scorecardresearch
Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतमहात्मा गांधी ने भारत को क्या दिया? आजादी की लड़ाई का सबसे बड़ा हथियार और संघर्ष का सबसे महान तरीका

महात्मा गांधी ने भारत को क्या दिया? आजादी की लड़ाई का सबसे बड़ा हथियार और संघर्ष का सबसे महान तरीका

गांधी ने देश को शांतिपूर्ण आंदोलन की ऐसी विरासत दी है जिसके नैतिक बल के आगे बंदूकें तक कमजोर साबित हो जाती हैं. महात्मा गांधी मजबूरी का नहीं बल्कि मजबूती का नाम थे.

Text Size:

महात्मा गांधी ने भारत को क्या दिया? इस सवाल के अनगिनत जवाब हो सकते हैं. वह सिर्फ आज़ादी की लड़ाई तक सीमित नहीं थे बल्कि इससे भी कहीं बढ़कर भारतीय विचारों और आदर्शों से दुनिया को रूबरू कराने वाले भारतीय सभ्यता के अग्रदूत थे. उन्होंने न सिर्फ संघर्ष के खास अहिंसक तरीके के नैतिक बल से भारतीय जनमानस को परिचित कराया बल्कि उनके द्वारा सामाजिक उत्थान के लिए चलाए गए रचनात्मक कार्यक्रमों ने तत्कालीन समय के सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्य के साथ-साथ भारत के भविष्य पर भी अपना व्यापक प्रभाव छोड़ा.

बिखरे आंदोलन को दिशा देने वाले महात्मा गांधी, आजादी के संघर्ष की मुख्य कड़ी थे-

1915 में जब महात्मा गांधी अफ्रीका से वापस भारत लौटे तब कांग्रेस नरम दल और गरम दल में बंटी हुई थी. 1907 के सूरत अधिवेशन के दौरान कांग्रेस में हुई टूट के बाद से जिस ब्रिटिश विरोधी आंदोलन ने बंगाल विभाजन के बाद गति पकड़ी थी वो पूरी तरह बिखर चुका था. बाल गंगाधर तिलक के जेल जाने के बाद एक ऐसी आवाज़ भी दब गई जो उस वक़्त आंदोलन की सबसे मुखर आवाज़ थी और फिर शुरू हुआ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का वो दौर जो लगभग नेतृत्व विहीन था. इस बीच तमाम क्रांतिकारी घटनाओं को तो अंजाम दिया गया लेकिन दुनिया की महानतम ब्रिटिश शक्ति के सामने संघर्ष का यह प्रयास हिम्मत से भरा होने के बावजूद इतना व्यापक या ताकतवर नहीं था जो भारत में ब्रिटिश सत्ता को बड़ी चुनौती दे पाए.

आजादी की लड़ाई में गांधी के शामिल होने तक आम जनमानस दूर ही था

आंदोलन में खालीपन का यह दौर तब तक चला जब तक जेल से बाहर आए तिलक ने एनी बेसेंट के साथ 1914 से देशभर में होमरूल आंदोलन शुरू नहीं कर दिया. इस आंदोलन के चरम के दौर में ही महात्मा गांधी भारत आए थे. उनके आने से पहले तक भी ब्रिटिश का प्रतिरोध होता रहा था लेकिन एकजुटता के अभाव, महिलाओं और आम जनमानस के आंदोलन से अलगाव के चलते यह प्रतिरोध कम लोगों तक सीमित था.

कांग्रेस की स्थापना के बाद सिर्फ स्वदेशी और बंगाल विभाजन विरोधी आंदोलन को छोड़ दें तो ऐसा कोई भी ब्रिटिश विरोधी प्रतिरोध नहीं दिखाई देता जिसमें आम जनमानस की व्यापक भागीदारी रही हो. इसके अलावा इनका क्षेत्र भी सीमित था. दूसरी ओर होमरूल आंदोलन का क्षेत्र तो व्यापक था लेकिन आम जनमानस की बड़ी भागीदारी इसमें भी पर्याप्त नहीं थी.

