‘इंडिया’ (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इंक्लूसिव अलायंस) नाम की छतरी के नीचे जो विपक्षी दल जमा हुए हैं वे अपनी तीसरी बैठक अगले सप्ताह करने जा रहे हैं. अगर वे सावधानी से कदम नहीं बढ़ाते हैं तो वे उसी रास्ते पर दोबारा चल पड़ेंगे, जिस रास्ते पर 1971 में चले थे. उस समय भी विपक्षी गठबंधन हुआ था और इसने ‘इंदिरा हटाओ’ के नारे के साथ प्रधानमंत्री का तख़्ता पलटने की कोशिश की थी, लेकिन इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का अधिक आकर्षक नारा देकर इसका मुक़ाबला किया था. वे क्यों विजयी रहीं, यह समझना आसान है.
आज विपक्षी दल ‘मोदी हटाओ’ का नारा दे रहे हैं, जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘अमृत काल’ की बात कर रहे हैं, जो तब के ‘गरीबी हटाओ’ जितना ही उम्मीद जगाने वाला नारा है. बेशक, मुक़ाबला अभी दूर है लेकिन उलझन पैदा करने वाले नाम के साथ ‘इंडिया’ ने कुछ बुनियादी बातों को समेटने की कोशिश की है. अगला कदम यह साफ करने का होना चाहिए कि मतदाता मोदी को हटाने के उसके लक्ष्य का समर्थन क्यों करें, और यह गठबंधन उनके लिए बेहतर दांव क्यों साबित हो सकता है.
उम्मीद की जाती है कि ‘इंडिया’ 2019 वाले कांग्रेसी चुनाव अभियान को नहीं दोहराएगी. उस अभियान में राहुल गांधी ने व्यक्तिगत भ्रष्टाचार के आरोप उछाले थे, और वह बहुत असरदार नहीं साबित हुआ था. वह विरोधी वोटों की भी उम्मीद नहीं कर सकती (जैसा कि इमर्जेंसी के बाद 1977 में हुए चुनाव में, और कुछ हद तक 2014 के चुनाव में कारगर रहा था), क्योंकि मोदी की लोकप्रियता अभी भी ऊंचे स्तर पर दिख रही है.
ताकतवर कार्यपालिका को ज्यादा जवाबदेह बनाने वाली संस्थाओं को कमजोर करने की मोदी की दबंग शैली के लिए कई लोग बेशक उनके घोर विरोधी हैं, लेकिन इस आधार पर मतदान करने वालों की संख्या कम ही होगी और उनमें से कई लोग यह भी सोचेंगे कि सत्ता का दुरुपयोग करने में कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल पीछे नहीं रहे हैं.
विपक्ष अगर जीतना चाहता है तो उसके नये गठबंधन को सरकार की आलोचना के सिवा भी बहुत कुछ करना पड़ेगा, उसे स्पष्ट रूप से बेहतर विकल्प प्रस्तुत करना होगा. लेकिन यह आसान नहीं होगा. सबसे पहली बात तो यह है कि मोदी का सामना करने के लिए उसके पास कोई नेता नहीं है. यह एक अहम वजह है कि भाजपा राज्यों के चुनावों की तुलना में राष्ट्रीय चुनाव में लगातार बेहतर प्रदर्शन करती रही है.
विपक्ष के पास यह चुनाव लड़ने के लिए संसाधन की भी सीमा होगी और वह शासक दल के मुक़ाबले कम संगठित चुनाव अभियान चला सकेगा. वैसे, मतदाताओं का मिजाज उखड़ गया तो धन-बल से उसे शांत नहीं किया जा सकता. लेकिन उनका मिजाज क्यों उखड़ेगा? महंगाई और बेरोजगारी अपनी भूमिका निभा सकती हैं. उन्हें बेअसर करने के लिए मोदी भाजपा के मूल एजेंडे को पूरा करने का भी राग अलाप सकते हैं— अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त करना, और अपने जनाधार को संतुष्ट करने के लिए अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण की समाप्ति का हवाला दे सकते हैं.
वे तथ्यों और अतिशयोक्तियों का घालमेल करके दुनिया में भारत की छवि चमका कर राष्ट्रीय गौरव में वृद्धि करने के दावे कर सकते हैं, हालांकि भारत में मानवाधिकारों के रेकॉर्ड को लेकर विदेश में आलोचना होती रही है. मोदी राष्ट्रीय सुरक्षा के सवाल पर भी ज़ोर दे सकते हैं (बशर्ते हम चीन को फिलहाल भूल सकें), और भारत को तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने की राह पर लाने के दावे भी कर सकते हैं. इसके अलावा डिजिटाइजेशन के कदमों, जनकल्याण के कार्यक्रमों और विकास के जाहिर संकेतों, देश के भौतिक इन्फ्रास्ट्रक्चर के निर्माण और तीव्र गति वाली इंटर-सिटी ट्रेनें शुरू करने की मिशालें दे सकते हैं.
नोटबंदी और 2020 के कोविड लॉकडाउन की बदनुमा यादें फीकी पड़ रही हैं, और कई मतदाता उपरोक्त रेकॉर्ड को देखकर मोदी को तीसरी बार भी जिता सकते हैं.
लेकिन अभी समय है और विपक्षी गठबंधन अपनी जीत के बाद लागू किए जाने वाले एक सर्वसम्मत कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार कर सकता है. इसमें कई तरह की मुफ्त सुविधाएं देने के वादे किए जा सकते हैं, जैसा कि कांग्रेस ने पिछले दिनों कर्नाटक चुनाव में किया. आम आदमी पार्टी का रुख भी ऐसा ही रहा है.
गठबंधन अंग्रेजी के ‘के’ अक्षर आकार की आर्थिक वृद्धि में पिछड़ गए लोगों की दशा को भी उछाल सकता है, जो 2004 में वाजपेयी सरकार के खिलाफ कारगर रहा था. लेकिन जनकल्याणकारी और लोकलुभावनवादी मुद्दों को उठाकर वह बाजार केंद्रित आर्थिक सुधारों से अलग रास्ते पर जा सकता है.
असली खतरा यह है कि यह मूल धारणा हल्की साबित हो सकती है कि विपक्ष की ओर से खड़े उम्मीदवार को मिले वोट उसके घटक दलों के कुल वोट के बराबर होंगे.
(संपादन- इन्द्रजीत)
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