तथाकथित ‘First world’ – संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और उत्तरी यूरोप – लंबे समय से कई भारतीयों का सपना रहा है. पढ़ाई, काम और अगर किस्मत साथ दे तो घर कहलाने की जगह. बस भारतीयों द्वारा वहां पहुंचने के लिए किए गए प्रयासों को देखें – चाहे कानूनी रास्ते से हो या जोखिम भरे, अवैध रूट. विदेश में बेहतर ज़िंदगी की निरंतर खोज इस उम्मीद की गहराई को दिखाती है.
लेकिन दूसरी तरफ सच्चाई बदल रही है. दरवाजे उतने खुले नहीं हैं जितने पहले लगते थे. अगर कुछ भी हो, तो राजनीतिक रुझान बताते हैं कि संरक्षणवाद और इमिग्रेशन के प्रति प्रतिरोध केवल बढ़ रहा है. इन देशों से साफ मैसेज है: अंदर जाना पहले जितना आसान नहीं है, और रहना तो और भी मुश्किल है.
डोनाल्ड ट्रंप के पदभार संभालने के बाद, भारत में अवैध अप्रवासियों की कहानियां गूंजने लगीं, जो अपने अमेरिकी सपने के लिए सब कुछ जोखिम में डाल रहे हैं – कड़ी मेहनत से कमाए गए भारी-भरकम पैसे से लेकर अपनी जान तक. कई लोगों के लिए, यह बात समझ में नहीं आती. अगर किसी के पास इतना पैसा है और घर पर अच्छी ज़िंदगी गुज़र रही है, तो उसे अवैध इमिग्रेशन का खतरा क्यों उठाना है.
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अमेरिकी सपना
लोग हमेशा यह नहीं समझते हैं कि पश्चिमी दुनिया का हिस्सा बनने का यह सपना सिर्फ अच्छा पैसा कमाने के बारे में नहीं है. कुछ भारतीयों के लिए इसके अलग मायने हैं — एक ऐसी दुनिया का हिस्सा बनने की लालसा जिसमें निश्चित विशेषाधिकार हो, एक ऐसा दर्ज़ा जिसे सिर्फ पैसे से नहीं खरीदा जा सकता. यह सिर्फ धन-संपत्ति के बारे में नहीं है; यह एक ऐसी व्यवस्था, एक समाज, एक ऐसी जीवन शैली से जुड़ा होना है जो घर पर पहुंच से काफी दूर लगती है.
जबकि अवैध इमिग्रेशन हमेशा से चर्चा का विषय रहा है, लेकिन विदेश में पढ़ाई, काम या बसने के लिए कानूनी रास्ता अपनाने वालों के लिए भी चीज़ें बदल रही हैं. संख्याएं अपनी कहानी खुद बयां करती हैं: 2024 तक 331,602 भारतीय छात्र अमेरिका में हैं — पिछले शैक्षणिक वर्ष की तुलना में 23 प्रतिशत ज़्यादा — जबकि 427,000 कनाडा के संस्थानों में नामांकित हैं.
लेकिन इन आंकड़ों के पीछे चिंता बढ़ती जा रही है. इमिग्रेशन पर बदलती नीतियों और बदलती राजनीतिक बयानबाज़ी के साथ, दोनों देशों के छात्रों को अब दिक्कतों का एहसास होने लगा है. सवाल अब सिर्फ वहां घुसने का नहीं है — बल्कि यह है कि आगे क्या होगा. क्या उन्हें अब भी वही मौके मिलेंगे? या क्या स्टूडेंट वीज़ा को दीर्घकालिक प्रवास में बदलने की उम्मीद रखने वालों के लिए दरवाज़ा धीरे-धीरे बंद हो रहा है?
अपने पहले कार्यकाल के दौरान, ट्रंप ने अपनी इमिग्रेशन पॉलिसी को “श्रम भ्रम” पर आधारित बनाया — यह दोषपूर्ण विचार कि नए श्रमिकों को एक निश्चित संख्या में नौकरियों के लिए प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए. इस तर्क का उपयोग करते हुए, उनके प्रशासन ने कोविड-19 महामारी के दौरान वीज़ा धारकों और इमिग्रेशन को ब्लॉक कर दिया, विदेश में जन्मे वैज्ञानिकों और इंजीनियरों के रास्ते में नई बाधाएं खड़ी कीं और सभी क्षेत्रों में इमिग्रेशन रूल्स को कड़ा कर दिया.
