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Wednesday, 20 November, 2024
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ईरान-सऊदी शांति समझौते में चीन की भूमिका से उभरी भू-राजनीति के भारत के लिए क्या हैं मायने

यह देखना दिलचस्प होगा कि चीन के मध्यस्थता के कारण इस समझौते से उत्पन्न परिस्थितियों का भारत अपने हित में कितना फायदा उठा सकता है.

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एक तरफ गोवा में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक चल रही है वहीं चीन की मध्यस्थता के बीच, 10 मार्च 2023 को ईरान और सऊदी अरब ने वर्षों पुराने मतभेद को भुलाकर एक बार फिर से अपने राजनयिक संबंधों को बहाल करने के समझौते पर हस्ताक्षर किए.

सऊदी अरब एससीओ में संवाद भागीदार (डॉयलॉग पार्ट्नर) का दर्जा रखता है जबकि ईरान एक संभावित सदस्य है, इसलिए यह दोनों देशों के लिए बातचीत करने का एक और मंच है. व्यापक परिदृश्य में देखें तो, एससीओ पश्चिमी आधिपत्य का मुकाबला करने के लिए एक यूरेशियन ब्लॉक है.

पश्चिम एशिया में रुझान दिखाता है कि अमेरिकी नियंत्रण से खुद को मुक्त करने का प्रयास किया जा रहा है. इसलिए इन दोनों घटनाओं में एक समानता भी है. हालांकि, एससीओ के भीतर विरोधाभास भी दिखता है. रूस, चीन और भारत जैसे प्रमुख सदस्यों के अन्य सदस्य देशों की तुलना में वैकल्पिक लक्ष्य और प्राथमिकताएं हैं.

वर्ष 2016 में सऊदी अरब ने तब ईरान के साथ अपने राजनयिक संबंध को खत्म किया जब शिया धर्मगुरु निम्र-अल-निम्र समेत 47 ईरानी की फांसी की सजा के बाद ईरान में सऊदी दूतावास पर हमला किया गया. 2019 में दोनों देश के संबंधों को और झटका तब लगा जब सऊदी अरब ने उसके तेल टैंकरों पर ईरान द्वारा ड्रोन और मिसाइल हमले का गंभीर आरोप लगाया था.

लंबे समय से अमेरिका मध्य पूर्व की सुरक्षा प्रदाता की भूमिका में था और उसकी कोशिश खाड़ी में ईरान विरोधी धुरी बनाने की रही. भारत भी खाड़ी देशों के साथ अपने रिश्ते को अमेरिकी छाया में ही सुरक्षित समझता रहा. संयुक्त राष्ट्र में ईरान के विरुद्ध वोट करना इसका एक उदाहरण है. हालांकि, हाल के दिनों में भारत ने संयुक्त राष्ट्र में ईरान के खिलाफ अमेरिकी प्रस्ताव पर वोट में हिस्सा नहीं लेकर अपने द्विपक्षीय संबंध को अमेरिकी छाया से बाहर निकालने की कोशिश की है.

चिर प्रतिद्वंद्वी ईरान और सऊदी अरब के बीच चीन की मध्यस्थता से हुए समझौते से इस पूरे क्षेत्र में बीजिंग की कोशिश अमेरिका के बदले खुद को सुरक्षा प्रदाता की भूमिका में लाने की होगी. ऐसे में यह शांति समझौता पश्चिम एशिया की क्षेत्रीय राजनीति को एक नया आयाम दे सकता है.

ईरान और सऊदी अरब अपने दूतावासों को दो महीने के अंदर फिर से खोलने और एक दूसरे की संप्रभुता का सम्मान करने पर सहमत हुए हैं. 2001 के सुरक्षा समझौते और 1998 में हुए समझौते जिसमें आर्थिक निवेश, व्यापार, विज्ञान और प्रौद्योगिकी, संस्कृति, खेल और युवा क्षेत्रों में सक्रियता से काम करने का संकल्प फिर से दोहराया गया है. इसके अलावा क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देने की बात कही है.

यह देखना दिलचस्प होगा कि चीन के मध्यस्थता के कारण इस समझौते से उत्पन्न परिस्थितियों का भारत अपने हित में कितना फायदा उठा सकता है.

खाड़ी देशों के साथ भारत के गहरे राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक संबंध रहे हैं. यदि इस समझौते से पश्चिम एशियाई क्षेत्र में राजनीतिक स्थिरता आती है तो निश्चित रूप से भारत के मौजूदा आर्थिक, व्यापार और निवेश को भी बढ़ावा मिलेगा.


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भारत के लिए समझौते की अहमियत

भारत के लिए आसमान छूती पेट्रोल और डीजल की कीमतें प्रमुख चुनौतियों में से एक है. रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद तेल की कीमतों में वैश्विक वृद्धि हुई. इसका प्रभाव भारत समेत पूरी दुनिया पर हुआ. हालांकि, भारत ने रूस से तेल खरीदकर इस मूल्य वृद्धि को काफी हद तक नियंत्रित कर लिया.

ईरान और सऊदी अरब विश्व के दो प्रमुख तेल उत्पादक देश हैं. यदि दोनों देशों के बीच शांति रहती है तो भारत को भी ऊर्जा लाभ के रूप में सीधा फायदा मिल सकता है. दोनों ही भारत के महत्वपूर्ण व्यापारिक साझेदार हैं. इन दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संबंध बहाल होने से व्यापार और निवेश के नए अवसर की संभावनाएं हैं.

