलीलियो का विरोध करना समझदारी नहीं थी.
आधुनिकता और ज्ञान के मुकाबिल होने पर धर्म द्वारा स्थापित परंपराओं और आस्था का पीछे हटना सिर्फ ईसाई धर्म में नहीं हुआ है. वक्त बदलता है या ज्ञान के क्षेत्र का विस्तार होता है तो कई बार धर्म और धर्मग्रंथ भी खुद को बदल लेते हैं या नई व्याख्याएं प्रस्तुत करते हैं. हिंदू धर्म उन धार्मिक कथ्यों और उनके अर्थों को बदल रहा है या उनकी नई व्याख्याएं प्रस्तुत कर रहा है जो जातिवाद और नारी-विरोध को बढ़ावा देती हैं या दे सकती हैं.
मैं ये देखकर दंग रह गया कि उत्तर भारत के सबसे लोकप्रिय धार्मिक ग्रंथ रामचरितमानस की सबसे विवादास्पद पंक्तियों – ‘ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।’ में ताड़ना के अर्थ को अब बदल दिया गया है. रामचरितमानस को 16वीं सदी में तुलसीदास ने लिखा था और इसकी एक करोड़ से ज्यादा कॉपियां प्रकाशित हो चुकी हैं. गीता प्रेस गोरखपुर रामचरितमानस का सबसे बड़ा प्रकाशक है.
झारखंड में यात्रा करने के दौरान मुझे गीता प्रेस द्वारा 1953 में प्रकाशित रामचरितमान की कॉपी मिली. इसमें मूल अवधी भाषा की रचना और उसका हनुमान प्रसाद पोद्दार (1892–1971) द्वारा किया हिंदी अनुवाद और उसकी व्याख्या है. इसमें ताड़ना के लिए “दंड” का इस्तेमाल किया गया है: “ढोल. गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री- ये सब दंड के अधिकारी हैं.”
लेकिन अब गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित जो रामचरितमानस (2022) बाजार में है, उसमें ताड़ना शब्द का अर्थ बदल चुका है. इसमें लिखा गया है कि: “ढोल. गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री- ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं.” इस संस्करण में भी अनुवादक का नाम हनुमान प्रसाद पोद्दार ही दिया गया है, जो 1971 में दिवंगत हो चुके हैं.
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ये गौर करने की बात है कि गीता प्रेस भारत में हिंदू धार्मिक किताबों का सबसे बड़ा प्रकाशक है. इसकी स्थापना 1923 में हुई थी. इसने अब तक गीता, रामायण, रामचरितमानस, भागवत, उपनिषद और धार्मिक उपदेश संबंधी 30 करोड़ से ज्यादा किताबें विभिन्न भारतीय भाषाओं में छापी हैं. अगर किसी के घर में रामचरितमानस है तो इस बात की ही पूरी संभावना है कि वह गीता प्रेस में छपी है. हालांकि रामचरितमानस कई और छोटे प्रकाशकों ने भी छापी है, पर संख्या कम है. गीता प्रेस की किताबें सबसे प्रामाणिक मानी जाती हैं. इसलिए जब इसके संचालकों ने ये तय किया कि वे रामचरितमानस के एक शब्द का अर्थ बदल रहे है, तो इसकी गंभीरता का अंदाजा उन्हें रहा होगा.
मेरा तर्क है कि गीता प्रेस ने जो बदलाव किया है, उसे देश-काल-परिस्थिति के संदर्भ में देखा जाना चाहिए. मुझे इस बदलाव के तीन कारण समझ में आते हैं:
1. रामचरितमानस को तुलसीदास ने 16वीं सदी के मध्य में लिखा है. तब से लगभग पांच सौ साल बीत चुके हैं. किसी खास दौर में जो विचार या बातें सामान्य और स्वीकार्य होती हैं, वही बातें किसी और दौर में आपत्तिजनक और विवादास्पद बन जाती हैं. हिंदू समाज तथा उसका विचार और विचारधारा इन पांच सौ साल में काफी बदल चुकी है. ये गौर करने की बात है तुलसीदास की इन पंक्तियों पर ज्यादा विवाद पिछले पचास साल में ही हुआ है, उससे पहले ये काफी हद तक स्वीकार्य था. धार्मिक ग्रंथों में बदलते समय के साथ परिवर्तन करना उन्हें स्वीकार्य बनाए रखने के लिए जरूरी है. गीता प्रेस ने यही किया है.
