scorecardresearch
Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतकौमी एकता का त्यौहार है होली, हिंदू-मुस्लिम की जगह बस फिज़ा में घुले रंग ही याद रहते हैं

कौमी एकता का त्यौहार है होली, हिंदू-मुस्लिम की जगह बस फिज़ा में घुले रंग ही याद रहते हैं

लखनऊ में आज भी होरिहारे होली खेलते हुए मुस्लिम इलाकों से गुजरते हैं तो वहां उन पर इत्र छिड़का जाता और मुंह मीठा कराकर स्वागत किया जाता है.

Text Size:

इस बार होली ऐसे मनोमालिन्य के बीच आयी है, जब हमारे सारे जहां से अच्छे देश की बहुलता को बदरंग करने की कोशिशें घृणा के प्रसार का अपना मंसूबा पूरा करने में कुछ भी कमी नहीं रख रहीं. उनके कई पैरोकारों को यह तक मानना गवारा नहीं है कि होली और ईद दोनों मेल-मिलाप के ही त्योहार हैं और इस मेल-मिलाप की ही शक्ति है, जिसके बूते निरालेपन में अपना सानी न रखने वाला यह देश दहशत के हाथों बार-बार छले जाने के बावजूद न हारता है और न मनुष्यता की अवश्यंभावी जीत में अपना विश्वास गंवाता है.

‘भंग के रंग और तरंग’

लेकिन उन्हें कितना भी नागवार गुज़रे, आने वाली पीढ़ियों के भविष्य के लिए हमें प्रसिद्ध शायर सरशार सैलानी की यह बात हर हाल में गांठ बांधे रखनी होगी, ‘चमन में इख्तिलात-ए-रंगो-बू से बात बनती है, हमीं हम हैं तो क्या हम हैं, तुम्हीं तुम हो तो क्या तुम हो.’ यह भी कि होली कोई एकरंगी त्योहार नहीं है. जैसे देश के दूसरे त्योहारों के, वैसे ही होली, यहां तक कि उससे जुड़ी ठिठोलियों के भी, अनेक रंग हैं. कुछ परम्परा, आस्था व भक्ति से सने हुए तो कुछ खालिस हास-परिहास, उल्लास और शोखियों के. आप चाहें तो इन्हें ‘भंग के रंग और तरंग’ वाले भी कह लें. शौक-ए-दीदार फरमाने वाले तो कई बार यह देखकर दांतों तले उंगली दबा लेते हैं कि ब्रज के बरसाना में जाकर ये रंग लट्ठमार हो जाते हैं तो अवध पहुंचकर गंगा-जमुनी. अकारण नहीं कि इन रंगों की गिनती तब तक पूरी नहीं होती, जब तक उनमें अवध की गंगा-जमुनी तहजीब की रंगत शामिल न की जाये.

जी हां, नवाबों द्वारा पोषित अवध की इस तहजीब का जादू ही कुछ ऐसा है कि ऊंच-नीच, धर्म-जाति और अमीरी-गरीबी वगैरह की ऊंची से ऊंची दीवारें भी होली के रंगों को अपने आर-पार जाने से नहीं रोक पातीं. क्या गांव-क्या शहर, क्या गली-क्या मोहल्ले और क्या चौराहे, जलती होलिकाएं और रंगे-पुते चेहरों वाले हुड़दंग मचाते होरियारे किसी को किसी भी बिना पर होली से बेगानगी बरतने का मौका नहीं देते.

थोड़ा पीछे जाकर देखें तो अपने अनूठेपन के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध इस तहजीब की नींव अवध के तीसरे नवाब शुजाउद्दौला ने रखी थी. 19 जनवरी, 1732 को देश की राजधानी दिल्ली में जन्में और 26 जनवरी, 1775 को अपनी राजधानी फैजाबाद में अंतिम सांस लेने वाले नवाब शुजाउद्दौला को यों तो उनके अन्य अनेक ऐबों के लिए जाना जाता है, लेकिन उनमें एक बड़ी अच्छाई यह थी कि मजहबी संकीर्णताएं उन्हें छू भी नहीं गई थीं. पानीपत की तीसरी लड़ाई में उन्होंने मराठों के खिलाफ सुन्नी अफगानी सरदार अहमद शाह अब्दाली का साथ दिया था, गो कि वे खुद शिया थे. कारण यह था कि उक्त लड़ाई को मजहबी रंग दिया जा रहा था, जो उन्हें सख्त नापसन्द था.