भारत आकर गांधी जी ने साल 1917 में पहली बार जब चंपारण में सत्याग्रह के जरिए प्रथम सविनय अवज्ञा, अहमदाबाद मिल आंदोलन (1918) के ज़रिए प्रथम भूख हड़ताल और खेड़ा सत्याग्रह (1918 ) के ज़रिए प्रथम असहयोग के जो सफल प्रयोग किए उसके चलते भारत के आमजनमानस का जुड़ाव भी स्वतंत्रता आंदोलन से हुआ और महात्मा गांधी इन तीन सत्याग्रहों के बाद वह एक ऐसे नेता के तौर पर उभरे जिसे आमजनमानस ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का अगुवा और निर्विरोध नेता मान लिया. यह महात्मा गांधी के करिश्माई नेतृत्व और सोच का ही नतीजा था कि 1857 के विद्रोह के बाद से पहली बार मुसलमानों की भी भागीदारी ब्रिटिश के खिलाफ भारतीय आंदोलन में इतनी ज्यादा व्यापक दिखाई दी. हिंदू-मुस्लिम एकता का यह साथ शुरू तो खिलाफत के मुद्दे पर हुआ था लेकिन इसका मुख्य उद्देश्य भारत से ब्रिटिश के पैर उखाड़ना ही था और जब महात्मा गांधी ने 1 अगस्त 1920 से देशभर में असहयोग आंदोलन शुरू किया तो यह पहली बार था कि आंदोलन में हिंदू-मुसलमान, बच्चे बूढ़े, औरतों, किसान, शहरी, ग्रामीण, दस्तकार, बुद्धजीवी, छात्र, गरीब, अमीर, व्यवसायी, कर्मचारी इत्यादि हर वर्ग ने आंदोलन में भाग लिया और ब्रिटिश हुक़ूमत को चुनौती दी.

असल में गांधी जी ने राष्ट्रीय आंदोलन में वर्ग संघर्ष के बजाय वर्ग-समन्वय को प्राथमिकता दी थी, जिसका नतीजा था कि उनके साथ पूरा हिंदुस्तान खड़ा था. महात्मा गांधी के नेतृत्व ने अंग्रेजों की उस भ्रांत धारणा को तोड़ दिया कि भारतीयों में चेतना का अभाव है. इस तरह से न सिर्फ गांधी जी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे बड़े नेता बन गए बल्कि उन्होंने आंदोलन को एकजुट कर सत्य, अहिंसा और नैतिक बल की ऐसी ताकत से भारतीयों को रूबरू कराया जिसका तोड़ साम्राज्यवादी ब्रिटिश ताकत के पास नहीं था. अपनी जिंदगी के आखिरी समय तक वह अपने इन्हीं सिद्धांतों के साथ ब्रिटिश से संघर्ष करते रहे.


यह भी पढ़ें: ‘महात्मा’ को यूरोपियन शिष्टाचार का पाठ पढ़ाने वाले वो दोस्त जो सुर्खियां नहीं बटोर पाए


ब्रिटिशों को भगाने में पूरा आंदोलन महात्मा गांधी की अगुवाई में हुआ

असहयोग आंदोलन के बाद सविनय अवज्ञा आंदोलन हो या उसके बाद फिर से कांग्रेस में हुआ विवाद, भारत छोड़ो आंदोलन से लेकर अंग्रेजों के भारत छोड़ने तक पूरा भारतीय आंदोलन मुख्य रूप से महात्मा गांधी की अगुवाई में ही हुआ. पूना पैक्ट के बाद कुछ साल तक राजनीतिक गतिविधियों में उनकी सीधी उपस्थिति भले ही कुछ कम हो गई क्योंकि वह हरिजन उत्थान जैसे रचनात्मक कामों में लगे हुए थे लेकिन इस वक्त भी राष्ट्रीय आंदोलन पर उन्हीं की छाप थी. आंदोलन के बीच तमाम आपसी मनमुटावों के बीच भी महात्मा गांधी एक ऐसी कड़ी थे जिन्होंने लोगों को जोड़े रखा और बिखराव नहीं होने दिया.