2. रामचरितमानस अवधी भाषा में लिखी गई है. वह भी पुराने समय की अवधी में. तथाकथित हिंदी भाषी क्षेत्र की अन्य भाषाओं को बोलने वाले लोग अवधी भाषा के ज्यादातर शब्दों को नहीं समझ सकते. उत्तर प्रदेश के लगभग 10 जिलों में बोली जाने वाली इस भाषा की अपनी खासियत हैं. ताड़ना शब्द को ही लें तो ये शब्द दंड देना, मारना-पीटना, देखना आदि विभिन्न अर्थों में इस्तेमाल होता है. इसका कब कौन-सा अर्थ होगा ये संदर्भ और वाक्य रचना से निर्धारित होता है. शूद्र और नारी के साथ ढोल का इस्तेमाल बताता है कि मूल रचना में ताड़ना का क्या मतलब है. लेकिन बदलते वक्त के साथ ये अर्थ असुविधाजनक हो चुका है. इसलिए अब ताड़ना का दूसरा अर्थ सामने रखा जा रहा है.
3. ये समझना जरूरी है कि धार्मिक रचनाओं से साहित्यिक अपेक्षा यानी उम्मीद क्या है. किसी खास दौर में जब जाति व्यवस्था और नारी का समाज में नीचे का स्थान स्वीकार्य था और प्रभु वर्ग के लोग इसे बनाए रखना चाहते थे, तब ताड़ना का अर्थ दंड ही हो सकता था. लेकिन अब उसी शब्द की साहित्यिक उम्मीद बदल चुकी है. लोकतंत्र आने, महिला अधिकारों को स्वीकृति मिलने और जातिवाद को लेकर विचारों के बदलने के साथ ताड़ना का पुराना अर्थ चल नहीं सकता. ये मुमकिन है कि अब भी ऐसे लोग हों जो शूद्रों और नारी की प्रताड़ना को सही समझते हों, पर नए दौर का दबाव ऐसा है कि वे इसे खुलकर कह नहीं पाएंगे. मिसाल के तौर पर छुआछूत को धार्मिक ग्रंथों में स्वीकृति है, पर आज के समय में ये बात कोई बोलता नहीं है. जो आज भी छुआछूत बरतते हैं वे भी यह काम अक्सर सार्वजनिक तौर पर नहीं करते.
किसी भी प्रकाशक के लिए रामचरितमानस के अवधी स्वरूप को बदलना या किसी लाइन को हटा देना आसान नहीं है, ऐसे में अर्थ और व्याख्या को बदल देना एक सहज उपाय है, गीता प्रेस ने यही किया है. बाइबिल के अर्थ और व्याख्या तथा विन्यास और उसमें बदलाव को समझने के लिए एक पूरा शास्त्र ही है, जिसे बाइब्लिकल हरम्यूनिटिक्स कहा जाता है. हिंदू धर्म शास्त्र की रचनाओं के साथ भी ये होता है, हालांकि अभी ये व्यवस्थित अध्ययन या शोध का विषय नहीं बन पाया है.
मैं रामचरितमानस की इस लाइन खासकर ताड़ना शब्द का अर्थ बदले जाने का स्वागत करता हूं.
अर्थ या व्याख्या में ऐसा बदलाव हिंदू ग्रंथों के मामले में पहले भी हो चुका है. भगवत गीता का अंग्रेजी अनुवाद और व्याख्या (1948) करते हुए पूर्व राष्ट्रपति और दर्शनशास्त्र के विद्वान सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भी इसी तरह का कार्य किया था. मिसाल के तौर पर गीता के 18वें अध्याय के 41वें श्लोक को देखें.
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।।18.41।।
राधाकृष्णन ने इसका इंग्लिश अनुवाद इस रूप में किया है: Of Brahmanas, Kshatriyas and Vaishyas, as also the Sudras, O Arjuna, the activities are distinguished in accordance with the qualities born of their own nature.
स्वामी चिन्मयानंद इसकी व्याख्या इस रूप में करते हैं – “प्रकृति के तीन गुणों का विस्तृत वर्णन करने के पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण उन गुणों के आधार पर ही मानव समाज का ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों में विवेकपूर्ण विभाजन करते हैं. इन चार वर्णों के लोगों में कर्तव्यों का विभाजन प्रत्येक वर्ग के लोगों के स्वभावानुसार किया गया है. स्वभाव का अर्थ प्रत्येक मनुष्य के अन्तकरण के विशिष्ट संस्कार हैं.”
