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बुधवार, 30 अप्रैल, 2025
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परिसीमन में संख्या पर नहीं, सार्थकता पर ज़ोर जरूरी है इसलिए पेश हैं कुछ विकल्प

जिस जनगणना के आधार पर 2026 के बाद चुनाव क्षेत्रों में हेरफेर किया जाएगा उस जनगणना का कहीं अता-पता नहीं है. इसके बावजूद, परिसीमन की उम्मीद में कई संभावित विकल्पों पर चर्चा जारी है.

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पिछले लेख में हमने चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन को लेकर असंतोष के बारे में चर्चा की थी. दक्षिण के पांच राज्यों — आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, तमिलनाडु — का तर्क है कि 2026 के परिसीमन के बाद उत्तर भारत के राज्यों को लोकसभा में ज्यादा प्रतिनिधित्व हासिल हो जाएगा और दक्षिणी राज्यों का राजनीतिक प्रभाव घट जाएगा.

इन राज्यों की कुल आबादी भारत की कुल आबादी की 20 फीसदी है और ये राज्य देश की जीडीपी में 30 फीसदी का और कुल केंद्रीय टैक्स में 26 फीसदी का योगदान देते हैं, लेकिन वित्त आयोग द्वारा आवंटित फंड का केवल 16 फीसदी हिस्सा उन्हें हासिल होता है.

इसका जवाबी तर्क यह है कि संसद में इन राज्यों को ज़रूरत से ज्यादा प्रतिनिधित्व हासिल है. ‘एक व्यक्ति, एक वोट’ के सिद्धांत के विपरीत दक्षिण में चुनाव क्षेत्र का औसत आकार उत्तर भारत में चुनाव क्षेत्र के औसत आकार के केवल 60 प्रतिशत के बराबर है. चिंताजनक सवाल उठाना मान्य समाधान खोजने से ज्यादा आसान है. यहां हम कुछ उन विकल्पों की चर्चा करेंगे जिन पर पिछले कुछ महीनों में विद्वानों, मीडिया और राजनीतिक विश्लेषकों ने विचार किया है.


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अमित शाह का आश्वासन

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के आश्वासन से सीमांकन को लेकर एक शर्त तय हुई है. शाह ने यह आश्वासन दिया है कि नई व्यवस्था में “किसी भी हालत में किसी राज्य की संसदीय सीटों में कटौती नहीं होगी”. दूसरे शब्दों में, मौजूदा 543 सीटों में 1971 के बाद अगली जनगणना के बीच जनसंख्या की स्थिति में बदलाव के आधार पर फेरबदल नहीं किया जाएगा.

लेकिन जिस जनगणना के आधार पर 2026 के बाद चुनाव क्षेत्रों में हेरफेर किया जाएगा उस जनगणना का कहीं अता-पता नहीं है. इसके बावजूद, परिसीमन की उम्मीद में कई संभावित विकल्पों पर चर्चा जारी है. इनमें, महाभारत युग के गणतंत्रों और राज्यों सरीखी इकाइयों में पुनर्गठन जैसे मूलभूत परिवर्तन से लेकर लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ाने (किसी राज्य की सीटें कम किए बिना), विधानसभाओं की सीटें बढ़ाने और राज्यसभा का विस्तार (राज्यों के बीच इसकी मौजूदा सीटों के वितरण में फेरबदल किए बिना) करने जैसे सामान्य प्रस्ताव शामिल हैं.

दूसरे सुझाव ये हैं : मनी बिलों को राज्यसभा के दायरे में लाया जाए; एक सीमा तय की जाए ताकि किसी राज्य के पास लोकसभा की 10 फीसदी से ज्यादा सीटें न हों; समरूपता लाने के लिए सबसे बड़े पांच राज्यों का पुनर्गठन किया जाए; या पूर्वांचल से लेकर अवध, विदर्भ से लेकर उत्तर आंध्र और मिथिलांचल तक तमाम नए राज्यों की मांग का आकलन करने के लिए दूसरे ‘राज्य पुनर्गठन आयोग’ का गठन किया जाए.

घटती प्रजनन दर

आगे बढ़ने से पहले सुरक्षा उपाय ज़रूरी है. भारत की आबादी तेज़ी से बढ़ रही है, इस धारणा के विपरीत तथ्य यह है कि कुल प्रजनन दर (टीएफआर) 2.1 फीसदी की ‘रिपलेसमेंट’ दर से नीची है.