प्रतिरोध की सबसे ताकतवर तरीका: अहिंसा

अहिंसा की सोच हमें विरासत में मिली है. बुद्ध, महावीर जैसे धर्म प्रवर्तक और अशोक जैसे महान शासकों ने अहिंसा और नैतिकता की शिक्षा दी. दिलचस्प बात ये है कि आधुनिक विश्व जबकि प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध का विध्वंस झेल रहा था तब भारत में अहिंसा को अपना हथियार बनाकर आंदोलन चलाया जा रहा था. गांधी के आंदोलन करने की यही विशेषता भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष को दुनिया के महानतम संघर्ष में शामिल करती है. गांधी के अहिंसक प्रतिरोध ने अंग्रेजों को ऐसी दुविधा में डाल दिया था कि उनके पास इसका कोई जवाब नहीं था. अंग्रेजों के हथियारों से सुसज्जित सैन्य बल के आगे अहिंसक विरोध कर गांधी ने उनके समस्त विकास को ही चुनौती दे दी थी. मुकाबला दोनों सभ्यताओं के उपकरणों के बीच था जिसमें गांधी की अहिंसा को जीत मिली. अहिंसा के प्रति महात्मा गांधी का अटूट विश्वास था. अपने गुरु गोपाल कृष्ण गोखले के विचारों को आत्मसात करते हुए महात्मा गांधी का भी मानना था कि ‘जितना महान साध्य है उतना ही महान साधन भी होना चाहिए’. यानी कि देश की आजादी एक पवित्र विचार है और उसे पाने के लिए भी उतने पवित्र तरीकों का उपयोग किया जाए जिससे देश का स्वतंत्रता आंदोलन दुनिया के लिए मिसाल बने.

अंग्रेजों को भगाने में ही नहीं, भारतीय संस्कृति की बुराई में मिटाने में भी लगे

गांधी सिर्फ ब्रिटिश सत्ता से संघर्ष तक सीमित नहीं थे, बल्कि उन्होंने भारतीय सभ्यता को श्रेष्ठता के स्तर तक पहुंचाने के लिए भी महान प्रयास किए. उन्होंने स्वदेशी और चरखे का प्रचार किया, हरिजन उद्धार के लिए आंदोलन चलाया, सालों साल जेल में बिताए, कई सत्याग्रह किए, भारत छोड़ो आंदोलन चलाया और अंग्रेजों के लिए असंभव कर दिया कि वे भारत को अपने अधीन कर सकें. लेकिन इन सभी कामों से भी महान काम उन्होंने किया कि भारत की पवित्र सोच और नैतिक शक्ति के प्रति दुनिया में सम्मान और श्रद्धा का भाव उत्पन्न कर दिया. अगर हम गहराई से देखें तो महात्मा गांधी ने न केवल आजादी की लड़ाई लड़ी बल्कि उन्होंने भारत में व्याप्त रूढ़िवादी और बुरे सामाजिक पहलुओं पर काम करके भारतीय सभ्यता को श्रेष्ठ बनाने की भी कोशिश की. उन्होंने भारतीय सभ्यता के अलग-अलग पक्षों को सम्पूर्णता में प्रस्तुत किया.

