पाकिस्तान इन दिनों डेंगू के प्रकोप से जूझ रहा है. 10,000 हज़ार से ज्यादा लोग इसकी चपेट में हैं और अब तक इसने 20 लोगों की ज़िंदगी छीन ली है. वैसे, ये सरकारी आंकड़े हैं इसलिए बड़ी आसानी से यह माना जा सकता है कि डेंगू से बीमार या और मारे गए लोगों की तादात इससे कहीं ज्यादा होगी. अपनी मशहूरियत के मुताबिक इमरान खान की सरकार इस महामारी से निपटने में नाकाम रही है क्योंकि डेंगू का सीजन शुरू होने से पहले उसने इसका सामना करने की तैयारी नहीं की थी.
अब, सरकार कह रही है कि डेंगू के कारण हालात बिगड़े हैं तो इसमें उसकी गलती नहीं है और उसे दोषी नहीं ठहराया जा सकता. अगर पाकिस्तान की सड़कों पर पड़े गड्ढों में पानी जमता है, गटर का कचरा बाहर आ रहा है, तमाम इलाकों में सफाई और कूड़ा उठाने के इंतजाम नहीं हैं, तो लोग अपने नेताओं को नहीं तो किसे दोषी मानें?
आखिर, इमरान ने ही हमें सिखाया था कि जब काम ठीक से न हो रहा हो तो समझ जाइए कि इसके लिए आपके भ्रष्ट नेता ही जिम्मेदार हैं. उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) के नेता नवाज़ शरीफ और शाहबाज़ शरीफ को ‘डेंगू ब्रदर्स’ कहा करते थे. लेकिन 2017 में जब खैबर पख्तूनख्वा में डेंगू फैला था तब इमरान ने इसका सबसे उम्दा उपाय यह निकाला— जब सर्दियां शुरू हो जाएंगी तो डेंगू के मामले अपनेआप खत्म हो जाएंगे. क्या बढ़िया उपाय था! हमें तो इस बात की खुशी है कि वजीरे आज़म ने यह नहीं सुझाया कि पाकिस्तानी लोग रोज 30 मिनट खड़े रहें तो डेंगू काबू में आ जाएगा.
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वैसे भी, वजीरे आज़म का ध्यान हमेशा डेंगू फैलने पर नहीं लगा रह सकता था. उनके ‘मिशन कश्मीर’ पर इतना कुछ दांव पर लगा है कि डेंगू शब्द बोलने वाले को उनके खिलाफ साजिश करने वाला मान लिया जा सकता था, जबकि वे संयुक्त राष्ट्र में भाषण देने जा रहे थे.
इमरान खान और उनकी सरकार को वह नेमत हासिल है जिसे ‘पॉज़िटिव रिपोर्टिंग’ कहा जाता है. इससे ‘ऑल इज़ वेल’ (सब ठीक है!) की आवाज़ गूंजती है. इमरान खान सरकार के पहले साल में मीडिया पर भारी सेंसरशिप के चलते सरकार की नाकाबिलियत और दिशाहीनता की, जिसके चलते कई फैसले पलटे गए, की ओर से मुंह फेरती रही.
सब ठीक है!
इसलिए, सब ठीक है! मुद्रास्फीति 2018 में 10.49 प्रतिशत पर पहुंच गई, लेकिन सब ठीक है! पिछले वित्त वर्ष में 10 लाख लोग बेरोजगार हो गए, और 40 लाख लोग गरीबी रेखा के नीचे चले गए, लेकिन सब ठीक है! होंगे होंगे. आखिर विपक्ष इतना बेजान क्यों है? पाकिस्तान में इस साल पोलियो के 66 तो पिछले साल 12 मामले सामने आए थे, मगर सरकार के पास इस मसले के लिए कोई योजना नहीं है, न ही वह पोलियो की दवा देने वाले कार्यकर्ताओं या हेल्थ वर्करों पर लोगों के ‘शक’ के कारण होने वाले हमलों को रोक सकी है. लेकिन, सब ठीक है!