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इमिग्रेशन की मुश्किलें
इसमें चौंकने जैसा कुछ नहीं है कि भारतीय स्टूडेंट ट्रंप 2.0 का बिल्कुल भी इंतज़ार नहीं कर रहे थे. हालांकि, उन्होंने अक्टूबर 2024 में ऑल-इन पॉडकास्ट पर कहा था कि “जब हम हार्वर्ड, एमआईटी और अन्य बेहतरीन स्कूलों से लोगों को खो देते हैं तो यह बहुत दुखद होता है” और अमेरिकी कॉलेजों से ग्रेजुएट करने वाले अंतर्राष्ट्रीय छात्रों को स्वचालित ग्रीन कार्ड देने का सुझाव दिया क्योंकि अभियान के दौरान शब्द एक चीज़ होते हैं और असल नीति दूसरी और अगर इतिहास कोई संकेत देता है, तो इमिग्रेशन बाधाओं का डर गलत नहीं है.
ऐसी खबरें भी आई हैं कि ट्रंप के तहत सख्त नीतियों के डर से भारतीय छात्र अंशकालिक काम में कटौती कर रहे हैं. यह इस बात का संकेत है कि अमेरिका में छात्रों के भविष्य पर कितनी अनिश्चितता मंडरा रही है. यहां तक कि कनाडा — जिसे अक्सर इमिग्रेशन-अनुकूल विकल्प के रूप में देखा जाता है — हाल ही में राजनयिक तनाव के कारण अपने दरवाज़े बंद कर रहा है.
2024 में कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने 2025 में इंटरनेशनल स्टूडेंट स्टडी परमिट के लिए प्रवेश सीमा में कमी करने की घोषणा की. कनाडा की सरकार ने 2026 तक अस्थायी निवासियों की हिस्सेदारी को जनसंख्या के पांच प्रतिशत तक कम करने का लक्ष्य भी निर्धारित किया.
हालांकि, यह बात नहीं है. ट्रूडो सरकार ने पिछले साल नवंबर में अचानक स्टूडेंट डायरेक्ट स्ट्रीम (एसडीएस) पहल को समाप्त कर दिया, यह एक ऐसा प्रोग्राम था जो कभी भारतीय आवेदकों के लिए वीज़ा के प्रोसेस को आसान बनाता था और यह यहीं नहीं रुका — कनाडा ने स्टडी के बाद के वर्क वीज़ा नियमों को भी कड़ा कर दिया है. अब, पोस्ट-ग्रेजुएशन वर्क परमिट (PGWP) के लिए आवेदकों को अपने आवेदन के हिस्से के रूप में अपनी भाषा दक्षता साबित करनी होगी. इस बदलाव ने उन भारतीय छात्रों की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं, जो कनाडा को पढ़ने, काम और अंततः बसने के लिए एक विश्वसनीय मार्ग के रूप में देखते थेय ज़ाहिर है, यहां तक कि वे देश भी जो कभी प्रवास के लिए “सुरक्षित दांव” माने जाते थे, अब अपने खुलेपन पर पुनर्विचार कर रहे हैं.
इस पर भी गौर किया जाना चाहिए कि कनाडा उन देशों में से एक है, जिसने ट्रंप प्रशासन द्वारा 5 मिलियन डॉलर के ‘गोल्ड कार्ड’ के साथ आने से बहुत पहले ही इन्वेस्टमेंट वीज़ा प्रोग्राम शुरू कर दिया था.
हालांकि, आइए इसे केवल ट्रंप के बारे में मत बनाइए, या उन्हें अमीरों के किसी विशेष चैंपियन के रूप में चित्रित मत करिए. बड़ा मुद्दा नए अमेरिकी राष्ट्रपति या उनकी नीतियों का नहीं है, बल्कि दुनियाभर की इमिग्रेशन सिस्टम के संचालन की सच्चाई का है. पैटर्न एक है: अगर आपके पास पैसा है, तो बॉर्डर महज़ औपचारिकता हैं. अगर आपके पास पैसा नहीं है, तो लगातार मुश्किल होते इमिग्रेशन के चक्रव्यूह से बाहर निकलने में आपको सफलता मिलेगी. ट्रंप का गोल्ड कार्ड वीज़ा प्रस्ताव केवल उस प्रणाली पर प्रकाश डालता है जो हमेशा अमीरों के पक्ष में रही है.
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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