टाइटल अजीब लग रहा हो तो इस घटना पर गौर कीजिए- मुंबई से तकरीबन 250 किलोमीटर दूर रत्नागिरी जिले में तिवारे नाम का एक बांध था. 2004 में बना बांध 15 साल की सेवाओं के बाद टूट गया. कई दिनों से हो रही मूसलाधार बारिश वह झेल नहीं पाया और ढह गया. बांध टूटने से आए जलजले में 18 लोग मर गए, 25 से ज्यादा अब भी लापता है और हजारों एकड़ की खड़ी फसल तबाह हुई उसका तो कहना ही क्या!
अब महाराष्ट्र के जल संवर्धन मंत्री तानाजी सावंत ने बयान दिया कि केकड़ों ने बांध में लीकेज ला दिया जिससे हादसा हुआ. यानी हजारों–लाखों केकड़ों ने मिलकर बांध को गिरा दिया. लेकिन तानाजी के बयान पर हंसने या गुस्सा करने से पहले एक वैधानिक और संवैधानिक तथ्य जान लीजिए. देश का बड़े से बड़ा बांध, यानी टिहरी, भांखड़ा नांगल, फरक्का, इंदिरा सागर, महाराणा प्रताप सागर आदि–इत्यादि, यदि हादसे का शिकार होता है और कितना भी जान-माल का नुकसान होता है तो जिम्मेदारी किसी की नहीं होगी.
‘किसी की नहीं’ का मतलब किसी की नहीं- केंद्र सरकार की जिम्मेदारी नहीं होगी, जिस राज्य में बांध है उसकी भी जिम्मेदारी नहीं होगी (भले ही पानी राज्य-सूची का विषय है), बांध बनाने वाले ठेकेदार या कंपनी की जबावदारी का कोई प्रावधान ही नहीं है, बांध संचालन कंपनी भी बांध टूटने पर जबावदार नहीं है और तो और पानी और नदी की सभी संस्थाओं को जोड़कर बनाए गए जलशक्ति मंत्रालय का भी बांध टूटने से कोई लेना देना नहीं है. संविधान में बांध तो छोड़िए नदी सरंक्षण का भी कोई प्रावधान नहीं है. (नीति निर्देशक तत्वों में कहा गया है कि लोग नदियों की रक्षा करें.)
तकरीबन चालीस साल पहले संसद में बांध सुरक्षा बिल लाया गया, जो आज तक यानी 2019 तक भी पास नहीं हो सका है. जिसमें प्रावधान है कि नदियों की छाती पर किए गए निर्माण की चौकसी, निरीक्षण, रखरखाव और परिचालन सही तरीके से हो और जिम्मेदारी तय की जा सके. ध्यान रहे ये प्रावधान पूरी तरह उस ढांचे की सुरक्षा के लिए है नाकि उसके दायरे में आने वाले समाज के लिए. लोगों की जान-माल और फसलों के नुकसान के मुआवजे पर कोई बात नहीं है.
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बहरहाल बिल इस बार भी केंद्र और राज्य की लड़ाई में फंस कर उलझ गया. झगड़ा इस बात पर नहीं है कि बांध की सुरक्षा कौन करेगा. झगड़ा बजट और अधिकार के मुद्दे पर है. राज्यों का कहना है कि बांध उनके क्षेत्र में है इसलिए सुरक्षा बजट उन्हें दिया जाना चाहिए, यह भी आशंका है कि केंद्र बांधों पर नियंत्रण के जरिए राज्यों के अधिकारों पर कटौती करना चाहती है. बांधों की सुरक्षा के लिए जिस केंद्रीय समिति का प्रस्ताव है उसमें भी राज्यों की भूमिका ना के बराबर है. बजट और अधिकार की इस लड़ाई में नदी और नदी पथ का समाज पिस रहा है.