समग्र दृष्टि से देखें तो गांधी एक ऐसा आजाद भारत देखना चाहते थे जो वास्तव में ‘भारतीय’ हो. जिसका अर्थ केवल अंग्रेजों का भारत से चला जाना नहीं था बल्कि भारत का, भारत के रूप में विकसित हो जाना था. भारतीय सभ्यता के प्रति गांधी का झुकाव उपनिवेशवाद के उस वैचारिक आधार को चुनौती देने के लिए थे जिसे रुडयार्ड किपलिंग द्वारा गढ़े मुहावरे ‘श्वेत नस्ल का भार (व्हाइट मेन्स बर्डन)’ के जरिए उपनिवेश स्थापित करने का वैचारिक आधार प्रदान करने की कोशिश की गई है, जिसका सार है कि चूंकि काले लोग ‘असभ्य’ होते हैं इसलिए गोरों की ये जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने ‘सुशासन’ के जरिए उन्हें सभ्य बनाएं. महात्मा गांधी ने इसी वैचारिक श्रेष्ठता को चुनौती दी ताकि अंग्रेज का भारत पर शासन करने के लिए अपने स्वघोषित तथाकथित सुधारवादी औचित्य को आधार प्रदान करने में सफल न हो जाएं. असल में इस तरह से गांधी जी ने उनका पर्दाफाश भी किया कि किस तरह से वो हमारे देश को गुलाम बनाने के लिए हमें ही असभ्य करार दे रहे हैं.

भारतीय कुरीतियों को मिटाने में गांधी ने लंबा संघर्ष किया

हालांकि, ऐसा नहीं है कि भारतीय सभ्यता की श्रेष्ठता स्थापित करने के क्रम में गांधी ने देश में फैली कुरीतियों और बुराइयों का समर्थन किया हो, बल्कि उन्होंने इन बुराइयों को खत्म करने के लिए भी लंबा संघर्ष किया और अपने प्रयासों से भारतीय सभ्यता को बेहतर बनाने के लिए जरूरी सुधार भी किए. विरासत में दिया शांतिपूर्ण आंदोलन का महान तरीका-
किसी देश का निर्माण किन विचारों और किस तरह के संघर्ष के आधार पर हुआ है वह उस देश का भविष्य भी तय करता है. महात्मा गांधी का अनशन, धरना, शांतिपूर्ण विरोध, हड़ताल और नैतिक बल जैसे संघर्ष के ऐसे अहिंसक लेकिन बहुत ताकतवर तरीकों से स्वतंत्रता आंदोलन में अंग्रेजों से संघर्ष किया जिनका कोई तोड़ उनके पास नहीं था. उस वक्त तक मानवीय मूल्यों को लेकर भी दुनिया में विचार मजबूत हो रहे थे ऐसे में खुद ब्रिटेन जो खुद मानवता का पैरोकार होने का दावा ठोकता था वह अगर अपनी ताकत के बल पर अहिंसक आंदोलन को कुचलता तो तत्कालीन विश्व के सामने उसका दोहरा चरित्र भी सामने आने का उसे डर था. उनके इसी डर ने हिंदुस्तानियों को अहिंसक आंदोलन की ताकत का अहसास कराया.

आज भी हमारे देश में लोग अपनी मांगों को लेकर उतरते हैं तो अपवादों को छोड़कर आमतौर पर शांतिपूर्ण मार्च, धरने और हड़तालों के जरिए सरकार पर दबाव बनाते हैं. अगर हाल समय में भी देखें तो अब से ठीक एक दशक पहले अन्ना हजारे ने महात्मा गांधी की तरह अहिंसक आंदोलन कर देश में सत्ता परिवर्तन की लहर चला दी. हाल ही में किसानों के मुद्दे पर हुए लंबे शांतिपूर्ण आंदोलन ने सरकार को किसान बिल संबंधी अपने फैसले को वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया. गांधी ने देश को शांतिपूर्ण आंदोलन की ऐसी विरासत दी है जिसके नैतिक बल के आगे बंदूकें तक कमजोर साबित हो जाती हैं. महात्मा गांधी मजबूरी का नहीं बल्कि मजबूती का नाम थे.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


यह भी पढ़ें: महात्मा गांधी का अंतिम जन्मदिन, बापू ने क्यों कहा था- वह अब जीना नहीं चाहते, कोई उनकी सुनता ही नहीं


 

share & View comments