टाइटल हाइपथेटिकल लग रहा हो तो न्यू नार्मल दौर की इस सामान्य खबर पर नजर डालिए. दुनिया के सबसे बड़े शेयर बाजार वॉल स्ट्रीट ने पानी को कमोडिटी मान कर उसका व्यापार शुरू कर दिया है ठीक गोल्ड, क्रूड और दूसरी तमाम कमोडिटी की तरह ही. पानी का ताजा रेट जानने के लिए कृपया गूगल कर लें.
नदियों और दूसरे जल स्रोतों को लेकर चल रही सरकारी चर्चा और चिंता में बाजार के शब्दों का बढ़ता उपयोग बताता है कि भारत में नदियों का पानी तेजी से डेवलप होती कमोडिटी है. इसकी शुरुआत प्रधानमंत्री ने ‘अर्थ गंगा’ कहकर की है. उनके इस जुमले के बाद पूरी मशीनरी गंगा को आर्थिक मॉडल बनाने में जुट गई. पिछले दिनों हुए इंडिया वाटर इम्पेक्ट समिट में जलशक्ति सचिव यूपी सिंह ने अपने भाषण में बाजार की तर्ज पर पानी की मांग और पूर्ति पर चर्चा की. उनके भाषण में कहीं भी नदी की अविरलता का जिक्र नहीं था, उनके क्या किसी भाषण में नदी की अविरलता पर बात नहीं हुई, मानों सरकार ने ‘नदी बहेगी’ के विचार से ही गिवअप कर लिया है.
यह समिट जल निकायों, स्थानीय नदियों के व्यापक विश्लेषण और प्रबंधन समेत जल सुरक्षा और प्राकृतिक जल निकायों के कायाकल्प पर चर्चा के लिए आयोजित किया गया था. समिट में इस बात की भरपूर चर्चा हुई कि विदेशी तकनीकें कैसे गंगा के अर्थशास्त्र को बढ़ा सकती है. भविष्य में पानी का बाजार क्लाइमेट चेंज, सिंचाई की जरूरतें, सूखा और बाढ़ के डाटा के आधार पर तय होगा. पानी से जुड़े एनजीओ और सरकारी संस्थाएं भूमिगत जल और नदी के पानी के उपलब्धता के डाटा पर ही काम कर रहे हैं. इन डाटा के बड़े खरीददार बड़ी वॉटलिंग कंपनियां और थिंक टैंक टाइप के एनजीओ है.कुलमिलाकर देश में पानी को कमोडिटी के रूप में स्वीकार करने और व्यापार करने का माहौल बनाया जा रहा है.
सरकारी बाबू भी दबी आवाज में वाटर के कमोडिटी के रूप में ट्रेड करने का समर्थन करते हैं, तर्क यह है कि इससे पानी का दुरुपयोग रुकेगा और जहां पानी की वास्तव में जरूरत है वहां पहुंचेगा. लेकिन सवाल यह है कि आज कौन सा नियम पानी के ट्रांसपोर्टेशन को रोक रहा है. नहरे बनी हुई है और लगातार बन रही है लेकिन वे सूखी है क्योंकि नहरे बनाई जा सकती हैं नदी और पानी नहीं. पानी के कार्पोटाइजेशन का मतलब है जेब के हिसाब से पानी की उपलब्धता नाकि प्रकृति के नियम से. सरकार का काम है पानी का सामान और न्यायसंगत उपलब्धता सुनिश्चित करना नाकि पानी को बाजार के हवाले कर देना.
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डाक गंगा से लेकर अर्थ गंगा तक
एक बानगी देखिए, राजस्थान में नसीराबाद- भीलवाड़ा ट्रेन को नदी ट्रेन कहा जाता है, यह ट्रेन करीब चार महीने भीलवाड़ा के बड़े इलाके को पानी की सप्लाई करती है. इस कोशिश से यहां के सैकड़ों गांवों को हर तीन दिन में एक बार पीने का पानी मिल पाता है, बाकि जरूरतों को तो भूल ही जाईए. अब यदि ट्रेन ट्रांसपोर्टेशन के हिसाब से पानी की कीमत की गणना की जाए तो भीलवाड़ा के गांव तो छोड़िए शहर के बड़े – बड़े लोग भी उस पानी को नहीं खरीद पाएंगें.
समाज चाहे ना चाहे पानी का बाजार तेजी से बढ़ रहा है, विडंबना यह है कि सरकार भी पानी के बाजारीकरण को ही एकमात्र इलाज मान रही है.
डाक द्वारा गंगा जल उपलब्ध कराने का विचार प्रकट तौर पर यह था कि आस्थावान लोगों को गंगाजल आसानी से उपलब्ध हो जाए. अब तक डाक विभाग लाखों रूपए का गंगा जल वितरित कर चुका है, इस योजना के लागू होने के समय निजी क्षेत्र ने इस काम को अपने हाथ लेने में रुचि दिखाई थी. जल्दी ही यह योजना डाक विभाग के हाथ से निकलकर निजी हाथों में पहुंचने की आशंका है.
पानी को कमोडिटी के रूप में पेश करने की योजना तैयार की जा रही है, अर्थ गंगा इसकी शुरुआत है. सरकार गंगा जल को एक कमोडिटी के रूप में स्थापित करने से पहले देश में माहौल बनना चाहती है , उसका तरीका है कि गंगा की सीटूसी यानी कास्ट टू कंट्री को प्रचारित किया जाए. इससे गंगा की अमीरी पर चर्चा होगी.
एक बार जब गंगा के सभी रूपों यानी आस्था के बाजार, मंदिरों की अर्थव्यवस्था, फिशरीज कैपीसिटी और सिंचाई क्षमता आदि का बाजार मूल्य निकाल लिया जाएगा तब गंगा के व्यापारीकरण में आसानी होगी. यही कारण है कि सरकारी तस्वीरों में गंगा के सुंदर दिखाने पर जोर दिया जा रहा है वे जानते हैं पवित्र की पवित्रता मैंटेन करना मुश्किल है तो बेहतर है उसे सूंदर दिखा दिया जाए. तब तक आप यह मान कर चल सकते हैं कि वाल स्ट्रीट की घटना एक आसमानी घटना है उसका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)
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