प्रणब मुखर्जी हमेशा दिल से एक राजनेता रहेंगे और यह अनुमान लगाया गया है कि भविष्य में वह एक गैर-एनडीए के स्तम्भ के रूप में रह कर महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने नागपुर में 7 जून को संघ शिक्षा वर्ग के स्वयंसेवकों को संबोधित करने के लिए आरएसएस द्वारा दिये गये निमंत्रण को स्वीकार कर लिया है।
यह दो सवाल उठाता है, पहला, आरएसएस ने उन्हें क्यों आमंत्रित किया और दूसरा, मुखर्जी ने पूर्णतः विपरीत विचारधारा वाले संगठन का निमंत्रण क्यों स्वीकार किया?
मुखर्जी लंबे समय तक कांग्रेस के सदस्य रहे हैं और तीन प्रधानमंत्रियों, इंदिरा गांधी, पी.वी. नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह के आधीन कार्य किया है। वह हमेशा पार्टी के साथ खड़े रहे, सिवाय एक संक्षिप्त अवधि के जब उन्हें राजीव गाँधी द्वारा पार्टी से निकाल दिया गया था और तब उन्होंने अपनी स्वयं की पार्टी का निर्माण किया, परन्तु 1989 में वह कांग्रेस में पुनः वापस आ गए। वह एक मंत्री, योजना आयोग के उपाध्यक्ष, सदन के नेता, पार्टी महासचिव, 23 साल तक कांग्रेस कार्यकारिणी समिति के सदस्य रह चुके थे और प्रभावी ढंग से पार्टी व सरकार की सेवा की , लेकिन कभी पार्टी में प्रमुख नहीं बन पाए।
अंग्रेजी पर उनकी उत्कृष्ट पकड़, असाधारण मसौदा कौशल, तीक्ष्ण स्मृति, संसदीय प्रक्रियाओं और राजनीतिक कौशल के ज्ञान ने उन्हें सरकार और पार्टी के मुख्य सदस्य के रूप में स्थापित कर दिया था। राष्ट्रपति के रूप में भी उन्होंने अच्छा कार्य किया।
स्वीकार्यता का संकेत
आरएसएस ने उन्हें क्यों आमंत्रित किया? एक प्रतिष्ठित व्यक्ति होने के साथ ही मुखर्जी ने आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत से अच्छे संबंध विकसित किए हैं। उन्होंने राष्ट्रपति भवन के कार्यालय को छोड़ने से पहले, दोपहर में भोजन के लिये भागवत का स्वागत भी किया था और सेवानिवृत्ति के बाद से कम से कम चार बार उनसे मुलाकात कर चुके हैं।
दूसरा, आरएसएस आंतरिक रूप से इसे एक बड़े कदम के रूप में देखता है, कि संगठन एक कांग्रेस के व्यक्ति को स्वीकार्य था जो नेहरू-गांधी परिवार के नहीं थे और इतनी निंदा के बावजूद मुखर्जी जैसे एक श्रेष्ठ व्यक्ति, जो कि अपने वामपंथी आदर्शों के लिए जाने जाते हैं, को आरएसएस मुख्यालय जाने के लिए समय मिलेगा। “नागपुर में आरएसएस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की स्वीकृति देश को एक संदेश भेजती है कि विपक्ष कोई दुश्मन नहीं हैं और महत्वपूर्ण मुद्दों पर बातचीत होनी चाहिए। आरएसएस के विचारधारक राकेश सिन्हा बताते हैं, “आरएसएस और हिंदुत्व पर उठाए गए प्रश्नों का उत्तर दिया जा रहा है। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी, जिन्होंने दोनों के बीच दोस्ती कराने में भूमिका निभाई है, ने कहा है, “मुखर्जी द्वारा निमंत्रण की स्वीकृति एक अच्छी शुरुआत है और राजनीतिक अस्पृश्यता अच्छी नहीं होती।”
तीसरा, आरएसएस ने पहले भी प्रतिष्ठित व्यक्तियों को आमंत्रित किया है। आरएसएस के मुखपत्र ‘आयोजक’ ने अपने नवीनतम मुद्दे में उल्लेख किया है कि “1934 में, महात्मा गांधी ने वर्धा के संघ शिविर (कैम्प) में भाग लेते हुए आरएसएस के पहले सरसंघचालक के.बी. हेडगेवार के साथ भारत के भविष्य पर चर्चा की थी।” पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम, सर्वोदय नेता प्रभाकर राव, स्वामी चिन्मययानंद, जयप्रकाश नारायण जैसे अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति भी विभिन्न संघ शिक्षा वर्ग या अन्य कार्यक्रमों में भाग ले चुके हैं।
