सुर्खियों और साज़िशों से त्रस्त इस दौर की आपाधापी में हम तीन महत्वपूर्ण संकेतों को समझने में चूक सकते हैं. इसलिए, आइए हम कालक्रम के अनुसार आगे बढ़ें.
सबसे पहले, अयोध्या के राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा वाले दिन की बात करते हैं. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कई कर्णधारों ने उस दिन रामधुन (रघुपति राघव राजा राम) का वह ‘मूल’ रूप गाया जिसे दिवंगत शास्त्रीय गायक विष्णु दिगंबर पलुसकर ने संगीतबद्ध किया था.
अभी, अपने सबसे ताजा ‘मन की बात’ कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय संविधान का मूल प्रथम पृष्ठ (जिस पर प्रस्तावना लिखी है) पर्दे पर दिखाया, जिसमें वे शब्द (‘धर्मनिरपेक्ष एवं समाजवादी’) नहीं लिखे हैं जिन्हें इंदिरा गांधी ने 1976 में उसमें दर्ज करवाया था जब संसद का कार्यकाल छह साल तक चला था.
और अंत में, वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने ताजा बजट भाषण में एक ऐसी कमेटी गठित करने का सुझाव पेश किया, जो “जनसंख्या वृद्धि से उपजी चुनौती” पर नजर रखे.
ये तीनों बातें भाजपा/आरएसएस के चिंतन के मुख्य तत्वों से निकली हैं और मोदी सरकार की राजनीति को समझने में हमारी मदद करती हैं.
अगर आपको लगता है कि रामधुन भला एक मुद्दा कैसे बन सकता है, तो ध्यान दीजिए कि अब इसका जो मूल रूप प्रस्तुत किया जा रहा है उसमें वह दूसरी पंक्ति नहीं है जिसे हम तीन पीढ़ियों से गाते आए हैं और जिसे हम मूल भजन का हिस्सा मानते आए हैं. वह दूसरी पंक्ति है— ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान. यह पंक्ति महात्मा गांधी ने इस भजन को धर्मनिरपेक्ष भाव देने के लिए बदली थी.
अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा के दिन भाजपा हमें याद दिला रही थी कि उसकी नजर में कौन सी रामधुन धर्मनिरपेक्ष है और कौन-सी छद्म धर्मनिरपेक्ष है. इसकी धुन उस सप्ताह बाद में दिल्ली में ‘बीटिंग द रिट्रीट’ में भी दोहराई (2016 के बाद) गई, और आप सोच सकते हैं कि भाजपा के आला नेता किन शब्दों को गा रहे थे.
संविधान की मूल प्रस्तावना का संदर्भ देकर भाजपा आपको याद दिला रही है कि इसमें ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द बाद में एक अवैध लोकसभा ने जोड़ा था (जिसका कार्यकाल 1976 में इमरजेंसी के दौर में बढ़ाया गया था), जैसे रामधुन में ‘ईश्वर अल्लाह’ शब्द बाद में जोड़े गए. जनसंख्या वृद्धि भी आरएसएस/भाजपा के लिए चिंता का एक पुराना विषय रहा है, चाहे भारत में जन्म दरें गिरती क्यों न रही हों और ‘रिप्लेसमेंट’ स्तर पर क्यों न पहुंच गई हो (यानी एक पीढ़ी की जगह उतनी ही आबादी वाली नयी पीढ़ी ले रही हो).
वास्तव में, जबकि हमारी प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा करीब 3,500 डॉलर पर पहुंच रहा है, हमारी आबादी में गिरावट और उसमें वृद्धों का अनुपात बढ़ने का खतरा पैदा हो गया है, जबकि चीन करीब 12,500 डॉलर के आंकड़े के साथ आज इस खतरे से जूझ रहा है. लेकिन विचारधारा से जुड़ी आस्थाओं पर सवाल मत उठाइए.
अब जरा खांटी सियासत की बात कर लें. एक दशक से सत्ता में बैठी मोदी सरकार ने अपनी छवि हर चीज को सीने में छिपाकर रखने, और भारतीय राजनीति पर गहरी नजर रखने वालों को हमेशा हैरत में डालने वाली सरकार की बना ली है. लेकिन क्या यह सरकार वाकई इतनी रहस्यमय और अगम्य है? क्या इस भाजपा की राजनीति के पेंच को खोलने की कोई कुंजी, उसके दिमाग में झांकने की कोई खिड़की है? कुंजी है उसकी विचारधारात्मक प्रतिबद्धता की समझ.
