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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतमोदी अगर मानते हैं कि यह एक लोकतांत्रिक देश है तो उन्हें विरोधियों को बदनाम करने से बचना चाहिए

मोदी अगर मानते हैं कि यह एक लोकतांत्रिक देश है तो उन्हें विरोधियों को बदनाम करने से बचना चाहिए

बेहतर होता की केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल यह कहकर किसान आंदोलन का अनादर करने की कोशिश न करते कि उसके पीछे वामपंथियों का हाथ है क्योंकि ऐसा करने से हम यह नहीं समझ पाएंगे कि किसानों में आक्रोश क्यों है.

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देश के नये संसद भवन का शिलान्यास करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि भारत जैसे जीवंत लोकतंत्र में मतभेदों के लिए तो जगह हो सकती है मगर विच्छेद के लिए नहीं. यह इस तथ्य का स्वागतयोग्य स्वीकार है कि भारत के लोग वाद-विवाद प्रेमी हैं, वे तर्क-वितर्क को पसंद करते हैं, अपने संसार को जानने-समझने को उत्सुक रहते हैं और नये विचारों को सुनने-समझने के लिए तैयार रहते हैं चाहे वे किसी भी स्रोत से आ रहे हों. ऐसा इसलिए है कि भारत सचमुच चौराहे वाली संस्कृति का देश है, इसका वर्तमान विविध नस्लों और संस्कृतियों से जुड़ाव के लंबे इतिहास से तय हुआ है.

यह जुड़ाव भले ही आक्रमण, विस्थापन, व्यापार या धर्म प्रचार मिशन की वजह से हुआ हो लेकिन इसने विविधताओं से भरे एक ऐसे बहुलतावादी समाज का निर्माण किया, जो विश्व बंधुत्व की भावना से ओतप्रोत रहा. इसके लोगों में न तो जाति या धर्म को लेकर एकरूपता है और न भाषा या परंपरा को लेकर. इसका राष्ट्रवाद साझा ऐतिहासिक अनुभवों, सांस्कृतिक समृद्धि के साझा प्रयासों और भारत नामक विचार के प्रति गहरे लगाव से निर्मित हुआ है. यह राष्ट्रवाद अपनी सबसे सकारात्मक और गतिशील मुखरता में सबको साथ जोड़े रखने वाला, किसी को अलग-थलग न करने वाला रहा है. यह साझी मानवता की भावना से ओतप्रोत रहा है.

उम्मीद है, मोदी इसी जुड़ाव की बात कर रहे थे क्योंकि साझा मानवता के इस एहसास के बिना यह जुड़ाव भला तब कैसे संभव है जब हम एक-दूसरे से असहमत हों, जो कि कभी-कभी जरूरी भी है? जो लोग अलगाव के जरिए अपनी पहचान बनाना चाहते हैं वे अपने लिए अवसरों को कम करते हैं, जो लोग एकरूपता चाहते हैं उन्हें ऐसा उजाड़ रेगिस्तान हासिल होता है जो उस सबको सुखा डालता है जिन्हें हम बचा कर रखना चाहते हैं. इतिहास हमें यही दिखाता है कि संस्कृतियां तभी समृद्ध होती हैं जब इसकी साझा कोशिश की जाती है, विचारों का विकास बहस से होता है और ‘ज्यादा खतरनाक वे सवाल नहीं होते जिनके कोई जवाब नहीं होते बल्कि ज्यादा खतरनाक वे जवाब होते हैं जिन पर सवाल नहीं उठाए जा सकते’.


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व्यापक एकता

राजनीतिक लोकतंत्र ने भारत की मिट्टी में इसलिए जड़ जमाया क्योंकि यह मिट्टी जिन मूल्यों को पोषण देती है वे एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में उसकी जद्दोजहद के साथ जुड़े रहे हैं, उस राष्ट्र के रूप में जिसने सदियों तक अपनी आकांक्षाओं की दबी-दबी अभिव्यक्ति के बाद अपनी मुखरता हासिल की है. भारतीय संविधान इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण है. यह इस तथ्य की पुष्टि करता है कि भारत जैसे विविधताओं वाले देश में एकता अनगिनत पहचानों को दबाने से नहीं बल्कि तभी हासिल हो सकती है जब इन पहचानों से ऊपर उठकर उन्हें एक नागरिकता की साझा भावना में ढाला जाएगा.

नागरिकता जब व्यक्तिगत एवं अपरिहार्य अधिकारों के अपने मूल आधार को छोड़ देती है तभी जाति और समुदाय आधारित पहचानों को नाइंसाफी और भेदभाव को रोकने का एकमात्र साधन माना जाने लगता है. और इसे जब आप एक मामले के लिए कबूल कर लेते हैं तो फिर दूसरे मामले के लिए इसे अवैध कैसे घोषित कर सकते हैं? अगर कोई एक जाति या समुदाय एक समूह के तौर पर किसी चीज को अपने लिए अपमानजनक मान कर उस पर वीटो लगाने का दावा करता है, तो दूसरे समूह को आप ऐसा करने से कैसे रोक सकते हैं? और भारत में कई तरह के समूह मौजूद हैं. क्या यह लाखों बगावतों का सामान नहीं है?

