scorecardresearch
Friday, 14 March, 2025
होममत-विमतकोई मुसलमान होली खेलते हुए नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद जाए, इसे हम आम बात क्यों न मानें?

कोई मुसलमान होली खेलते हुए नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद जाए, इसे हम आम बात क्यों न मानें?

मुसलमान लोग सोशल मीडिया पर होली तथा दूसरे हिंदू त्योहार मना रहे हैं और अपने हिंदू दोस्तों तथा मुस्लिम दोस्तों को भी त्योहारों पर बड़े उत्साह से बधाई दे रहे हैं. अब हम इसे वास्तविक रूप क्यों न दें?

Text Size:

ज़रा सोचिए : सफेद कुर्ता-पाजामा पहने कुछ मुसलमान जुमे की नमाज़ के लिए जामा मस्जिद की ओर बढ़ रहे हों और रास्ते में होली खेल रहे हों. उनके गालों पर गुलाल मला हुआ है, कपड़े रंगों से भीगे हैं. इस तरह के नज़ारों के बारे में सोचना तक मुश्किल है, है न? लेकिन मशहूर शायर, स्वतंत्रता सेनानी, संविधानसभा के सदस्य मौलाना हसरत मोहानी साल-दर-साल यही कल्पना करते रहे. कृष्णभक्त शायर मोहानी पहले होली खेलते थे और उसके बाद रंग से भीगे कपड़ों में ही नमाज़ पढ़ने चले जाते थे. होली के रंगों ने न तो कभी वज़ू की उनकी रस्म को खराब किया और न कभी उनकी नमाज़ को रद्द किया.

और यह भी सनद रहे कि सांस्कृतिक विविधता के रंग में भीगे, लोक कवि नज़ीर अकबरावादी मुशायरे में किस तरह होली पर लिखी अपनी नज़्में सुनाया करते थे और भारी तादाद में जमा मुस्लिम श्रोता उन पर खूब तालियां बजाया करते थे और यह भी मत भूलिए कि मुगल बादशाह और अवध के नवाब होली का कितना शानदार जश्न मनाते थे.

यह सब बेशक मशहूर चलन नहीं रहा, मगर एक खूबसूरत और विशिष्ट परंपरा तो ज़रूर थी.

बल्कि सही तो यह होता कि जब हिंदू और मुस्लिम पर्व एक ही दिन पड़ जाएं, तो इसे दोगुना जश्न का मौका, दोनों आस्थाओं के बीच समझदारी और मेलजोल बढ़ाने का दैवी वरदान माना जाए. यह गंगा-जमुनी तहजीब के आदर्श सांस्कृतिक सांचे में फिट हो जाएगा और हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई की भावना का प्रतीक बन जाएगा. यह इस बात की मिसाल होगी कि धर्मनिरपेक्षता केवल कागज़ पर लिखी इबारत नहीं बल्कि रोज़ की ज़िंदगी में उतर चुकी है.

लेकिन अफसोस यह है कि हम काव्यात्मक आदर्शवाद की दुनिया में नहीं जी रहे हैं. हमारा सामूहिक विचार-व्यवहार हमारे अंदर जड़ जमाए धार्मिक भेदभावों और सैद्धांतिक विरोधों से तय होता है.


यह भी पढ़ें: भारतीय मुसलमानों को उलेमा से आज़ादी चाहिए. रोज़ा न रखने पर कोई मौलवी शमी को अपराधी नहीं कह सकता


उत्तर-इस्लामी दौर में होली और नमाज़?