ईरान और सऊदी अरब के बीच हाल की समझ ने असुरक्षा की पुराने आशंकाओं को कम करने का काम किया है. इसके कारण अफगानिस्तान के भविष्य को लेकर ईरान और सऊदी अरब की हितों की टकराहट के बजाए सहयोग की संभावना बनती है.

इस्लामिक स्टेट खुरासान प्रांत (आईएसकेपी) द्वारा ईरान को शियाओं के अग्रदूत होने के करण हज़ारा सहित अन्य अल्पसंख्यक समूहों को दंडित करने की घोषणा से अफगानिस्तान में शिया-सुन्नी तनाव बढ़ रहा है. सऊदी-ईरान डील से इस्लामिक स्टेट खुरासान प्रांत का प्रभाव कम हो सकता है. इसके फलस्वरूप अफगानिस्तान में राजनीतिक स्थिरता की उम्मीद है, जिसका सीधा फायदा भारत को होगा.

यह क्षेत्रीय परिवर्तन भारत के लिए अफगानिस्तान के बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में अपने प्रयासों को फिर से शुरू करने का अवसर भी प्रदान करता है. अगस्त 2021 में जब तालिबान ने सत्ता संभाली तो भारत को अपनी सभी परियोजनाओं को रोकना पड़ा. यहां तक कि भारत को अपने दूतावास को बंद करना पड़ा. हालांकि, इसने अपने दूतावास को फिर से खोलकर काबुल में एक राजनयिक उपस्थिति स्थापित की है.

हालांकि, भारत ने अभी अफगानिस्तान में विकास परियोजनाओं के लिए समर्थन फिर से शुरू करने पर फैसला नहीं किया है. इसका प्रमुख कारण अफगानिस्तान में सुरक्षा को लेकर चिंता है. संदिग्ध इस्लामिक स्टेट के आतंकवादियों द्वारा नागरिक परियोजनाओं, धार्मिक स्थलों और रूसी दूतावास को निशाना बनाने की घटनाएं हुई हैं. इस समझौते से उम्मीद है कि अफगानिस्तान में क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्विता में कमी आएगी और इससे भारत के अपने पुराने और नए परियोजनाओं को एक बार फिर से शुरू करने में मदद मिलेगा.


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भू-राजनीति और संभावनाएं

पश्चिम एशिया में चीन का प्रभाव बढ़ने से भारतीय हितों को नुकसान होने की प्रबल संभावना है. खाड़ी क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव से शक्ति संतुलन में संभावित झुकाव को देखते हुए अमेरिकी इस क्षेत्र में भारत के शांति प्रयासों को अपना समर्थन देगा.

इसके अलावा भारत के लिए एक और अतिरिक्त लाभ इज़रायल के साथ बढ़ता सहयोग है. भारत, इज़रायल, यूएई और अमेरिका के बीच I2U2 साझेदारी ने भारत को पहले ही क्षेत्र के गठबंधन कैनवास पर ला दिया है.

सीरिया में चल रहा गृह युद्ध एक तरफ ईरान द्वारा समर्थित है वहीं दूसरी तरफ अमेरिका, इज़रायल, सऊदी अरब और तुर्की हैं जो सीरियाई सरकार के खिलाफ हैं. मौजूदा डील से सीरिया में भी शांति स्थापना की संभावना है. ऐसी परिस्थिति में इज़रायल अलग-थलग हो सकता है. यदि ऐसा होता है तो भारत को भी इज़रायल, खासकर नेतन्याहू को लेकर अपनी नीति की समीक्षा करनी पड़ सकती है.

अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी के बाद भारत को सेंट्रल एशिया में भरोसेमंद सहयोगी की जरूरत है. इस परिप्रेक्ष्य में ईरान-सऊदी डील भारत से अफगानिस्तान समेत मध्य एशिया क्षेत्र में अपने आर्थिक, सामरिक और राजनीतिक हितों की सुरक्षा की उम्मीद है. यदि खाड़ी क्षेत्र में चीन अपनी महत्वाकांक्षा को आर्थिक क्षेत्र तक सीमित रखता है तो भारतीय और चीनी हित परस्पर अनन्य यानी म्यूचूअली इक्स्क्लूसिव हो सकते हैं.

परंतु, चीन अपने बाल प्रक्षेपण के लिए खाड़ी क्षेत्र का उपयोग करने का इरादा रखता है तो भारतीय हितों के लिए मुश्किल हो सकती है.

भारत को धैर्यपूर्वक आकलन करने की जरूरत है कि खाड़ी में चीन की बढ़ती भागीदारी उसके दीर्घकालिक सुरक्षा और शक्ति संतुलन के लिए नुकसानदायक है या नहीं. घटनाक्रम भी भारत को मध्य पूर्व में एक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में विस्तार का अवसर भी प्रदान करता है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के श्री वेंकटेश्वर कॉलेज में राजनीति विज्ञान के पूर्व सहायक प्रोफेसर हैं. इन्होंने अपनी पीएचडी भारत की अफगानिस्तान नीति में ईरान फैक्टर विषय पर अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान, जेएनयू, नई दिल्ली से की है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(संपादन: कृष्ण मुरारी)


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