जो शख्स महज 11 महीने के लिए प्रधानमंत्री रहा हो उसकी जन्म शताब्दी पर उसे याद करने की जहमत भला क्यों उठाई जाए? ठेठ घायल-दिल उदारवादी इंदर कुमार गुजराल क्या आज के चौड़ी छाती वाले राष्ट्रवादी दक्षिणपंथियों की दुनिया में कोई अहमियत रखते हैं? जिस दुनिया पर नई सहस्राब्दी वाले उन लोगों का वर्चस्व है, जो किसी को ज्यादा समय तक याद नहीं रखते, उस दुनिया में उस शख्स के बारे में भला कौन जानना चाहेगा, जिसका जन्म 1919 में हुआ हो, जिस साल संयोग से जलियांवाला नरसंहार हुआ था?
इसका एक जवाब उस अहम मुद्दे से जुड़ा है, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले आम चुनाव के दौरान ‘न्यूज18’ के मुख्य संपादक राहुल जोशी को दिए इंटरव्यू में उठाया था. मोदी ने कहा था कि नेहरू-गांधी परिवार के बारे में तो हर कोई जानता है. लेकिन, ऐसा लगता है मानो केवल वे ही आज़ादी के बाद के दौर के राष्ट्रीय नेता थे. उन्होंने कहा कि लाल बहादुर शास्त्री से लेकर चरण सिंह तक और चन्द्रशेखर से लेकर देवेगौड़ा तक तमाम दूसरी प्रख्यात हस्तियां भी प्रधानमंत्री रहीं. लेकिन उनकी अनदेखी की गई. मोदी का संकेत था कि समकालीन राजनीतिक इतिहास को इस तरह जानबूझकर मिटाया गया ताकि एक वंश की आभा को निखारा और आगे बढ़ाया जाए.
मोदी के तर्क में दम है. लेकिन, तथ्य यह भी है कि उनमें से ज़्यादातर नेता (पीवी नरसिंह राव को छोड़कर) काफी कम समय के लिए और अस्थिर सरकारों के मुखिया रहे. मैं पहले लिख चुका हूं और कभी-कभी उन्हें मज़ाक में दिहाड़ी वाले प्रधानमंत्री भी कह चुका हूं. जो भी हो, उनमें से हरेक ने न केवल अपने प्रधानमंत्रित्व की छोटी-सी अवधि में बल्कि अपने सार्वजनिक जीवन के घटना प्रधान दशकों में अपनी छाप छोड़ी.
गुजराल का कार्यकाल सबसे छोटा और सबसे उथलपुथल वाला था. उन्हें देवगौड़ा को गद्दी सिर्फ इसलिए मिली कि संयुक्त मोर्चा के, जिसे ‘शिवजी की बारात’ कहा जाता था, झगड़ालू गुटीय नेता एक-दूसरे से असुरक्षा महसूस करते थे. इन सबने सर्वसम्मति से गुजराल को प्रधानमंत्री चुना था, क्योंकि उनमें तीन ख़ासियतें थीं. गुजराल कोई राजनीतिक जड़ नहीं थी, उनमें गलाकाट महत्वाकांक्षा नहीं थी और उनका हावभाव काफी मितभाषी व्यक्ति वाला था. मैं इन सबके मेल को एक गुण के रूप में देखता हूं. जिसका आज हमारे सार्वजनिक जीवन भारी अभाव है. वह गुण है- शालीनता.
गुजराल उस जमावड़े (जिसमें सीताराम केसरी के नेतृत्व वाली कांग्रेस भी शामिल थी और उसे बाहर से समर्थन दे रही थी) के लिए सबसे सुरक्षित दांव थे, जिसे देवेगौड़ा सरीखे नेता से भी खतरा महसूस होता था.
लेकिन, गुजराल को जल्दी ही चलता कर दिया, उनके गठबंधन ने नहीं बल्कि बाहर से समर्थन दे रही कांग्रेस ने. राजीव गांधी हत्याकांड पर जैन आयोग की कथित जांच रिपोर्ट के कुछ हिस्से चुनकर कांग्रेस (संभवतः अर्जुन सिंह द्वारा) ने लीक कर दिए और परिवार के भक्तों ने केसरी को बाहर करने के लिए सोनिया गांधी को राजनीति में खींच लिया.
जैन आयोग ने एक पैराग्राफ में संयुक्त मोर्चे के एक घटक द्रमुक की ओर उंगली उठाई थी कि राजीव की हत्या में उसकी कोई भूमिका हो सकती है. अब ऐसे में कांग्रेस उस गठबंधन को समर्थन कैसे दे सकती थी, जिसमें द्रमुक शामिल हो? गुजराल की सरकार गिर गई. नए चुनाव और अटल बिहारी वाजपेयी के एनडीए के लिए रास्ता साफ हो गया. यह और बात है कि उसके बाद से द्रमुक ज़्यादातर समय कांग्रेस की करीबी सहयोगी रही और आज भी है.
गुजराल जानते थे कि उन्हें बलि का बकरा बनना पड़ा. लेकिन आपने कभी नहीं सुना होगा कि उन्होंने इसकी खुल कर शिकायत की हो. वे अपनी ही ताकत के बूते टिके रहे- सभी दलों में अपनी दोस्ती और अपनी शालीनता के बूते. यहां तक कि भाजपा के सहयोगी शिरोमणि अकाली दल ने उन्हें पंजाब से लोकसभा चुनाव जितवाने की पेशकश की थी. बाद में उनके पुत्र नरेश ने अकाली दल में शामिल होकर इस सिलसिले को आगे बढ़ाया.