उत्तर प्रदेश के संभल में एक ही दिन (14 मार्च को) होली मनाने और जुमे (शुक्रवार) की नमाज़ पढ़ने को लेकर विवाद खड़ा हो गया, लेकिन पहले यह साफ कर लें कि होली की तरह जुमा कोई त्योहार नहीं है. यह हर हफ्ते पढ़ी जाने वाली दोपहर (जूह्र) की नमाज़ होती है. वैसे, मुस्लिम लोग हर दिन मस्जिद में जमा होकर पांच बार नमाज़ पढ़ते हैं, जिनमें जुमे के दिन दोपहर की नमाज़ पढ़ने के लिए वे मस्जिद में बाकी दिनों की अपेक्षा सबसे ज्यादा संख्या में हाज़िर होते हैं. अब चूंकि, यह रमज़ान का महीना चल रहा है और कई मुसलमान रोज़ा रखे हुए हैं इसलिए जुमे की नमाज़ के लिए वह बाकी सभी नमाज़ों के मुकाबले कहीं ज्यादा संख्या में मस्जिद में इकट्ठा होंगे.

तो क्या हो गया? यह एक समस्या क्यों बने? मुसलमानों को यह सलाह क्यों दी जा रही है कि या तो वह नमाज़ पढ़ने का समय बदल लें, या इससे भी बुरा यह कि वह अपने घरों में ही रहें और जुह्र की नमाज़ रोज़ाना की तरह ही पढ़ें? यह सलाह इस डर से दी जा रही है कि जब वह मस्जिद जा रहे हों तब होली का कोई हुड़दंगी उन पर रंग न फेंक दे और तब कहीं सांप्रदायिक हिंसा न हो जाए.

किसी सामान्य स्थिति में किसी पड़ोसी को अपने जश्न में शरीक करने से अच्छी बात क्या हो सकती है? लेकिन इसकी जगह, इस तरह की कोशिश अगर दंगे को उकसा दे तो इससे दुखद बात और क्या हो सकती है? ऐसा तभी हो सकता है जब दो समुदाय एक-दूसरे से लड़ाई में उलझे हों और उनके लोग एक-दूसरे की परंपराओं, संस्कृतियों, और त्योहारों के प्रति कट्टर दुश्मनी रखते हों.

भारत में इस्लाम 1000 से ज्यादा वर्षों से मौजूद रहा है. हालांकि, उसने आक्रमण, युद्ध में विजय के जरिए यहां प्रवेश किया, लेकिन भारत के लोगों ने, जो दूसरे धर्मों के प्रति दुर्भावना नहीं रखते, इस्लाम के प्रति कभी कोई गलत भावना नहीं रखी.

इसलिए, इसके सियासी वर्चस्व के कारण बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन हुए और इस्लाम का तेज़ी से विस्तार हुआ.

भारत में इस्लामी हुकूमत के खात्मे के बाद भी यह मजहब यहां फलता-फूलता रहा. देश में शायद ही ऐसा कोई कोना होगा जहां इस्लाम का वजूद न हो और उसके त्योहारों और प्रथाओं को न केवल सहन किया जाता हो बल्कि उनका स्वागत करते हुए उन्हें मनाया भी जाता हो, लेकिन यह भी सनद रहे कि जबकि भारत में हर जगह इस्लाम की विशेष उपस्थिति रही है, ‘मुस्लिम इलाकों’ में हिंदू धर्म को वही मकाम हासिल नहीं है. इन इलाकों को उनकी जनसंख्या के स्वरूप के कारण ‘सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील’ इलाका या इससे भी बुरा, ‘मिनी पाकिस्तान’ माना जाता है. ऐसे इलाकों में हिंदू लोग अपने धार्मिक जुलूस नहीं निकाल सकते या उसी तरह अपने त्योहार खुल कर नहीं मना सकते जिस तरह मुस्लिम लोग हर जगह मनाते हैं.

संभल के अलावा अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में, जिस प्रमुख सरकारी संस्थान में स्टूडेंट्स से लेकर टीचर्स और नॉन-टीचिंग स्टाफ में भी मुस्लिम ही बहुसंख्या में हैं, होली मनाने के लिए मंजूरी लेने की शर्त रखी गई. यह समझ से परे है कि इसके लिए मंजूरी लेना का सवाल क्यों खड़ा होना चाहिए था.