हमेशा ऐसी हालत नहीं रही. जब इमरान खान विपक्ष में थे, हमें कहा जाता था कि पाकिस्तान में सब ठीक नहीं है. विधायिका से लेकर कार्यपालिका और न्यायपालिका तक सब गलत थी. अब अचानक सब कुछ रास्ते पर आ गया है, इतना कि वजीरे आज़म को लगने लगा है कि वे ‘फिलहाल तो पाकिस्तान से ज्यादा हिंदुस्तान की फिक्र कर सकते’ हैं. हां, यह बिलकुल सच है. तुम किस्मत वाले हो हिंदुस्तान! तुम्हें एक ऐसा नेता मिल सकता है जो तुम्हारी खातिर तमाम मसलों को भुला दे सकता है. आलोचकों ने वजीरे आज़म को सलाह दी है कि ‘पहले तो वे अपने मुल्क की फिक्र करें.’ लेकिन जब सब ठीक है तो फिक्र क्यों करें? हर जगह हर चीज़ दुरुस्त है, सिवाय कश्मीर के, क्योंकि कश्मीर अभी तक पाकिस्तान का हिस्सा नहीं बना है.
वे सिर्फ पाकिस्तान के पीएम नहीं रहे
पाकिस्तान के वजीरे आज़म के फर्ज़ तो इमरान पूरी कर चुके. अब वे कश्मीर के दूत हैं, सऊदी अरब-ईरान-अमेरिका के बीच के झगड़े के सुलहकर्ता हैं, और एक ऐसे राजनेता हैं जिसकी तरफ पूरी दुनिया बड़ी उम्मीद से आंखें उठाकर देख रही है. वे कब इनमें से किस भूमिका में आ जाएंगे यह कहना मुश्किल है. पाकिस्तान आज अपने तीन पड़ोसियों— हिंदुस्तान, अफगानिस्तान और ईरान— के साथ जिन मसलों को लेकर उलझा है उसे देखते हुए एक विश्व-नेता के तौर पर उनके उभरने की संभावनाएं बहुत बेहतर तो नहीं दिखती हैं. पिछले साल उन्होंने सऊदी अरब और यमन के झगड़े को सुलझाने की कोशिश की थी. मगर यह तो पिछले साल की बात है; आज तो पीएम खान के सामने नए मौके हैं. यह और बात है कि वे अपनी संसद में विपक्षी नेताओं से हाथ तक नहीं मिलाते, पाकिस्तान के मसलों को सुलझाना या दूसरे मुल्कों के बीच के झगड़ों को निबटाना तो दूर की बात रही.
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हमें कहा जाता है कि हमें फख्र होना चाहिए कि हमारे वजीरे आज़म कश्मीर का मुद्दा संयुक्त राष्ट्र में इस तरह उठाने जा रहे हैं जिस तरह अब तक किसी पाकिस्तानी नेता नहीं उठाया. बस हमें यह नहीं याद दिलाया जाता कि हरेक पाकिस्तानी नेता संयुक्त राष्ट्र का रस्मी दौरा करने से पहले किस तरह एक ही बात हमें सुनाता रहा है. खान से पहले बेनज़ीर भुट्टो रही हों या नवाज़ शरीफ या आसिफ अली ज़रदारी, सबने वहां अपने भाषण में कश्मीर और फिलिस्तीन के मुद्दे को उठाया, और खान के बाद आने वाले तमाम नेता भी यही करते रहेंगे. यह मौका हरेक पाकिस्तानी नेता को मिलता ही है. लेकिन कोई पाकिस्तानी नेता वहां यह नहीं बताता कि उसकी योजना क्या है. क्योंकि कोई योजना है ही नहीं. अंततः वे बस खाली हाथ घर लौट आते हैं, जैसे इमरान खान लौट आए हैं.
ऐसा लगता है कि हमें अब एक ऐसे वजीरे आज़म को कबूल करना ही पड़ेगा, जो नया पाकिस्तान बनाने में कामयाब होने के बाद विश्व-नेता बनने में मशरूफ़ हैं. इसलिए, मुल्क में डेंगू के मरीजों को समझ लेना चाहिए कि उनके प्लेटलेटों की संख्या चाहे कितनी भी बढ़ती हो, उन्हें अपने भरोसे ही इससे निपटना है.
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(लेखिका पाकिस्तान में एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. ये इनके निजी विचार हैं. इनका ट्विटर हैंडल है- @nailainayat.)