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गुरूवार, 15 मई, 2025
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टमोदी अगर सच्चे सुधारक हैं तो वे वोडाफोन के प्रेत को दफन करेंगे और बिहार के चुनाव प्रचार में आर्थिक सुधारों को मुद्दा बनाएंगे

मोदी अगर सच्चे सुधारक हैं तो वे वोडाफोन के प्रेत को दफन करेंगे और बिहार के चुनाव प्रचार में आर्थिक सुधारों को मुद्दा बनाएंगे

हम देख चुके हैं कि चुनावों में आर्थिक सुधारों और वृद्धि आदि की बात करने का क्या हश्र होता है, खासकर तब जब आप दोबारा सत्ता में आने के लिए लड़ रहे हों, इसलिए बिहार के इस अहम चुनाव में कोई ‘पंगा’ न लेना ही मोदी को मुफीद नज़र आएगा.

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राजनीतिक टीकाकारों का कभी-कभी बौद्धिक कलाबाज कहकर मखौल उड़ाया जाता है. तो लीजिए, हम इसे सही साबित करते हुए वोडाफोन के एक मामले पर अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल के फैसले और आगामी बिहार चुनाव के बीच एक रिश्ता जोड़ रहे हैं. इस शुक्रवार को जब मैं यह कॉलम लिखने बैठा, भारत सरकार ने वोडाफोन पर पिछली तारीख से 20,000 करोड़ रुपये का जो टैक्स ठोक दिया था उसे अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल ने खारिज कर दिया, और चुनाव आयोग ने बिहार विधानसभा के चुनाव के तारीखों की घोषणा कर दी.

अपनी-अपनी तरह से ये दोनों मामले नयी अर्थव्यवस्था और राजनीति की ओर से पुरानी के खिलाफ एक चुनौती और एक अवसर भी पेश कर रहे हैं. वोडाफोन पर आदेश तब आया है जब इसके लेखक, और पिछले तीन दशक में अर्थव्यवस्था और राजनीति, दोनों के पुराने संस्करण में सबसे ज्यादा विश्वास करने वाले प्रणव मुखर्जी कुछ ही दिनों पहले गुजर गए. इससे यही जाहिर होता है कि दो तरह की पुरानी धारणा रखने वाला कोई व्यक्ति राज्यसत्तावादी भी हो सकता है. प्रणव मुखर्जी ऐसे ही थे.

उनके साथ दशकों तक संवाद करने के कारण मैं कह सकता हूं कि उनके जैसा राज्यसत्तावादी मुझे दूसरी कोई सार्वजनिक हस्ती नहीं मिली. वोडाफोन पर आया फैसला सुनकर वे आगबबूला हो जाते और दांत भींचते हुए कहते — वे कौन हैं? हम संप्रभु देश हैं! उन्होंने इसे तुरंत चुनौती दी होती और गणतन्त्र की पूरी ताकत इसके खिलाफ लगा दी होती.

उनके संस्मरणों के तीसरे खंड के बारे में मैं इससे पहले इस कॉलम में लिख चुका हूं. बचाव की मुद्रा न अपनाते हुए उन्होंने दावा किया था कि इस संशोधन के बारे में कोई कुछ भी कहे, पिछले दस साल में किसी ने इसे उलटने की हिम्मत नहीं की. इनमें तीन साल नरेंद्र मोदी सरकार के भी शामिल हैं. इस पर उनका निष्कर्ष यह था कि इस आइडिया में इतना राजनीतिक आकर्षण है कि न तो 1991 वाले आर्थिक सुधारों के जनक मनमोहन सिंह ने, और न ‘गुजरात मॉडल’ वाले सुधारक मोदी ने इसे चुनौती दी.


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मोदी सरकार जिसे बड़े गर्व से सुधारों का अपना सबसे साहसी कदम बताती हुए अपने विरोधियों पर कटाक्ष करती है कि आप तो कह रहे थे कि हमने सुधारों का कोई बड़ा धमाका नहीं किया, तो इन सुधारों को आपका क्या कहेंगे? कृषि और श्रम के क्षेत्रों में किए गए इन सुधारों से उन मतदाताओं की ओर से कुछ समय के लिए असंतोष उभरेगा, जो पहले ही आर्थिक कष्ट झेल रहे हैं. गौरतलब है कि इन सुधारों के बाद पहला चुनाव बिहार में होने जा रहा है.