यह भी पढ़ें: हेमंत सोरेन की चालाकी- झारखंड में भूख से मौत पर वोट लिया, अब कह रहे हैं ऐसा नहीं हुआ


1775 में शुजाउद्दौला के पुत्र आसफउद्दौला ने अवध की राजधानी फैजाबाद से लखनऊ स्थानांतरित की तो उन्होंने भी इस तहजीब का दामन नहीं छोड़ा. हर होली पर वे अपने सारे दरबारियों के साथ फूलों के रंग से खेला करते थे जिसकी परंपरा आगे चलकर नवाब वाजिद अली शाह के काल तक मजबूत बनी रही. आसफुद्दौला की बेगम शम्सुन्निसा उर्फ दुल्हन बेगम को भी, जो ‘दुल्हन फैजाबादी’ नाम से शायरी भी किया करती थीं, होली खेलने का बड़ा शौक था. प्रसंगवश, शम्सुन्निसा 1769 में फैजाबाद में आसफुद्दौला से शादी रचाकर दुल्हन बेगम बनी थीं और आसफुद्दौला की सबसे चहेती बेगम होने के कारण उनकी तूती बोलती थी.

एक बार होली पर आसफुद्दौला शीशमहल में दौलतसराय सुल्तानी पर रंग खेल रहे थे तो होरिहारों ने दुल्हन बेगम पर रंग डालने की ख्वाहिश जाहिर की. बेगम ने भी उनकी ख्वाहिश का मान रखने में कोताही नहीं की. अपनी एक कनीज़ के हाथों अपने उजले कपड़े बाहर भेज दिये और होरिहारों ने उन पर जी भरकर रंग छिड़के. फिर वे रंग सने कपडे़ बेगम के महल में ले जाये गये तो वे उन्हें पहनकर खूब उल्लसित हुईं और दिन भर उसे ही पहने घूमती रहीं.

आसफुद्दौला के बाद के नवाबों में से कई को लोग उनके होली खेलने के खास अंदाज के कारण ही जानते हैं. नवाब सआदत अली खां के जमाने में होली का यह गंगा जमुनी रंग तब और गाढ़ा हो गया जब उन्होंने होली मनाने के लिए राजकोष से धन देने की परम्परा डाली.

अंग्रेजों द्वारा 11 फरवरी, 1856 को अपदस्थ कर दिये गये नवाब वाजिद अली शाह ने होली पर कई ठुमरियां रची थीं. प्रसंगवश, कई विद्वान उन्हें ‘ठुमरी’ का जन्मदाता भी मानते हैं. उस ठुमरी को, जो अब पक्के रागों से ज्यादा प्रचलित है, लोकप्रिय करने में भी वाजिद अली शाह का बड़ा योगदान है. जानना दिलचस्प है कि अपनी नवाबी के दौर में वे रासलीला की तर्ज पर ‘रहस’ का प्रदर्शन कराते थे जिसमें वे खुद कृष्ण बनते थे और उनकी चहेती बेगमें गोपियों की भूमिका निभाती थीं.

उनके धर्म के कुछ कट्टरपंथी इसे लेकर नाक-भौं भी सिकोड़ा करते थे, लेकिन उन्होंने उन्हें कभी कान नहीं दिया. आसफुद्दौला की ही राह पर चलते और कहते रहे- हम इश्क के बन्दे हैं मजहब से नहीं वाकिफ, गर काबा हुआ तो क्या, बुतखाना हुआ तो क्या?

एक बार तो मुहर्रम का मातम भी उनको होली खेलने से नहीं रोक पाया था. जानकारों के अनुसार एक बार संयोग से होली और मुहर्रम एक ही दिन पड़ गए तो अंदेशा हुआ कि होली की खुशी और मुहर्रम के मातम में टकराव न हो जाये. इस अंदेशे के चलते लखनऊ के कई अंचलों में होरिहारों ने मोहर्रम का मातम करने वालों की भावनाओं का सम्मान करते हुए होली न खेलने का फैसला किया, तो वाजिद अली शाह ने उन्हें इस सदाशयता का ऐसा सिला दिया कि कुछ न पूछिये. उन्होंने कहा, ‘अगर हिंदू-मुसलमानों की भावनाओं का इतना सम्मान करते हैं कि उन्हें ठेस न पहुंचे, इसके लिए होली नहीं खेल रहे, तो मुसलमानों का भी फर्ज़ है कि वे हिंदुओं की भावनाओं का सम्मान करें.’