‘होली बनाम नमाज़’ हिंदू बनाम मुसलमान का मामला नहीं

धार्मिक आयोजनों को एक साथ मनाने को लेकर तनाव खासकर हिंदुओं की समस्या नहीं है. हिंदू लोग इस्लामी आस्था के सार्वजनिक प्रदर्शन के प्रति शांति बरतते रहे हैं, बल्कि उसके प्रति उदार रुख रखते रहे हैं, चाहे यह लाउडस्पीकर पर अज़ान देने का मामला हो या रेलवे प्लेटफॉर्म पर या ट्रेन के अंदर गलियारे में नमाज़ पढ़ने का.

मुसलमानों को इस मामले में कुछ करना होगा. उनके विचारकों और आख्यान निर्माताओं ने दूसरे धर्मों के प्रति यथार्थपरक सराहना के रास्ते में ऊंची दीवारें खड़ी कर रखी हैं. उन्होंने मुस्लिम विवेक पर गैर-इस्लामी संस्कृतियों और प्रथाओं, खासकर ‘बहु-ईश्वरवादी’ और ‘मूर्तिपूजक’ हिंदुओं के प्रति गहरी नफरत का रंग चढ़ा दिया है. यह नफरत मुस्लिम मानस में इतने गहरे पैठ चुकी है कि बहुलतावाद की तमाम बातों के बावजूद एक पाक मुसलमान दूसरे धर्मों के अस्तित्व को एक आस्था की बजाय एक मजबूरी के रूप में देखता है. बचपन में हम लोगों से कहा गया कि अगर हम होली खेलेंगे तो जब कयामत का दिन आएगा तब हमारे शरीर से उतनी चमड़ी काट ली जाएगी जितनी चमड़ी पर होली का रंग पड़ा होगा.

मुस्लिम धर्मशास्त्र और विमर्श की दिशा तय करने वाला मुस्लिम शासक वर्ग देसी लोगों के इस्लामीकरण को एक अनिवार्यता मानता है जिसके बिना धर्मांतरित लोग उसके जनाधार, वफादार सिपाही और प्रतिबद्ध बलि के बकरे नहीं बन सकते थे, जो आज वह हैं. दरअसल, उन्हें अपनी संस्कृति के खिलाफ घुट्टी नहीं पिलाई जाती तो वह इतने गैर-भारतीय नहीं बनते कि एक अलग पहचान बन सकें और उत्तर-इस्लामी दौर में भी हिंदू धर्म के खिलाफ खड़े हो सकें.

अब इस बात पर बहस हो सकती है कि यह इस्लाम कबूल करने का कितना अनिवार्य परिणाम है. इस्लाम ने जिन मुल्कों पर सबसे पहले फतह हासिल की उनमें ईरान भी शामिल था. वह काफी कम समय में पूरी तरह इस्लामी हो गया था, लेकिन अपने आदिम अरब आक्रांताओं के तुलना में ईरानी लोग कहीं अधिक सुसंस्कृत थे और वह अपने अतीत से पूरी तरह टूटे नहीं. हालांकि, वह मुस्लिम बने रहे, लेकिन उन्होंने अपने प्राचीन महाकाव्यों, मिथकों, गाथाओं और किंवदंतियों को पुनर्जीवित किया.

महान फारसी कवि फिरदौसी ने इस्लामीकरण से पहले के ईरान की भव्यता का बखान करते हुए ‘शाहनामा’ की रचना की और अफ्रासियाब तथा रुस्तम सरीखे नायकों की यादें ताज़ा कर दी, लेकिन भारत में इस्लाम का चरित्र कुछ ऐसा रहा कि भारतीय मुसलमान के लिए ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ के नायकों या सम्राट अशोक और चंद्रगुप्त सरीखे ऐतिहासिक दिग्गजों का भी गुणगान करना सैद्धांतिक रूप से असंभव हो गया. यहां यह याद करना प्रासंगिक होगा कि फिरदौसी कुख्यात इस्लामी आक्रांता मुहम्मद गज़नी के दरबारी कवि थे. अगर वे अपने मुल्क की शान का गुणगान कर सकते थे, तो भारतीय मुसलमान ऐसा क्यों नहीं कर सकते? ईरान के लोग या ईरानी मूल के कुलीन भारतीय मुसलमान आज भी इस्लाम से पहले के दौर का त्योहार नौरोज़ मनाते हैं, लेकिन भारतीय मुसलमान, यहां तक कि इस्लाम कबूल करने वाले देसी लोग होली या दिवाली मनाने की सोच भी नहीं सकते क्योंकि वह इन्हें अपने मजहब के खिलाफ मानते हैं.

