भारतीय जनता पार्टी महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में प्रभावशाली जीत दर्ज कराने के लिए तैयार दिखती है. चुनाव विश्लेषक, राजनीतिक विशेषज्ञ और विपक्ष के हिमायती तक इस बात से सहमत हैं. वैसे जनता का मूड भांपने में उनका बुरी तरह नाकाम रहने का रिकॉर्ड रहा है – जिसमें कि ‘मोदी मैजिक’ पर सहज भरोसा करना शुरू करने पर खासा सुधार हुआ है – लेकिन ज़मीनी रिपोर्टों से भी यही संकेत मिलता है कि चुनाव के ताजा दौर में विपक्षी दलों को भारी नुकसान होने वाला है.
विपक्ष भी अपनी नियति को स्वीकार कर चुका दिखता है. यदि मतदाता मोदी युग में चुनावी परिणामों की पूर्वनिश्चितता की दशा को बदलने का फैसला नहीं करते, तो गुरुवार को नतीजे आने पर भाजपा खेमे में समय पूर्व दिवाली का उत्सव देखने के लिए तैयार रहें. लेकिन इससे पहले कि जश्न शुरू हो, मैं एक बात के लिए आगाह करना चाहूंगा – भले ही इसके लिए ट्रोल होना पड़े. चुनावी नतीजे और जनादेश का स्तर यदि भाजपा की अपेक्षा के अनुरूप रहता है तो भी उसे शायद भाजपा शैली की राजनीति या शासन का समर्थन नहीं माना जाएगा. अगर आप चुनाव अभियान के दौरान महाराष्ट्र और हरियाणा में मौजूद रहते तो आपको आश्चर्य होता कि कैसे अब भी कोई ‘अच्छे दिन’ आने की बात नहीं करता. हरियाणा में यदि जातीय समीकरण भाजपा के पक्ष में काम कर रहा है, तो महाराष्ट्र में विपक्ष के लगभग सफाए की मुख्य वजह सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में टीना फैक्टर (विकल्पहीनता की स्थिति) होने को माना जाएगा.
पर गुरुवार को नतीजे आने के बाद दो तरह के कथानक सामने आने की संभावना है. पहले में, चुनाव परिणाम को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उत्तरोत्तर बढ़ती लोकप्रियता का एक और सबूत तथा शासन के उनके तौर-तरीके का अनुमोदन बताया जाएगा. लेकिन, इस कथानक की वैधता पर विचार करने से पहले दूसरे संभावित कथानक पर गौर करते हैं – कि मोदी-शाह की जोड़ी ने महाराष्ट्र और हरियाणा के मुख्यमंत्रियों देवेंद्र फडणवीस और मनोहरलाल खट्टर के रूप में दो नए जननेता तैयार करने का काम किया है. पार्टी के चुनाव प्रचार में दोनों को तरजीह दी गई. वरना इससे पहले होर्डिंगों और पोस्टरों में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की छोटे नेताओं के साथ छोटी तस्वीर, जबकि फडणवीस और खट्टर की मोदी के संग आदमकद तस्वीरें आपने कब देखी थी? वो भी उस स्थिति में जब भाजपा ने अनुच्छेद 370 के खात्मे को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाया हो और अमित शाह को सरदार वल्लभभाई पटेल के अधूरे सपने को पूरा करने वाले के रूप में चित्रित किया जा रहा हो. शाह ने महाराष्ट्र में 18 रैलियों को, जबकि मोदी ने नौ रैलियों को संबोधित किया.
मोदी युग में बेचैनी
गत सोमवार को मुंबई से पुणे जाते हुए मैं लोनावला में रुका था जहां उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जनसभा को संबोधित करने वाले थे. भाजपा के स्थानीय कार्यालय के पास एक दुकान चलाने वाले अजीत गिरि बिफरे पड़े थे. जनरल मोटर्स के टालेगांव संयंत्र में कार्यरत रहे उनके बेटे की नौकरी छूट गई है. वह मुंबई और पुणे के बीच बड़ी संख्या में मौजूद ऑटोमोबाइल सेक्टर की इकाइयों के मंदी की चपेट में पड़ने का शिकार बना है.
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गिरि ने कर्ज लेकर बेटे के लिए एक जीप खरीदी है जिस पर वह रिटेल की वस्तुओं को ढोता है. उनके मेकेनिकल इंजीनियर बेटे को नए काम की भागदौड़ के कारण अब अक्सर जीप में ही रात काटनी पड़ती है.
मोदी समर्थक मतदाता रहे गिरि की बातों में मोहभंग साफ झलकता है: ‘हमें क्या मिला? लोग अब भी सोचते हैं कि अच्छे दिन शायद आएंगे, पर मेरे बेटे को तो नौकरी गंवानी पड़ी.’
फडणवीस के बारे में पूछने पर गिरि ने झुंझलाकर सवाल किया, ‘क्या किया है उन्होंने?’
तो क्या वह भाजपा को वोट देने की सोचते हैं? इस पर उनकी पक्की राय नहीं थी: ‘और कौन है सामने? देखते हैं. लोगों ने उम्मीदें पाल रखी हैं…पर कुछ हो नहीं रहा.’
उस स्थान से एक किलोमीटर दूर आदित्यनाथ के सभा-स्थल पर एक झुंड में खड़े लोगों ने भी फैक्ट्रियों के बंद होने और उसके चलते बेरोज़गारी की समस्या बयां की. बावजूद इसके उन्होंने भाजपा को वोट देने की बात की. मोदी से आस की वही जानी-पहचानी कहानी.