इसके बाद उन्होंने बिना देर किये एलान करा दिया कि अवध में न सिर्फ मुहर्रम के ही दिन होली खेली जाएगी, बल्कि वे खुद उसमें हिस्सा लेने पहुंचेंगे. उन्होंने इस एलान पर अमल भी किया और सबसे पहले रंग खेलकर होली की शुरुआत की. उनकी एक प्रसिद्ध ठुमरी है- मोरे कन्हैया जो आए पलट के, अबके होली मैं खेलूंगी डटके, उनके पीछे मैं चुपके से जाके, रंग दूंगी उन्हें भी लिपट के.

अंग्रेजों द्वारा उनकी बेदखली के बाद 1857 का स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ और उनके अवयस्क बेटे बिरजिस कद्र की ताजपोशी के बाद सूबे की बागडोर उनकी मां बेगम हज़रतमहल के हाथ आई, तो उन्होंने भी होली के इन गंगा-जमुनी रंगों को फीका नहीं पड़ने दिया. गोरी सत्ता द्वारा कत्लोगारत के उन दिनों में बेगम ने सारे अवधवासियों को एकता के सूत्र में जोड़े रखने के लिए जिस तरह होली, ईद, दशहरे और दीवाली के सारे आयोजनों को कौमी स्वरूप प्रदान किया, उसके लिए कवियों ने दिल खोलकर उनकी प्रशंसा की और उन्हें ‘अवध के ओज तेज की लाली’ कहा है.

यह सही है कि वक्त की मार ने अब उस होली के कई रंगों को बेरंग करके रख दिया है, लेकिन लखनऊ में आज भी होरिहारे होली खेलते हुए मुस्लिम इलाकों से गुजरते हैं तो वहां उन पर इत्र छिड़का जाता और मुंह मीठा कराकर स्वागत किया जाता है. फिर तो फिज़ा में मुहब्बत का रंग ऐसा घुलता है कि किसी को अपना हिन्दू या मुसलमान होना याद ही नहीं रह जाता.


यह भी पढ़ें: तेल की कीमतें लुढ़की, कोरोनावायरस के साथ-साथ रूस और अमेरिका की आपसी राजनीति इसके पीछे


होली से पहले वसंत पंचमी के दिन शहर के नुक्कड़ों पर होलिका दहन के लिए रेंडी के पेड़ (खंभ) गाड़े जाते और लकड़ियां जमा की जाती हैं तो भी गंगा-जमुनी तहजीब खुद को अंगड़ाइयां लेने से नहीं रोक पाती. शहर के कई इलाकों में इसका सारा जिम्मा मुस्लिम तबके के लोग ही उठाते हैं और जहां पूरा नहीं उठा पाते, उसमें हिस्सा बंटाते हैं.

लखनऊ से सटे बाराबंकी जिले में स्थित संत हाजी वारिस अली शाह की दरगाह में हिंदुओं और मुसलमानों द्वारा मिलकर जलाई और खेली जाने वाली सूफियाना मिजाज की होली के रंग भी कुछ कम निराले नहीं होते. संत हाजी वारिस अली शाह के मज़ार पर खेली जाने वाली इस होली में रंग और गुलाल ही नहीं उड़ते, मिठाइयां और पकवान भी बांटे जाते हैं. दरगाह में बसंत पंचमी के बाद से ही होली जैसा माहौल दिखाई देने लगता है.

जानकारों के अनुसार यह अवध की ही नहीं, देश की इकलौती ऐसी दरगाह है जहां होली पर जश्न मनता है. कौमी एकता गेट पर फूलों के साथ चादर का जुलूस भी निकाला जाता है जिसमें ‘जो रब है, वही राम है’ का संदेश दिया जाता है.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

share & View comments