देखने वाली बात यह होगी कि इस चुनाव में मोदी और अमित शाह किस तरह अपना अभियान चलाते हैं और उससे क्या संकेत उभरते हैं. क्या वे अपने इन बड़े सुधारों, बदलावों और जोखिम मोल लेने की अपनी हिम्मत का महिमागान करेंगे? या इस सबसे बचते हुए केवल यह चर्चा करेंगे कि कोरोना महामारी में उनकी सरकार ने किस तरह मुफ्त अनाज और नकदी बांटी?

राजनीति का तकाजा तो यही कहेगा कि चुनाव अभियान में सुधारों, या उनके कारण भविष्य में आने वाली खुशहाली के वादे करने से बचना चाहिए. जैसा कि मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने अपने संस्मरण ‘बैकस्टेज’ में लिखा है और हमारे ‘ऑफ़्फ़ द कफ’ शो में भी कहा, भारत में आर्थिक सुधार चुपके से ही किए जाते हैं.

कोई भी नेता आर्थिक सुधारों को वोट-दिलाऊ कदम नहीं मानता है. उनके मुताबिक, पुरानी, गरीबीवादी अर्थनीति ही वोट दिलाती है. मेरा मानना है कि 2019 में सुस्त अर्थव्यवस्था के बावजूद मोदी ने जोरदार जीत मुख्यतः रसोई गैस, शौचालय, ‘मुद्रा’ कर्ज जैसी जनकल्याण योजनाओं के कारण हासिल की, जिनका गरीबों पर व्यापक प्रभाव पड़ा था. अब देश के सबसे गरीब राज्य बिहार के चुनाव के लिए मोदी क्या उपाय करेंगे?

इसीलिए, वोडाफोन पर ट्रिब्यूनल का फैसला और बिहार चुनाव मोदी के लिए दोहरी चुनौती हैं. पुरानी किस्म की अर्थनीति और राजनीति का तकाजा तो यही होगा कि वोडाफोन वाले फैसले को वे चुनौती दें, रोग को गहरा होने दें, और रेवड़ियां बांटने का तरीका बिहार में लागू करें. लेकिन अगर वे हिम्मती हैं, तो वोडाफोन वाले फैसले को विनम्रता से और बल्कि कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करके, क्योंकि इससे एक पुरानी समस्या हल होती है, बिहार चुनाव अभियान में सुधारों और समृद्धि की बातें करेंगे. यह भारत में आर्थिक मोर्चे पर नयी उम्मीदों को जगाएगा. लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि यह बिहार में उनके गठबंधन की जीत की गारंटी देगा या नहीं.

सुधारों के बाद की नयी अर्थव्यवस्था के खिलाफ पुराने राजनीतिक तर्क जोरदार हैं. सुधारों के कारण दर्द तुरंत महसूस होता है और इससे कई लोग प्रभावित होते हैं. सुधारों के लाभ देर से मिलते हैं, और फिर भी कई लोग असंतुष्ट रह जाते हैं. जरूरी नहीं कि वे इसलिए असंतुष्ट हों कि वे बुरी हालत में हैं, बल्कि इसलिए असंतुष्ट होते हैं कि दूसरे लोग उनसे बेहतर कर रहे हैं. यह वही पुरानी मानसिकता है कि अमीर तो और अमीर हो रहे हैं लेकिन गरीब पहले से बेहतर हालात में भले आए हों, मगर तुलना में तो और गरीब ही हुए हैं.


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यूपीए के सत्ता में आने के बाद 2006 में जब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भारत के दौरे पर आए थे तब राष्ट्रपति भवन में आयोजित भोज में उन्होंने अपने संक्षिप्त भाषण में इस बात को बहुत बढ़िया तरीके से रखा था. उन्होंने कहा था कि हम सब हैरान हैं कि वाजपेयी सरकार 7 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि दर हासिल करने के बाद भी हार गई. इतनी ऊंची दर हासिल करने के बाद भी कोई कैसे हार सकता है? क्लिंटन ने इसकी वजह बताते हुए कहा था कि इस वृद्धि से जिन लोगों को लाभ हुआ दिखता है उनकी संख्या उन लोगों से बहुत कम होती है जिन्हें यह महसूस होता है कि वे तो लाभ से तुलनात्मक रूप से वंचित ही रह गए. यह राजनीति की क्रूर सच्चाई है.