हमें समझना पड़ेगा कि मोदी-शाह की जोड़ी और अब मोदी-शाह-नड्डा की तिकड़ी खासकर वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकारों की लुप्त होती प्रजाति के प्रति कितनी क्रूर रही है. इस जमात में वे भी हैं जो खुद को भाजपा के करीब मानते रहे हैं, उसकी अंदरूनी जानकारियां रखने के दावे करते रहे हैं.
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किसी को पहले से पता नहीं था कि नोटबंदी होने वाली है, या उत्तर प्रदेश की बागडोर योगी आदित्यनाथ को सौंपी जाने वाली है, या जम्मू-कश्मीर में रातोंरात उलटपलट कर दिया जाएगा, या नया नागरिकता कानून लाया जाएगा, या तीन तलाक पर रोक लगेगी, या भाजपा जिन्हें ‘अर्बन नक्सल’ कहती है उन वामपंथी झुकाव वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी, या हाल में तीन हिंदी प्रदेशों में मुख्यमंत्री किन्हें बनाया जाएगा.
अगर हमने भाजपा/आरएसएस की विचारधारा को समझने पर ज्यादा ध्यान दिया होता तो हम इन कदमों से ज्यादा आश्चर्य में नहीं पड़ते.
मोदी के आलोचक यह गफलत इसलिए भी करते हैं क्योंकि वे उस विचारधारा से नफरत करते हैं. वे उस जमात वालों को बहुत बौद्धिक क्षमता वाला नहीं मानते. लेकिन हकीकत यह है कि वे एक दशक से सत्ता में हैं और कमजोर पड़ने की जगह और मजबूत होते जा रहे हैं. जाहिर है, उनकी विचारधारा में इतना आकर्षण है कि उन्हें पर्याप्त मतदाता मिल जाते हैं.
एक दशक से भारत पर राज करने वालों ने अगर वह साहित्य नहीं पढ़ा जिसने पुरानी, आमतौर पर कांग्रेसी ‘धर्मनिरपेक्ष’ विचारधारा का विकास किया, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्होंने कुछ पढ़ा ही नहीं. उन्होंने हेडगेवार, गोलवलकर, और सावरकर से लेकर दीनदयाल उपाध्याय के साहित्य को तो पढ़ा ही है.
उदाहरण के लिए, अगर आपने दीनदयाल उपाध्याय के दो साहित्य ‘एकात्म मानववाद’ और ‘द टू प्लान्स : प्रॉमिस, परफॉर्मेंस, प्रोसपेक्ट्स’ को पढ़ा होगा तो आपको मोदी सरकार के आर्थिक कदमों ने कम चौंकाया होगा. तब आपको अच्छी तरह से साफ हो गया होगा कि मोदी सरकार गरीबों तक कई लाभ, खासकर मुफ्त अनाज और नकदी सीधे कैसे पहुंचा रही है.
अगर ये साहित्य आपको डराते हैं तो ‘अंत्योदय’ के बारे में ही गूगल से जानकारियां हासिल कर लीजिए. उपाध्याय का यह विचार बताता है कि सरकार की पहली ज़िम्मेदारी समाज के अंतिम जन तक के प्रति है ताकि कोई छूट न जाए. इस हद तक तो यह गांधी के विचार से भिन्न नहीं है, जिन्होंने कहा था कि “मैं तुम्हें एक ताबीज़ दूंगा… सबसे गरीब और कमजोर व्यक्ति के चेहरे को याद करो…”
उपाध्याय की पुस्तक ‘टू प्लान्स’ नेहरूवादी नियोजित अर्थव्यवस्था की आलोचना प्रस्तुत करती है. खास तौर से यह प्रथम और द्वितीय पंचवर्षीय योजनाओं के बारे में चर्चा करती है. यह पुस्तक जब प्रकाशित हुई थी तब जनसंघ (भाजपा का मूल अवतार) और आरएसएस को कोई बहुत गंभीरता से नहीं लेता था. लेकिन आपको मानना पड़ेगा कि आरएसएस के विचारक हतोत्साहित हुए बिना डटे रहे.
