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Saturday, 21 December, 2024
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भारत में आ गया है आरएसएस सिस्टम, जिसमें पक्ष और विपक्ष दोनों समाहित

नई सरकार ने काम शुरू कर दिया है और संसद सत्र शुरू होने के बाद ऐसी उम्मीद है कि एनडीए सरकार तेजी से कई नीतिगत फैसले करेगी.

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2019 के लोकसभा चुनाव के बाद लगातार दूसरी बार ऐसी स्थिति बन गई है कि लोकसभा में विपक्ष का कोई आधिकारिक नेता नहीं होगा. कांग्रेस फिर लोकसभा की 10 प्रतिशत सीटों से कम पर अटक गई है और उसे विपक्ष के नेता का आधिकारिक दर्जा नहीं मिलेगा. बीजेपी और एनडीए की प्रचंड जीत के बाद विपक्ष एक बार फिर हताश है. जनता की आवाज उठाने के लिए संसद से सड़क तक विपक्ष का कोई मजबूत संगठन या नेता नजर नहीं आ रहा है. विपक्षी दल अभी अपने जख्म सहलाने में लगे हैं और इस नतीजे तक नहीं पहुंच पाए हैं कि वे सचमुच हार गए हैं या उन्हें ईवीएम के जरिए हराया गया है.

नई सरकार ने काम शुरू कर दिया है और संसद सत्र शुरू होने के बाद ऐसी उम्मीद है कि एनडीए सरकार तेजी से कई नीतिगत फैसले करेगी. ये फैसले आर्थिक क्षेत्र के अलावा शिक्षा, कृषि तथा नौकरशाही के क्षेत्र में हो सकते हैं. ऐसे में एक सुसंगत लोकतंत्र में विपक्ष को सचेत और तैयार होना चाहिए ताकि होनेवाले नीतिगत फैसलों पर विचार करके अपना पक्ष जनता के समक्ष रखे.


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अब विपक्ष कौन है?

2019 के आम चुनाव में एनडीए को बहुमत मिला ही है, अब अगले साल राज्यसभा में भी उसका पूर्ण बहुमत हो जाएगा. बीजेपी को लोकसभा में अपने दम पर भी बहुमत प्राप्त है और वहां वह सहयोगी दलों पर भी निर्भर नहीं है. मोदी सरकार, विपक्ष या सहयोगी दलों के सहयोग के बगैर भी, कोई भी विधेयक संसद में पारित करा लेने में सक्षम होगी. यह लगभग वही स्थिति है, जहां पहले कभी कांग्रेस हुआ करती थी.

भारत के स्वतंत्र होने के बाद 1977 तक कांग्रेस सत्ता में रही है. उन तीन दशकों में भी विपक्ष बहुत कमजोर हुआ करता था. हालांकि उस दौर में विपक्ष के इक्का दुक्का सांसदों की आवाज सुने जाने की परंपरा रही थी, लेकिन इसे हम कांग्रेस की उदारता मान सकते हैं. उस दौर में संसद में मुख्य विपक्ष की भूमिका में कम्युनिस्ट हुआ करते थे और सोशलिस्ट दल अपनी ताकत बढ़ा रहे थे. बीजेपी उन दिनों जनसंघ के अवतार में थी और एक कमजोर पार्टी हुआ करती थी.

उस समय देश कांग्रेस सिस्टम से चलता था, जिसके बारे में दिप्रिंट के कॉलमनिस्ट अरविन्द कुमार ने अपने एक लेख में विस्तार से बताया है. वे प्रख्यात राजनीति विज्ञानी रजनी कोठारी को कोट करते हुए कहते हैं कि पुराने दौर की कांग्रेस पार्टी ‘दबाव’ और ‘सहमति’ के सिद्धांत पर काम करती थी, जिसमें अपनी मांगों को लेकर इसके अलग-अलग फ़्रंटल संगठन और नेता दबाव बनाते थे, जिस पर इसकी राष्ट्रीय कार्यसमिति आम सहमति से निर्णय लेती थी. वे आगे लिखते हैं कि ‘दबाव’ और ‘सहमति’ से निर्णय लेने की इसी ख़ूबी के कारण आज़ादी के तीन दशक तक भारत में कोई विपक्ष नहीं पैदा हो पाया, क्योंकि तब कांग्रेस पार्टी का संगठन विपक्ष का काम करता था.

लेकिन 1980 के दशक में ये टूट गया और देश में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच अंतर्क्रियाएं होने लगीं. ये मिली जुली सरकारों का दौर था जो लगभग साढ़े तीन दशक तक चला.

सवाल उठता है कि क्या देश फिर से एक ऐसी स्थिति में पहुंच गया है, जब एक ही सत्ता संरचना के अंदर पक्ष और विपक्ष दोनों काम करेंगे. 2014 में केंद्र में बीजेपी की सरकार बनने और ज्यादातर राज्यों में एनडीए की सरकार होने के कारण और साथ ही विपक्षी दलों के कमजोर होने के कारण इसके आसार बन गए हैं.