बहरहाल, लोगों को सुधारों का जब लाभ मिलता है तो उनकी राजनीति भी आश्चर्यजनक ढंग से बदल जाती है. पिछले तीन दशकों में बहुत हद तक मनमोहन सिंह और काँग्रेस के कारण समृद्ध हुआ शहरी मध्यवर्ग 2014 के बाद भाजपा को बढ़चढ़कर वोट दे रहा है. वास्तव में वह कॉंग्रेस और गांधी परिवार को इतना नापसंद करने लगा है कि अर्थव्यवस्था में गिरावट के लिए उन्हें ही दोष देता रहेगा और मोदी/भाजपा को वोट देता रहेगा.

जाहिर तौर पर यही वजह है कि वाम दलों और लालू यादव ने पड़ोसी राज्यों में दशकों तक शासन करते हुए आधुनिकीकरण और वृद्धि को आने नहीं दिया, वे उन्हें जातिवाद और विचारधारा की खंदकों में सड़ाते रहे.

सुधारों से होने वाली वृद्धि के साथ तीसरी समस्या यह है कि इससे असमानता बढ़ती ही है. एक पुरानी कहावत है कि समुद्र में ज्वार आता है तो वह सभी नावों को ऊपर उठा देता है लेकिन पहले वह हल्की नावों को ऊपर उठाता है. इस कहावत को बिहार पर लागू कीजिए, जो भारतीय अर्थव्यवस्था के ‘वैल्यू चेन’ में सबसे आखिरी सिरे पर है, और तेजी से प्रगति कर रहे राज्यों को सस्ते श्रम का निर्यात करता है. इसका अर्थ यह भी है कि वह सुधारों से होने वाले लाभों की कड़ी के अंतिम सिरे पर है. उसके किसान सरप्लस पैदावार नहीं करते, और वह सफ़ेद या नीली कमीज पहनने वाले लाखों कामगारों की फौज भी अचानक नहीं खड़ी कर सकता. इसलिए, इस अहम चुनाव में कोई ‘पंगा’ न लेना ही मुफीद नज़र आएगा.


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बिहार में राजनीति हमेशा जटिल रही है और स्थानीय कारक भारी पड़ते हैं. लेकिन यह लंबे समय बाद एक ‘बुरे दौर’ में होने जा रहा चुनाव है. महामारी अपने चरम पर है, और मौतें बढ़ती जा रही हैं, चीन मुश्किलें पैदा कर रहा है, और अर्थव्यवस्था तेजी से गिर रही है. इस सबके ऊपर, हम देख चुके हैं कि चुनावों में आर्थिक सुधारों और वृद्धि आदि की बात करने का क्या हश्र होता है, खासकर तब जब आप दोबारा सत्ता में आने के लिए लड़ रहे हों.

यह हम आपके इस सवाल पूछने से पहले कह रहे हैं कि क्या मोदी ने 2014 में आर्थिक वृद्धि का वादा नहीं किया था? उन्होंने किया था, मगर तब वे एक सरकार को चुनौती दे रहे थे. 2019 में वे सरकार चला रहे थे, पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब दे रहे थे और भ्रष्टाचार पर लगाम लगा रहे थे, ‘वृद्धि के गुजरात मॉडल’ की बात वे नहीं कर रहे थे. वाजपेयी ऊंची वृद्धि दर के बूते ‘इंडिया शाइनिंग’ का नारा देने के बावजूद चुनाव हार गए थे. कॉंग्रेस अभी भी यही मानती है कि वह 1996 और 2014 में आर्थिक सुधारों के कारण चुनाव हारी, और 2009 में इनके बिना भी चुनाव जीती. तो अब मोदी क्यों जोखिम मोल लेंगे?

इसीलिए, यह दोहरी जांच जरूरी है. अगर मोदी सच्चे सुधारक हैं और ‘न्यूनतम सरकार’ में विश्वास करते हैं तो वे वोडाफोन के प्रेत को दफन कर देंगे. तब वे बिहार के अपने चुनाव प्रचार में राजनीतिक रूप से विवादास्पद अपने सुधारों की भी बात करेंगे. ये दोनों काम करने के लिए उन्हें अपनी जमा राजनीतिक पूंजी को दांव पर लगाना होगा. वे ऐसा करते हैं या नहीं, इससे हमारे इस मूल सवाल का भी जवाब मिलेगा कि आर्थिक सुधारों को हमारी राजनीति के केंद्रीय मंच पर अब भी जगह दी जाएगी या नहीं? या उन्हें गुपचुप ही लागू किया जाता रहेगा?


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