रवि मिश्र की किताब ‘डेमोग्राफी, रिप्रेजेंटेशन ऐंड डिलिमिटेशन : द नॉर्थ-साउथ डिवाइड’ पर एक परिचर्चा में तर्क प्रस्तुत किया गया कि जनसंख्या वृद्धि में मौजूदा जो असंतुलन है उसे आंतरिक विस्थापन से संतुलित किया जा सकता है यानी महत्वाकांक्षी जिलों से उन शहरों की ओर विस्थापन करवाया जा सकता है जहां तेज़ आर्थिक वृद्धि हो रही है. रेल और रोड की बेहतर सुविधाओं के कारण भारत का श्रमिक बाज़ार ज्यादा एकजुट हो रहा है और कुशल कामगारों की पूरे देश में मांग बढ़ी है.

75 राज्यों का क्रांतिकारी विचार

एक क्रांतिकारी विचार भारतीय विज्ञान संस्थान के प्रोफेसर और ‘स्ट्रक्चरल केमिस्ट’ गौतम देसीराजू की ओर से आया है. उनका प्रस्ताव है कि परिसीमन पर बहस का लाभ उठाते हुए भारत को 75 राज्यों में पुनर्गठित करने पर विचार किया जाना चाहिए, जिसमें हर एक राज्य की आबादी 2-3 करोड़ के बीच हो और वह विकास, संस्कृति और भाषा के मामलों में समान आकांक्षाएं रखते हों.

लेकिन भारी समर्थन के बिना, इस तरह के मूलभूत परिवर्तन केवल प्रशासनिक सुविधा के आधार पर कठिन हैं. देसीराजू का यह भी कहना है कि मुगलों और ईस्ट इंडिया कंपनी से पहले भारत में राजस्व उगाही, प्रशासन और न्याय की व्यवस्थाएं काफी विकेंद्रित थीं.

लोकसभा सीटों की स्थिर संख्या, विधानसभाओं की सीटें बढ़ाना

एक विकल्प यह है कि 2047 तक के लिए लोकसभा सीटों की संख्या स्थिर कर दें और विधानसभाओं की सीटें बढ़ाएं. इससे दो संभावनाएं उभरेंगी. राज्यसभा की सीटों की संख्या 250 से बढ़ाकर 400 करें ताकि संघीय मसलों पर बेहतर चर्चा हो. दूसरे, 2047 तक, जब सभी क्षेत्रों में प्रजनन दर स्थिर हो जाएगी तब संसदीय चुनाव क्षेत्रों के पुनर्गठन पर कम विवाद होगा.

इस बीच के वक्त का इस्तेमाल वित्त आयोग के तहत संसाधन के वितरण की व्यवस्था को ज्यादा पारदर्शी बनाने में किया जा सकता है.

बड़े राज्यों का पुनर्गठन

एक सुझाव यह भी है कि सबसे बड़े पांच राज्यों को छोटी, बेहतर शासन वाली इकाइयों में पुनर्गठित किया जा सकता है. आबादी के लिहाज़ से सबसे बड़े 10 राज्यों के विश्लेषण से ज़ाहिर होता है कि पुनर्गठित लोकसभा में उत्तर प्रदेश का हिस्सा 14.73 फीसदी से बढ़कर 16.93 फीसदी के बराबर, महाराष्ट्र का 8.84 फीसदी से बढ़कर 9.12 फीसदी, बिहार का 7.37 फीसदी से बढ़कर 9.02 फीसदी, मध्य प्रदेश का 5.34 फीसदी से बढ़कर 6.2 फीसदी, राजस्थान का 4.6 फीसदी से बढ़कर 5.81 फीसदी, और गुजरात का 4.79 फीसदी से बढ़कर 5.12 फीसदी हो जाएगा.

घाटा पाने वालों में प्रमुख होंगे पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश, जिनके हिस्से घट जाएंगे. बिहार के हिस्से में सबसे ज्यादा वृद्धि होगी, तो तमिलनाडु के हिस्से में सबसे ज्यादा गिरावट आएगी.