लेकिन राधाकृष्णन आजादी के बाद इसका अनुवाद प्रकाशित करते हुए इस बात से वाकिफ थे कि धर्म ग्रंथ की ये व्याख्या अब स्वीकार्य नहीं होगी. इसलिए उन्होंने इस श्लोक के नीचे अपना तर्क देते हुए लिखा कि – चार वर्णों में किया गया विभाजन हिंदू समाज की कोई विशिष्ट बात नहीं है. यह सार्वभौमिक यानी वैश्विक है. ये मनुष्य के स्वभाव पर आधारित विभाजन है. इसका निर्धारण हमेशा जन्म से नहीं होता. राधाकृष्णन स्पष्ट लिखते हैं कि “वर्तमान कठोर और भ्रम फैलाने वाली समाज व्यवस्था का समर्थन करने के लिए गीता का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.”
संस्कारी ब्राह्मण परिवार में जन्मे और ब्राह्मण परंपरा में दीक्षित राधाकृष्णन के लिए ये मुमकिन नहीं था कि वे गीता के किसी अंश की वैसी आलोचना करें जैसी मीमांसा ज्योतिबा फुले या डॉ. आंबेडकर ने की है. अपनी सीमाओं के अंदर उन्होंने इस श्लोक की वैसी व्याख्या करने की कोशिश की जो देश-काल-परिस्थिति में स्वीकार्य हो. गीता प्रेस ने ऐसा ही काम किया है.
नारीवादी सिद्धांतकार डोरिथी स्मिथ ने भाषा और उसके अर्थ को लेकर एक महत्वपूर्ण थीसिस लिखी है जिससे इन बदलावों को समझा जा सकता है. ‘Telling the Truth after Postmodernism’ में डोरिथी स्मिथ अर्थ यानी मीनिंग तक पहुंचने की प्रक्रिया को मैप-रीडिंग जैसी प्रक्रिया मानती हैं. उनके मुताबिक अर्थ को वाक्य या शब्द से नहीं समझा जा सकता. यह अलग अलग नजरिए और उनके बीच होने वाली अंतर्कियाओं और उनके बीच के संवाद में निहित है. वे अर्थ को एक सामाजिक प्रक्रिया के निष्कर्ष के रूप में देखती हैं.
हमें ये समझने के जरूरत है कि 21वीं सदी के शूद्र और नारी अपनी बात बोल सकते हैं और अपना पक्ष रख सकते हैं. लोकतंत्र और आधुनिकता ने उन्हें सशक्त बनाया है. हालांकि ये दिलचस्प है कि ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी को लेकर कही गई तुलसीदास की पंक्तियों से जितनी आपत्ति मध्यम और निचली करार दी गई जातियों यानी शूद्रों को है. उतनी शिकायत प्रमुख महिला संगठनों और संस्थाओं को नहीं है. इससे ये भी समझा जा सकता है कि इन संगठनों का वैचारिक नेतृत्व किन जातियों के पास है. मेरा मानना है कि सवर्ण महिलाएं आम तौर पर लैंगिक भेदभाव की अनदेखी कर सकती हैं, अगर उनका जातीय प्रिविलेज यानी विशेषाधिकार कायम रहे. अगर जाति और वर्ण दोनों की आलोचना करनी हो तो वे चुप रह जाना बेहतर समझती हैं.
लेकिन ओबीसी और एससी या एसटी संगठनों के लिए ऐसा कोई स्वार्थ की बाधा नहीं है. पिछले कई दशकों से धार्मिक ग्रंथों के जातिवादी और वर्णवादी अंशों और व्याख्याओं को लेकर वे आलोचना कर रहे हैं. इसकी पुरानी परंपरा रही है जो संत कबीर और संत रैदास से शुरू होती है और ज्योतिबा फुले, आंबेडकर और पेरियार से होते हुए आगे जारी रहती है. हाल के दिनों में रामचरितमानस के जातिवादी स्वरूप की आलोचना बिहार के शिक्षा मंत्री डॉक्टर चंद्रशेखर और समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने की है.
आखिरी दिलचस्प बात. आरएसएस ने तुलसीदास और उनकी रामचरितमानस तथा उसकी जातिवादी व्याख्याओं का कभी अनुमोदन नहीं किया है और आर्य समाज ने तो इस रचना को वर्जित करार दिया है. इन ग्रंथों का निहित जातिवाद विराट हिंदू की उनकी परिकल्पना में बाधक है. सनातनी हिंदू परंपराओं की वाहक गीता प्रेस ने एक बड़े सुधार के जरिए ये संदेश दिया है कि वह भी बदलने के तैयार है.
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