आज ‘आत्मनिर्भरता’ पर जो ज़ोर दिया जा रहा है, भारतीय उद्यमियों को बड़ा और अमीर बनने के लिए जिस तरह प्रोत्साहित किया जा रहा है और वैश्विक प्रतियोगिता से उन्हें जिस तरह बचाया जा रहा है वह सारा विचार वहीं से आ रहा है. हर सरसंघचालक इन मुद्दों पर बोल चुका है. वैसे, ‘एक देश, एक चुनाव’ का विचार गोलवलकर का है. आप चाहें तो यह golwalkarguruji.org पर देख सकते हैं. उनकी मृत्यु के 50 साल बाद उनके अनुयायियों ने इस विचार को आगे बढ़ाया है.
भाजपा/आरएसएस की विचारधारा को आप चाहे जितना नापसंद करते हों, इनकी अनदेखी नहीं कर सकते. वामपंथी किताबों के विपरीत बेशक इन्हें 19वीं/20वीं सदी के राजनीतिक इतिहास के मार्क्स, एंजेल्स, लेनिन, माओ सरीखे महान जगप्रसिद्ध नामों का सहारा नहीं मिला है. कांग्रेस के लिए नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के विपरीत यह पढ़ने में उतनी मज़ेदार नहीं है. लेकिन आरएसएस/भाजपा के गुरु भारतीय ही हैं.
स्कूली पाठ्यपुस्तकों में नेहरू-गांधी को पढ़कर उनके विचारों से जितने लोग परिचित हुए उतने इन सबके विचारों से कम लोग ही परिचित होंगे. लेकिन इससे फर्क नहीं पड़ता. सबसे अहम बात यह है कि लोग उन्हें वोट दे रहे हैं, जो इन सबके विचारों पर अमल कर रहे हैं. अगली पीढ़ियां इन्हें भी स्कूली पाठ्यपुस्तकों में पढ़ेंगी.
कांग्रेस की पिछली सरकारों और भाजपा सरकार में मूल अंतर विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता का ही है. कांग्रेस के नेतृत्व में काफी लचीलापन था. विचारधारा उनकी नीतियों को तो दिशा देती थी मगर कभी उन पर राज नहीं करती थी. भाजपा के मामले में स्थिति दूसरी है. विचारधारा के प्रति उसकी प्रतिबद्धता लगभग कट्टरपंथी किस्म की है.
कश्मीर में बदलाव, मुस्लिम पर्सनल लॉ, राम मंदिर निर्माण, और प्रधानमंत्री की मौजूदगी में प्राण प्रतिष्ठा, तमाम तरह के आर्थिक बदलाव, आयात पर नियंत्रण, और पीएलआइ प्रोत्साहन, ये तमाम चीजें इसी विचारधारा की देन हैं. गहराई में जाएं, तो नोटबंदी को भी इस सूची में शामिल कर सकते हैं. अगर हमने उनके ग्रंथों को पढ़ा होता तो हमें ज्यादा हैरानी नहीं होती.
इसलिए, उन तीन उदाहरणों पर फिर से गौर कीजिए जिन्हें मैंने शुरू में ही गिनाया है. मोदी-भाजपा (आरएसएस) दौर में आगे हम कथित छद्म-धर्मनिरपेक्ष कचरे की पुरजोर ‘सफाई’ की उम्मीद कर सकते हैं, चाहे वह रामधुन हो या संविधान की प्रस्तावना. और जनसंख्या वृद्धि (मुसलमानों की) पर खास ध्यान दिया जा सकता है.
दिवंगत प्रो. स्टीफन कोहेन से एक बार पूछा गया था कि अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआइए को वाजपेयी सरकार द्वारा किए गए पोखरण-2 परमाणु परीक्षणों की भनक तक क्यों नहीं लगी, तो उनका मशहूर जवाब था कि जासूसों के साथ मुश्किल यह है कि वे कभी वे चीजें नहीं पढ़ते जिन पर ‘क्लासिफायड’ का ठप्पा नहीं लगा होता, जैसे भाजपा का चुनावी घोषणापत्र. अगर उन्होंने उसे पढ़ा होता तो उन्हें मालूम होता कि वह सरकार सत्ता संभालते ही परीक्षण करेगी. आज मोदी सरकार और भाजपा के बारे में हमारी जो समझ है उसे इस कसौटी पर कसिए. उनकी किताबों को पढ़ना शुरू कर दीजिए. किसी के ऊपर ‘क्लासिफायड’ का ठप्पा नहीं लगा है.
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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