भारतीय मजदूर संघ आर्थिक नीतियों पर बन सकता है विपक्ष

लोकसभा और विधानसभा की राजनीति में हाशिये पर जा चुके मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के मजदूर संगठन सेंटर आफ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) से जुड़ा मजदूर संगठन आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एटक) भी धीरे धीरे करके हाशिये पर जा रहे हैं, जो एक समय में बहुत ही ताकतवर मजदूर संगठन माने जाते थे. कांग्रेस के मजदूर संगठन इंटक में भी वही निराशा है, जो कांग्रेस में है. वैसे भी अपने अच्छे दौर में इंटक की ताकत ये थी कि सरकारी पार्टी का संगठन होने के कारण वह मजदूरों के लिए बेहतर सौदेबाजी कर पाती थी.

ऐसी स्थिति में मजदूर संगठनों में बीएमएस से विपक्ष की भूमिका निभाए जाने की पूरी आस है. मजदूर संगठनों में बीएमएस की सदस्य संख्या सर्वाधिक है. आरएसएस से सीधे तौर पर जुड़ा बीएमएस खुद को गैर राजनीतिक और पूरी तरह से मजदूर संगठन होने का दावा करता है. बीएमएस ने मोदी के पहले कार्यकाल में ही विपक्ष की भूमिका निभानी शुरू कर दी थी और कई मसलों पर सरकार की नीतियों का विरोध किया. उसने सरकारी बीमा कंपनियों में हिस्सेदारी बेचने का विरोध किया. सरकार की श्रमिक विरोधी नीतियों के खिलाफ बीएमएस ने 20 फरवरी 2018 को काला दिवस मनाने की घोषणा की थी और श्रम कानूनों को लेकर सरकार के रवैये की आलोचना की. उसने सरकार से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश रोकने की मांग की और सरकारी कंपनियों को बेचे जाने की नीति का विरोध करते हुए 22 सूत्री मांगपत्र तत्कालीन वित्त मंत्री को सौंपा.


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स्वदेशी जागरण मंच और छोटे दुकानदारों के सवाल

खुदरा क्षेत्र में प्रत्य़क्ष विदेशी निवेश को लेकर, विपक्ष में रहते भाजपा बहुत मुखर थी. अब मोदी सरकार द्वारा विदेशी निवेश लाने की नीति अपनाए जाने के बाद आरएसएस से जुड़ा स्वदेशी जागरण मंच विपक्ष की भूमिका निभा रहा है. जब एकल ब्रांड खुदरा में 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति देने का सरकार ने फैसला किया तो इस संगठन ने फैसले का कड़ा विरोध किया. स्वदेशी जागरण मंच ने सरकार पर आरोप लगाया कि वह अपनी ही नीतियों पर अब यू टर्न ले रही है. मोदी-2 सरकार ने एयर इंडिया में हिस्सेदारी बेचने के लिए नए सिरे से योजना बनाना शुरू किया है, वहीं स्वदेशी जागरण मंच ने एयर इंडिया को बेचने को लेकर नाराजगी जताई है.

आरएसएस के संगठन बनाते हैं सरकार पर दबाव

आरएसएस से जुड़े छोटे कारोबारियों के संगठन भी अपने पक्ष में नीतियां बनाने के लिए सरकार पर दबाव बना रहे हैं. वैसे भी सत्ता में आने से पहले तक, ये छोटे कारोबारी ही बीजेपी का मुख्य आधार हुआ करते थे.

अब सरकार बनने के बाद छोटे कारोबारियों के संगठन नीतियां बनाने वाली विभिन्न सरकारी समितियों में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने की मांग कर रही हैं. आरएसएस का संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद भी छात्रों के सवाल पर कई बार सरकार की आलोचना करता रहता है. आरएसएस के किसान संगठन भी आने वाले दिनों में धरना-प्रदर्शन कर किसानों की मांगों को बुलंद करते नजर आ सकते हैं.

इस तरह से देखें तो समय का चक्र एक बार फिर उस दौर में पहुंच चुका है, जब स्वतंत्रता के शुरुआती दशकों में सत्तासीन दल में ही विपक्ष रहा करता था. हताश और निराश विपक्ष की भूमिका कमजोर होने के बाद सत्तासीन दल और आरएसएस से जुड़े आनुषांगिक संगठनों की ओर से ही मुखर विरोध सामने आने की संभावना बची हुई है.

इसमें एक बात ध्यान रखने की है कि कांग्रेस का ढीला-ढाला संगठन था और है, वहीं आरएसएस और बीजेपी में अनुशासित तरीके से काम होता है और नेतृत्व का नियंत्रण बहुत सख्त होता है. इसलिए ये देखना होगा कि कांग्रेस ने एक दौर में जिस लचीलेपन के साथ अपने अंदर पक्ष और विपक्ष को समाहित किया, क्या बीजेपी और आरएसएस ऐसा कर पाएगा. दूसरा सवाल ये भी है कि क्या विपक्ष एक बार फिर से खुद को खड़ा कर पाएगा.

(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं.)

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