नज़र एक नई भूमिका पर
मुखर्जी ने आरएसएस निमंत्रण क्यों स्वीकार किया? एक व्यक्ति जो अपनी योग्यता और राजनीतिक कुशलता में सक्षम है, कुछ सोचे बिना ऐसा नहीं कर सकता । इसमें कोई संदेह नहीं है कि ऐसा करके, उन्होंने कांग्रेस में कई लोगों को क्रोधित किया है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी आरएसएस के एक कठोर आलोचक हैं। कुछ लोग कहते हैं कि मुखर्जी वर्तमान की कांग्रेस पार्टी से निराश हैं। गांधी परिवार के सदस्य उनसे परामर्श नहीं करते हैं या उनके दिए हुए ज्ञान का प्रयोग नहीं करते। वह जानते थे कि सोनिया गांधी ने उन्हें दबाव के कारण राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में नामित किया था।
दूसरी तरफ, मोदी उनके लिए काफी सम्मानपूर्ण रवैया अपनाते थे और दोनों राष्ट्रपति भवन में अपने कार्यकाल के दौरान अच्छी तरह से कार्य कर रहे थे।प्रणब मुखर्जी दिल से एक राजनेता बने रहेंगे और यह अनुमान लगाया गया है कि वह भविष्य में वह एक गैर-एनडीए के स्तम्भ के रूप में रह कर महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है। वह शायद भारत के सबसे अच्छे प्रधान मंत्री होते लकिन यह हो नहीं पाया। अपनी पुस्तक ‘दि कॉलीशन इयर्स’ में अपनी निराशा को व्यक्त करते हुए मुखर्जी ने कहा, “मैं एक अस्पष्ट प्रभाव के साथ लौट आया कि वह (सोनिया गांधी) मनमोहन सिंह को यूपीए के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में मानना चाहेंगी। मैंने सोचा कि अगर उन्होंने राष्ट्रपति पद के लिए सिंह (मनमोहन सिंह) का चयन किया, तो वह मुझे प्रधान मंत्री के रूप में चुन सकती हैं। मैने यह भी अफवाहें सुनी थीं कि उन्होंने कौशाम्बी हिल्स में छुट्टियों के दौरान इस सूत्रीकरण पर गंभीर विचार दिया था।”
तीसरा, मुखर्जी नहीं चाहेंगे कि वह अपनी पूर्ववर्ती प्रतिभा पाटिल की तरह भुला दिए जाएं। वह अभी भी सक्रिय हैं और वह नहीं चाहेंगे की सार्वजानिक रूप से उनकी चर्चा कम हो जाए।
विपक्ष समेत सभी की आंखें इस बात टिकी हैं कि मुखर्जी आरएसएस के समारोह में क्या बोलेंगे। अटकलें यह है कि वह गांधीवादी और नेहरूवादी विचारों के बारे में बात कर सकते हैं। वह जनजातीय क्षेत्रों में आरएसएस द्वारा किये गए कार्यों और उनके अनुशासन की प्रशंसा कर सकते हैं लेकिन हो सकता है कि वह आरएसएस का समर्थन नहीं करें परन्तु उसकी आलोचना भी नहीं कर सकते हैं। एक बुद्धिमान राजनेता होने के नाते, मुखर्जी आरएसएस को उनका इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं देंगे, बल्कि वह इस अवसर का लाभ स्वयं के लाभ के लिए उठाएंगे।
विवाद को कम करते हुए कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक सिंघवी ने कहा, “प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति पद संभालने के बाद राजनीति छोड़ दी थी। किसी भी दीक्षांत समारोह में उनका बोलना उनकी धारणा का कोई संकेत नहीं है। उनका आकलन इन तथ्यों से होता है कि वह क्या कहते हैं और उन्होंने राजनीतिक जीवन के 50 वर्षों के दौरान कौन सी मान्यताएं स्थापित कीं।” हमें इसे छोड़ देना चाहिए क्योंकि जो परिस्थितियां दिख रहीं है उससे कहीं अलग हैं।
Read in English : Ignored by Gandhis, Pranab Mukherjee is too clever a politician to let RSS use him