बजट का मुद्दा सिर्फ केंद्र और राज्यों के बीच नहीं है, यह कई राज्यों के बीच आपसी तनाव का मुद्दा भी है. क्योंकि हमारे देश में अब तक बने 10 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले 5344 बांधों में से 92 फीसद बांध अंतरराज्यीय सीमा पर बने हैं यानी बांध एक राज्य में है और नदी का निचला बहाव वाला हिस्सा दूसरे राज्य में बह रहा है. पानी पर अधिकार की यह लड़ाई सिर्फ कावेरी विवाद तक सीमित नहीं है. यह तकरीबन हर राज्य और हर नदी पर है. जल्दी ही नर्मदा के पानी को लेकर गुजरात और मध्यप्रदेश के बीच सिर फुटौव्वल की नौबत आ सकती है. नर्मदा विवाद अब तक इसलिए दबा हुआ था क्योंकि दोनों ही राज्यों में एक ही दल की सरकार थी.
विवाद वाली नदियों की एक लंबी सूची है. हर वह नदी जो दो या अधिक राज्यों में बहती है उस पर विवाद है. पानी पर अधिकार की यह लड़ाई धीरे–धीरे आलाकमान, विचारधारा और संविधान को दरकिनार कर रही है. पिछले साल दिवंगत मनोहर पर्रिकर ने आलाकमान के कहने पर घोषणा कर दी थी कि गोवा महादई नदी का पानी कर्नाटक के लिए छोड़ेगा. गोवा में विरोध हुआ और कर्नाटक में जश्न मना. पर्रिकर ने अपने कदम पीछे खींच लिए नतीजन गोवा और कर्नाटक दोनों जगह बीजेपी को चुनाव में नुकसान उठाना पड़ा.
ऐसा नहीं है कि केंद्र की नीयत एकदम साफ है. पिछले साल प्रस्तावित रिवर बेसिन मैनेजमेंट बिल भी बांधों और नदियों पर केंद्रीय नियंत्रण की कोशिश का नमुना है. इस विधेयक के कानून रूप लेने के बाद जिन नदियों के लिए रिवर बेसिन अथॉरिटी का गठन किया जाना है. उनमें गंगा बेसिन,गोदावरी बेसिन, ब्रह्मपुत्र-बराक और पूर्वोत्तर की अन्य नदियों के बेसिन, महानदी बेसिन, माही बेसिन, नर्मदा बेसिन, पेन्नार बेसिन, स्वर्णरेखा बेसिन और तापी बेसिन शामिल है. बेसिन का मतलब है मुख्य धारा और उसकी सहायक नदियां और उनके किनारों पर मौजूद घाटियां, मैदान, जंगल और बसाहट. मुख्य धारा से तात्पर्य है, नदी जो समुद्र तक जाती है.
चिंता की बात यह है कि अथॉरिटी सिर्फ जल प्रबंधन और पानी के बंटवारे पर राज्यों के विवाद सुलझाने की दिशा में काम करेगी. इस बिल में नदी के पानी पर नदी के हिस्से की कोई बात नहीं है. एक तरह से यह नदी के सर्वोच्च दोहन की व्यवस्था भर प्रतीत हो रही है. दिल्ली सहित चार राज्यों में बहने वाली यमुना तकनीकी रूप से एक नदी भी नहीं रही क्योंकि उसके जल पर उसका कोई हिस्सा ही नहीं है, पूरा शत प्रतिशत जल विभिन्न सामाजिक जरूरतों के लिए राज्यों द्वारा आपस में बांट लिया गया है.
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पूरे रिवर बेसिन मैनेजमेंट बिल में यह कहीं नहीं लिखा है कि नदी या बांध में हुए हादसे की वजह से प्रभावित नदी के पथ के लोगों का क्या होगा और फसल और जानवरों के डूब जाने पर मुआवजा क्या और किस दर पर दिया जाएगा.
पर्यावरणीय नुकसान के आकलन पर सरकार ने काफी पहले ही बात करना बंद कर दिया है. कई बांध अपनी उम्र सीमा पूरी कर चुके है. 293 बांधों की उम्र तो सौ साल पार हो चुकी है. इसलिए अपना इंतजाम करके रखिए ताकि कोई हादसा हो तो आप यह जानने लिए जीवित रहें कि किस मछली या केकड़े की वजह से बांध टूटा था.
(अभय मिश्रा लेखक और पत्रकार हैं. यह लेखक का निजी विचार है .)