आदित्यनाथ आखिरकार भाषण देने पहुंचे और उन्होंने बताया कि कैसे जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म किए जाने के बाद ‘एक राष्ट्र, महान राष्ट्र’ का विचार वास्तविकता में बदल गया है और कैसे अनुच्छेद 370 के खात्मे ने ‘आतंकवाद के ताबूत में अंतिम कील’ ठोकने का काम किया है.
भाजपा कार्यकर्ताओं ने इस बात पर तालियां बजाई, जबकि बाकियों ने इसे उदासीनता के साथ सुना. लोनावला से पुणे और सतारा के रास्ते में आपको अजीत गिरि जैसे लोग बड़ी संख्या में मिल जाएंगे जिन्हें मोदी से बहुत उम्मीदें थीं, पर जो अब बैचैनी दिखाने लगे हैं. हालांकि मोदी से उनका विश्वास अभी तक नहीं उठा है.
सिर्फ मोदी मैजिक काफी नहीं
पुणे के रास्ते पर मेरी कार के ड्राइवर ने सोशल मीडिया पर प्रचलित एक चुटकुला सुनाया. ‘मोदी जी के आने से पहले लोग सोचते थे कि उनके पास कुछ नहीं है और वह उन्हें सबकुछ देंगे. अब लोगों को लगता है कि जो उनके पास था, वही काफी था. वही बच जाए, तो बहुत है.’ बता दूं कि ड्राइवर मोदी का प्रशंसक था. मोदी समर्थक भी अब उनके बारे में चुटकुले सुनाने से गुरेज नहीं करते, ये भाजपा के लिए चिंता का विषय होना चाहिए.
2014 की तुलना में एक उल्लेखनीय बदलाव ये आया है कि लोग अब राष्ट्रीय और स्थानीय चुनावों में अंतर करने की कोशिश करते हैं. लोकसभा के 2014 के चुनावों के बाद हुए विधानसभा चुनाव मोदी केंद्रित व्यक्तिपूजक माहौल में हुए थे, और तब भाजपा के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवारों में शायद ही किसी की रुचि थी.
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पांच साल बाद, लोग अब भी मोदी की चर्चा करते हैं पर उनकी राजनीतिक सोच पर मुख्यमंत्री के कामकाज तथा स्थानीय और क्षेत्रीय मुद्दों का असर दिखता है. रत्नागिरि से मुंबई की राह में आप लोगों से मोदी या फडणवीस या अनुच्छेद 370 के खात्मे की बात करें तो भी चर्चा प्रांतीय और राष्ट्रीय राजमार्गों की खस्ता हालत पर आकर ही समाप्त होती है. इसकी वजह समझ में आती है क्योंकि 350 किलोमीटर की इस दूरी को तय करने में करीब 11 घंटे लगते हैं.
लोकप्रियता के मामले में फडणवीस और खट्टर अब भी शिवराज सिंह चौहान या रमन सिंह के स्तर पर नहीं पहुंच पाए हैं. महाराष्ट्र और हरियाणा की जनता उन्हें ‘अच्छा आदमी’ मानती है और बहुत से लोग उन्हें ईमानदार भी बताते हैं. फिर भी, लोग उस तरह उनके नाम पर वोट नहीं करेंगे जैसा कि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में क्रमश: चौहान और सिंह के नाम पर करते थे.
विपक्षी नेताओं के थोक भाव में दलबदल कर भाजपा में आने – और सीमित रूप में ही सही, पर दूसरी दिशा में भी नेताओं का हृदय परिवर्तन होने – के कारण मतदाताओं के एक वर्ग के लिए दलों, विचारधाराओं और व्यक्तियों के बीच स्पष्ट विभेद नहीं रह गया है. इन चुनावों में कोई प्रबल चुनावी मुद्दा भी नहीं था, हालांकि भाजपा ने राष्ट्रवाद और अनुच्छेद 370 को बड़े मुद्दे के रूप में पेश करने की भरसक कोशिश की थी. यदि हरियाणा में मुद्दा जाट बनाम गैर-जाट एकुजटता की थी, तो पश्चिमी महाराष्ट्र की सीटों पर मराठों का संघर्ष था. जैसे, सतारा का उदाहण लें तो वहां एनसीपी मराठों से अपने शीर्ष नेता शरद पवार के खिलाफ मनी लाउंड्रिंग का मामला दर्ज किए जाने की कार्रवाई का बदला लेने की अपील कर रही थी; जबकि भाजपा मराठों को लुभाने के लिए अपने पाले में आए छत्रपति शिवाजी के वंशजों पर भरोसा कर रही थी.
अब 24 अक्टूबर को चाहे जो भी नतीजे आएं, जनादेश थोड़ा हट कर होगा क्योंकि ये सिर्फ नरेंद्र मोदी के बारे में नहीं होगा. इसमें काफी कुछ विपक्ष की खुद के खात्मे की कामना प्रतिबिंबित होगी.
एक और चुनावी जीत से भाजपा अपनी सरकार के प्रदर्शन पर, खास कर अर्थव्यवस्था के प्रबंधन के मामले में, लोगों की बढ़ती बेचैनी के प्रति और अधिक बेपरवाह और उपेक्षापूर्ण बन सकती है. मोदी शायद ही कभी ‘अच्छे दिन’ के अपने वादे का जिक्र करते हैं, पर जनता अब भी उसे याद करती है. हालांकि, जनता की आवाज के गुरुवार को जीत के जश्न में दब जाने की संभावना है.
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