मायावती के दूसरे कार्यकाल के दौरान उत्तर प्रदेश विधानसभा ने तो इन चार नए राज्यों के गठन की वकालत भी की थी : पूर्वांचल, पश्चिम प्रदेश, अवध प्रदेश, और बुंदेलखंड. महाराष्ट्र में विदर्भ, बिहार में मिथिला, मध्य प्रदेश में विंध्याचल, राजस्थान में मेवाड़ की मांग लंबे समय से की जाती रही है. एक अधिक सूक्ष्म विकल्प दूसरे ‘राज्य पुनर्गठन आयोग’ (एसआरसी) के गठन का है ताकि ऐसी मांगों का मूल्यांकन प्रशासनिक और वित्तीय कसौटी के आधार किया जा सके.


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पणिक्कर फॉर्मूला

एक दिलचस्प सुझाव प्रथम एसआरसी के सदस्य के.एम. पणिक्कर ने दिया था, जिन्होंने उत्तर प्रदेश के असंगत प्रतिनिधित्व पर आपत्ति दर्ज की थी. उन्होंने बिस्मार्क की जर्मनी का उदाहरण दिया था, जहां प्रूशिया की आबादी और आर्थिक प्रभाव के बावजूद उसके वर्चस्व में कटौती कर दी गई थी.
संजय बारू ने हाल में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित अपने लेख में इस विचार का समर्थन करते हुए सुझाव दिया है कि किसी भी राज्य से संसद में भेजे जाने वाले सांसदों की संख्या संसद की कुल सदस्यता से 10 फीसदी से अधिक न हो.

राज्यसभा की नई तस्वीर

एक इस सुझाव पर भी ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है कि राज्यसभा में किसी राज्य का प्रतिनिधित्व केंद्रीय करों में उसके योगदान से तय किया जाना चाहिए. इससे जनसंख्याबल और आर्थिक योगदान के बीच बेहतर संतुलन स्थापित हो सकेगा.

इसी के साथ जुड़ा है राज्यसभा की सदस्यता के लिए संबंधित राज्य का निवासी होने की शर्त को फिर से लागू करने का विचार. असम से मनमोहन सिंह के चुनाव को संभव बनाने के लिए इस शर्त से छूट दी गई थी, लेकिन इसने पार्टी नेतृत्व को स्थानीय राजनीतिक भावनाओं की अनदेखी करने की छूट भी प्रदान की.

ज़मीनी लोकतंत्र को मजबूती

लेकिन भारतीय लोकतंत्र को मजबूती देने वाला सबसे निर्णायक सुधार कुछ और है— यह स्थानीय संस्थाओं को ताकतवर बनाने में निहित है. पंनागरिकों के साथ सबसे ज्यादा संपर्क में रहने वाली संस्थाओं—पंचायत, जिला परिषद, नगरपालिका ज्यादा वित्तीय तथा प्रशासनिक स्वायत्तता देने की जरूरत है.

हालांकि 73वें और 74वें संविधान संशोधनों ने 11वीं अनुसूची में दर्ज 29 मामलों को स्थानीय निकायों को सौंपने की सिफारिश की है, लेकिन अधिकतर राज्यों ने इसका क्लियर हस्तांतरण नहीं होने दिया. इन सुधारों को शब्दशः और उनकी पूरी भावना के अनुरूप लागू करने से शासन की कई दैनंदिन समस्याओं का समाधान हो सकता है.

बड़े सदन, छोटी बैठकें?

लेख खत्म करने से पहले एक बुनियादी सवाल ज़रूर पूछा जाना चाहिए : अगर संसद के अधिवेशन छोटे ही करने हैं, अहम विधेयकों को पर्याप्त चर्चा, प्रवर समिति द्वारा समीक्षा के बिना ज़ोर-ज़बरदस्ती से ही पास करवाना है, सत्ता दल और विपक्ष का काम संसदीय कार्रवाइयों को अगर ‘हां’ और ‘ना’ के ध्वनिमत में ही तब्दील करना रह गया है, तब लोकसभा के पुनर्गठन का क्या मतलब है?

अगर संसद सार्थक ढंग से काम नहीं करती, तो चुनावक्षेत्र के आकार से क्या फर्क पड़ेगा?

(भारत के परिसीमन विवाद पर दो-पार्ट की सीरीज़ का यह दूसरा लेख है.)

(संजीव चोपड़ा पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और वैली ऑफ वर्ड्स के फेस्टिवल के निदेशक रहे हैं. हाल तक वे लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के निदेशक थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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