भारतीय मुसलमान भारतीय त्योहार क्यों मनाएं

इस्लाम एक शुद्धतावादी धर्म है — बिलकुल रूखा-सूखा, सख्त. इसका जन्म अरब के रेगिस्तान में हुआ और अपने आचार-व्यवहार में यह रेगिस्तान के रूखेपन को पूरी तरह प्रतिबिंबित करता है. इसलिए इसके दोनों पर्व ईद-बकरीद त्योहार नहीं सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान हैं क्योंकि उनमें कोई मौज-मस्ती, आमोद-प्रमोद नहीं होता जो कि त्योहारों के साथ प्रायः जुड़े ही होते हैं.

दूसरी ओर, भारतीय लोग त्योहार को जश्न की तरह मनाते हैं क्योंकि वह खेती-बाड़ी और मौसम के चक्रों के साथ गहरे जुड़े होते हैं. अरब चूंकि पूरी तरह रेगिस्तान है इसलिए वहां खेती-बाड़ी शायद ही होती है. इसलिए वहां धरती से उपजने वाली थातियों और ब्रह्मांडीय पिंडों से हासिल वरदानों का जश्न नहीं मनाया जाता.

भारतीय मुसलमान अगर भारतीय त्योहारों को मनाना शुरू कर दें तो वह न केवल अपना भारतीयपन फिर से हासिल कर सकेंगे बल्कि इससे इस्लाम की गंभीर सख्ती कम हो सकती है और वह अधिक मानवीय भी बन सकता है. यह इस्लाम की जड़ों को भारत में स्थापित करके उसके विदेशपन को हल्का कर सकता है. मुसलमान अब तक हिंदुओं से अलग-थलग रहते रहे हैं. इस तरह का उदासीन रहन सहन सह-अस्तित्व या साझा जीवनशैली जैसे विशेषणों का अधिकारी नहीं हो सकता. यह स्पष्ट तौर पर अलगाव है, जो अनिष्ट के पूर्वसंकेत ही देता है.

पिछले कुछ वर्षों से मुसलमान लोग सोशल मीडिया पर होली तथा दूसरे हिंदू त्योहार मना रहे हैं. वह अपने हिंदू दोस्तों को और मुस्लिम दोस्तों को भी त्योहारों पर बड़े उत्साह से बधाई दे रहे हैं, तो क्यों न अब हम इसे वास्तविक रूप दें? गंगा-जमुनी तहजीब को सम्मान देने का इससे बड़ा तरीका और क्या हो सकता है? यह भारत में बड़ा बदलाव ला सकता है. इसलिए, हम फिर से सोच सकते हैं कि कुछ मुसलमान होली खेलते हुए नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद की ओर जा रहे हैं.

(इब्न खल्दुन भारती इस्लाम के छात्र हैं और इस्लामी इतिहास को भारतीय नज़रिए से देखते हैं. उनका एक्स हैंडल @IbnKhaldunIndic है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

संपादक का नोट: हम लेखक को अच्छी तरह से जानते हैं और छद्म नामों की अनुमति तभी देते हैं जब हम ऐसा करते हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ें: हलाल सर्टिफिकेशन एक बढ़ती धोखाधड़ी है, यह मुसलमानों के लिए एक अलग अर्थव्यवस्था बना रहा है


 

share & View comments