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Sunday, 22 December, 2024
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कश्मीर में खुले वो दरवाज़े, जो हमें नज़र नहीं आए

कश्मीर और भारत को जोड़ने वाली कई चीजें हैं. हमारे बीच बहुत कुछ साझा है. कश्मीर के होटल मालिकों ने संकट में फंसे लोगों के लिए अपने दरवाज़े खोलकर एक अच्छा संदेश दिया है.

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पिछले सप्ताह जब मीडिया पुलवामा अटैक के गुनहगारों के खिलाफ हमारी एयरफोर्स के एक्शन की खबरों में मशगूल था, ठीक उसी वक्त भरोसा, राहत और सुकून का पैगाम लेकर एक ऐसी खबर भी आई जो इस देश के मुख्तलिफ हिस्सों में कश्मीरियों से बदसलूकियों को जायज़ ठहराने वालों को आईना दिखा गई.

बुधवार को रजौरी में घुस आए एक पाकिस्तानी एयरफोर्स एक फाइटर प्लेन को गिराने के बाद होम मिनिस्ट्री ने श्रीनगर समेत देश के कई हवाई अड्डों को तीन महीनों तक बंद करने का ऐलान कर दिया. इससे कश्मीर पहुंचे देश के अलग-अलग हिस्से के सैलानियों में अफरातफरी फैल गई.

श्रीनगर-जम्मू नेशनल हाईवे कई दिनों से बंद ही था और हज़ारों गाड़ियां पहले ही फंसी पड़ी थी. कई लोग अपना होटल छोड़ श्रीनगर हवाईअड्डे के रास्ते पर थे. उन्हें लगा कि जंग छिड़ गई तो वे बुरी तरह फंस जाएंगे.


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लेकिन ठीक इसी वक्त कश्मीर के होटलों ने उनके लिए अपने दरवाज़े खोल दिए. होटल मालिकों ने इन सैलानियों से कहा- आप घबराइए मत. हम आपके साथ हैं. बगैर किसी चार्ज के आप हमारे होटल में रह सकते हैं. खा सकते हैं. श्रीनगर के आम कश्मीरियों ने भी अपने घरों के दरवाज़े खोल दिए. जबकि पुलवामा हमले के ठीक बाद उत्तर भारत के कई शहरों में ‘कश्मीरियों के लिए नहीं’ जैसे नारे बुलंद किए गए थे. होटलों में कश्मीरियों को घुसने नहीं दिया जा रहा था और कॉलेजों में नौजवान कश्मीरी स्टूडेंट्स को बाहर निकाला जा रहा था.

तब जिस तरह से देश के तमाम बड़े शहरों में सैकड़ों की तादाद में लोग इन नौजवानों की हिफाज़त के लिए आगे आए और इनके लिए अपने घरों को दरवाज़े खोले वैसी ही फराकदिली श्रीनगर के होटल मालिकों और आम लोगों ने दिखाई.


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पिछले 15-20 दिनों के दौरान घटने वाली इन दोनों घटनाओं ने ये साबित कर दिया कि कश्मीर और वहां के लोगों को लेकर हम किस गफलत में जी रहे हैं. कैसे कश्मीर पर हम इकतरफा एजेंडे और लगातार थोपे जा रहे नैरेटिव के शिकार होते जा रहे हैं. इस नैरेटिव के मुताबिक कश्मीर के ज़्यादातर नौजवान पत्थरबाज़ हैं.

उन्हें पैसे देकर सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंकने के लिए उकसाया जाता है. ज़रा सोचिए, आतंकियों और सुरक्षा बलों की युद्धभूमि बन चुके कश्मीर में अपने पतियों और बच्चों को खोने वाली कश्मीरी मांओं के दिल को इससे ज़्यादा और कौन सी बात चोट पहुंचा सकती थी.

पिछले ढाई दशक से कश्मीर को लेकर भारत के बाकी हिस्से में जान-बूझ कर एक ऐसे नैरेटिव और विमर्श को हवा दी जा रही है, जिसमें वहां का हर शख्स भारतीय लोकतंत्र का दुश्मन नज़र आ रहा है. हर नौजवान पत्थरबाज़ और जिहादी दिख रहा है. हर कश्मीरी नेता अलगाववादी नज़र आ रहा है.

कट्टरपंथी विमर्श से सराबोर देश के मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान की नज़र में कश्मीर एक ऐसा इलाका है जो पाकिस्तान के इशारे पर भारत को हर तरह से नुकसान पहुंचाने की फिराक में रहता है. यह राजनीतिक मुद्दा नहीं बल्कि सिर्फ-कानून व्यवस्था का सवाल है. जिसे किसी कथित पत्थरबाज़ को जीप में घसीटकर, पैलेट गन दाग कर या फिर किसी नौजवान को उठा कर जेल में ठूंस कर सुलझाया जा सकता है.

इसी नैरेटिव के समांतर सैकड़ों प्रोपगंडा मशीनरियां भी सक्रिय रहती हैं, जो फेक न्यूज और तस्वीरों का ऐसा अंबार लगाए रहती हैं. इन तस्वीरों को देख कर लगता मानो कश्मीर का हर शख्स इंडियन स्टेट से युद्ध लड़ रहा हो.

ज़ाहिर है, ऐसे घटाटोप में कश्मीर उस दुश्मन मुल्क की तरह लगने लगता है, जो भारत के वजूद को चुनौती दे रहा है. यही वजह कि जब जंग की आहटों के बीच फंसे पर्यटकों के लिए होटल वाले और आम कश्मीरी अपने घरों के दरवाज़े खोल देते हैं तो हम चौंक जाते हैं.


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साथ ही कश्मीर से बाहर उनका दर्द समझने वाले लोग भी जब कश्मीरियों के लिए अपने घरों के दरवाज़े खोलते हैं तो बड़ी खबर बनती है. ऐसा क्यों? क्योंकि हमने कश्मीरियों की बहुसंख्यक आबादी का एक स्टीरियोटाइप खड़ा कर लिया है. वो ये कि वे आज़ादी का नारा लगाते हैं. पत्थर फेंकते हैं. भारत के टुकड़े करने के सपने देखते हैं. जिहाद के लिए बंदूक उठाते हैं.

अफसोस कि ऐसा करके हम कश्मीरियों को और पीछे धकेल रहे है. ज़रूरत इस जकड़न को ढीला करने और उसके मर्म पर हाथ रखने की है. कश्मीर को आज एक भरोसे की ज़रूरत है. कश्मीरी अवाम खुद को संदेह के कटघरे में खड़े किए जाने से उकता गई है.

इस अवाम ने अपने हिस्से की इंसानियत के पुल को बरकरार रखा है. हमें भी उस पुल तक रास्ता तैयार करना होगा. उस पुल के नीचे कश्मीरियत और भारतीयता की धारा बखूबी बह रही है. वरना जंग की आहटों के बीच देश भर से से पहुंचे टूरिस्टों के लिए कश्मीरी अवाम के दिलों के दरवाज़े यूं नहीं खुलते.

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं. उन्होंने हिंदी साहित्य पर शोध किया है)

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