लुटियंस की दिल्ली के उभरते नीति विशेषज्ञों ने, जो भाजपा के उभार को अवश्यंभावी मान रहे थे, गुजराल का काफी उपहास उड़ाया. उनके ‘गुजराल डॉक्ट्रीन’ का मज़ाक उड़ाया गया. लेकिन गहराई से देखें तो इसके पांच तत्व भावुकता भरी बेवकूफी ही नज़र आएंगे. ये तत्व थे- पाकिस्तान को छोड़ सभी पड़ोसी देशों के प्रति हमदर्दी और उदारता का रुख अपनाएं और उनसे वैसे ही रुख की अपेक्षा न रखें, उनके आंतरिक मामलों में दखल न दें, मसलों को द्विपक्षीय स्तर पर सुलझाएं, आदि-आदि. उनका तर्क यह था- चीन और पाकिस्तान के साथ रिश्ते लंबे समय तक तनावपूर्ण रह सकते हैं. भारत इनसे तभी निबट सकता है जब दूसरे, छोटे पड़ोसियों से उसके रिश्ते सद्भावना भरे होंगे. मोदी शायद इससे सहमत होंगे.
क्या पाकिस्तान के प्रति गुजराल का रुख नरमी भरा था? बेशक उन्होंने ‘झप्पी’ वाली कूटनीति शुरू की थी. 1991 के खाड़ी युद्ध के दौरान उन्होंने जब सद्दाम हुसैन को गले लगाया था तब भारी शोर उठा था. उन्होंने कहा कि ऐसा उन्होंने भारतीय प्रवासियों को वापस लाने के लिए किया था, लेकिन उनके आलोचकों का कहना था कि उन्हें ‘झप्पियों’ की झख लग गई थी. अब यह मोदी की खास अदा बन गई है.
लेकिन, जहां जरूरत पड़ती वहां से सख्त हो जाते थे. 1990 की गर्मियों में जब कश्मीर को लेकर पाकिस्तान से युद्ध की नौबत आ गई थी और पाकिस्तान के विदेश मंत्री साहबज़ादा याक़ूब खान कथित तौर पर परमाणु धमकी देने भारत आ पहुंचे थे. तब गुजराल भारत के विदेश मंत्री थे. साउथ ब्लॉक के गलियारे में टहलते हुए खान ने गुजराल से कहा कि इस बार लड़ाई पहले जैसी नहीं होगी बल्कि भारत के पहाड़ और उसकी नदियां भयानक ऐसी आग में जल उठेंगी, जैसी पहले कभी नहीं देखी गई, और यह लड़ाई के पहले दिन ही हो जाएगा.
गुजराल ने जवाब दिया था कि आपको इस तरह की लापरवाही भरी बातें नहीं करनी चाहिए क्योंकि हमारी परवरिश भी उन्हीं नदियों के पानी पर हुई है जिनके पानी पर आपकी हुई है. याद रहे कि यह जवाब तब दिया गया था जब गुजराल और उनके प्रधानमंत्री वीपी सिंह को पता भी नहीं था कि वे जवाबी कार्रवाई के लिए तैयार हैं भी या नहीं. वास्तविकता यह है कि भारत तैयार नहीं था. ये सब दस्तावेजों में दर्ज़ है और आप संदर्भों की जांच यहां कर सकते हैं.
जिसे भी गुजराल को जानने का मौका मिला होगा वह उनके तौरतरीके की दर्जनों कहानियां सुना सकता है. अगर मुझे सुनानी हो तो मैं 1998 की एक शाम की कहानी सुनाना पसंद करूंगा. उस शाम उन्होंने 7, रेसकोर्स रोड के अपने सरकारी निवास पर कुछ वरिष्ठ संपादकों को चाय पर बुलाया था. उन्होंने हमें बताया कि भारत ने रासायनिक हथियार संधि (सीडब्लूसी) पर दस्तखत करने, अपने रासायनिक हथियार भंडार को नष्ट करने और अपने प्रतिष्ठानों को संयुक्त राष्ट्र की जांच के लिए खोलने का फैसला किया है. उन्होंने कहा कि वे इसकी जानकारी हम लोगों को देना चाहते थे और हमारे कोई सवाल हों तो उनका जवाब देने को तैयार हैं ताकि बाद में हम किसी आश्चर्य में न पड़ें, अटकलें न लगाएं या किसी साजिश के आरोप न उछालें.
मैंने पूछा कि क्या हम 1992 में ही पाकिस्तान के साथ एक द्विपक्षीय संधि नहीं कर चुके हैं कि हम कोई रासायनिक हथियार नहीं रखेंगे?
उनका जवाब था, मुल्क ऐसी चीज़ें किया करते हैं. लेकिन सबसे मार्के की बात यह है कि भारत अपनी सबसे अहम गुप्त बातों को कैसे गोपनीय रख पाया है. कई महान व्यक्ति प्रधानमंत्री रहे, इसलिए यह बात समझ में आती है. लेकिन कभी-कभी मेरे जैसे ‘लल्लू-पंजू’ भी यहां तक पहुंच जाते हैं. तो क्या यह मार्के की बात नहीं है कि जिस बात को कभी भी लीक नहीं होना चाहिए वह कभी लीक नहीं होती?
अब आप इसे खुद को ही छोटा बताना या कूटनीति या पुराने किस्म की वाकपटुता, जो भी चाहे कह लें. मेरी या उन्हें जानने वाले दूसरे कइयों की किताब में इसे शालीनता ही कहेंगे. यही वजह है कि हम सचमुच संयोग से बने उस प्रधानमंत्री को नहीं भूल पाएंगे.
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