एक उम्मीद यह की जाती है कि हिंदू-मुस्लिम विभाजन के ऊपर एक व्यापक हिंदू एकता कायम की जा सकती है. लेकिन इसमें इस तथ्य की अनदेखी कर दी जाती है कि एक हिंदू कई दूसरी पहचानों से भी जुड़ा होता है. उदाहरण के लिए किसी भाषायी समूह से जुड़ाव, किसी जातीय समूह की सदस्यता, हिंदू धर्म के किसी विशेष धार्मिक पंथ से जुड़ाव, शायद किसी अधिक आधुनिक पेशेवर समूह या किसी निहित आर्थिक अथवा व्यवसाय समूह की सदस्यता… यह सूची अनंत हो सकती है.

भारत में ‘एक राष्ट्र, एक भाषा’ वाली स्थिति बनने की संभावना बहुत कम है. अगर इस बात की भनक भी लग जाए कि कोई सरकार इसे हासिल करने की सोच रही है तो खतरनाक राजनीतिक प्रतिक्रियाएं होने लगेंगी. अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के कुछ पैरोकार इसे सही बताने के लिए तर्क देते हैं कि अगर ईसाई लोगों का अपना वैटिकन हो सकता है, मुसलमानों का अपना मक्का हो सकता है तो हिंदुओं की अपनी अयोध्या क्यों नहीं हो सकती? लेकिन क्या यह हिंदू धर्म की इस मूल धारणा को संकुचित करना नहीं होगा कि यह एक ऐसी आस्था है जो किसी सीमा में बंधी नहीं है?


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ठप्पे लगाना बंद कीजिए

प्रधानमंत्री ने एक-दूसरे से बात करने और एक-दूसरे की बात सुनने की भारतीय परंपरा की बात की और इसे भारतीयों के तौर पर एक-दूसरे से जुड़ने की हमारी क्षमता का एक हिस्सा बताया. लेकिन इसमें यह तथ्य अंतर्निहित है कि दूसरा जो कह रहा है उस पर ध्यान देने को हम तैयार हैं, वरना यह बहरों के बीच का संवाद होगा. हम सुनते तो हैं मगर ध्यान नहीं देते. और, जैसे ही हम संवाद करने वाले पर ठप्पा लगाना शुरू करते हैं, हम उसकी बातों पर ध्यान देने की जरूरत से मुक्त हो जाते हैं.

अगर विरोध कर रहे किसानों के बीच खालिस्तानी, माओवादी और भड़काऊ वामपंथी घुसे हुए हैं, तो सरकार को क्या उनकी बातों पर ध्यान देने की जरूरत रह जाती है? अगर हमारे यहां के मुस्लिम समुदाय में कुछ ऐसे संदिग्ध तत्व हैं जो पाकिस्तान समर्थकों को संरक्षण दे रहे हैं, तो क्या उन्हें कुछ कहने की छूट दी जा सकती है? अगर कुछ लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता ‘अर्बन नक्सल’ हैं, तो क्या उन्हें बोलने से नहीं रोका जाना चाहिए? या इससे भी बेहतर उन्हें जेल में नहीं डाल देना चाहिए?

लोगों को बोलने और उन पर ध्यान देने से रोकने के लिए उन पर लगाए जाने वाले ठप्पों की कोई कमी नहीं है. ठप्पे जुड़ाव में बाधक बनते हैं. अगर प्रधानमंत्री मोदी भारतीय लोकतंत्र का सचमुच सम्मान करना चाहते हैं, तो उन्हें ठप्पेबाजी के इस चलन को तुरंत बंद करना चाहिए. उनके वाणिज्य मंत्री को किसानों के आंदोलन के पीछे वामपंथियों का हाथ नहीं देखना चाहिए और इसका अनादर नहीं करना चाहिए. ऐसा करने से यह समझने का रास्ता खुलता नहीं बल्कि बंद होता है कि इस कड़ाके की ठंड और पुलिस दमन के बावजूद किसान आंदोलन क्यों कर रहे हैं.

भारत इतनी विविधताओं से भरा देश है कि इसे किसी एक रंग के खांचे में नहीं ढाला जा सकता. यह कई रंगों और उनके बीच उनकी कई छवियों से बुना तानाबाना है. आगे बढ़ने का रास्ता यही है कि रंगों के इस तानेबाने को और विविध तथा और जीवंत बनाया जाए. इस या उस रंग को इस तानेबाने से बाहर करने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला हर ठप्पा पूरे तानेबाने को ही बदरंग करता है. ठप्पे हमारी विविधता की साझीदारी और उनका सम्मान करने में बाधक बनते हैं. वे हमें आपस में जुड़ने से रोकते हैं. आइए, ‘ठप्पों’ के बूते सरकार चलाने से बाज आएं.

(लेखक पूर्व विदेश सचिव हैं और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में वरिष्ठ फेलो हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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