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Saturday, 2 November, 2024
होममत-विमतअगर मोदी की सत्ता में वापसी नहीं होती तो उसका ज़िम्मेदार विपक्ष नहीं वो खुद होंगे

अगर मोदी की सत्ता में वापसी नहीं होती तो उसका ज़िम्मेदार विपक्ष नहीं वो खुद होंगे

इस चुनाव अभियान से अगर कुछ स्पष्ट हुआ है तो वह यह है कि मोदी में किसी भी पिच पर बल्लेबाज़ी करने और छक्के लगाने की विलक्षण प्रतिभा है.

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भारत का सबसे बड़ा और सबसे कटुतापूर्ण चुनाव अपने अंतिम चरण में पहुंचने को है. अधिकतर लोगों की अपेक्षा यही रही होगी कि अब अंतिम कुछ सप्ताहों में मतदाताओं को बताया जाता कि नरेंद्र मोदी की सरकार के पूरे कार्यकाल का रेकॉर्ड कैसा रहा, वह भविष्य के लिए क्या वादे कर रही है, विपक्ष जो कुछ कह रहा है उसके क्या विकल्प वह पेश करने जा रही है. चुनाव अभियान की शुरुआत तो बेशक इसी दिशा में हुई थी.

भाजपा ने ‘नामुमकिन अब मुमकिन है’ का नारा दिया था, तो राहुल गांधी ने सबसे गरीब लोगों के लिए ‘न्याय’ यानी न्यूनतम आय का वादा किया था. मज़बूत सरकार और गठबंधन सरकार के फ़ायदों और नुक़सानों पर बहस छिड़ी थी. लेकिन अब जो सामने आया है वह यह है कि विपक्ष की एकजुटता आधी-अधूरी दिख रही और ‘न्याय’ योजना की जानकारी कम ही लोगों तक पहुंची है. उधर, भाजपा को यह एहसास हुआ है कि विकास का उसका रेकॉर्ड उत्साहवर्धक नहीं है, तो उसने पुलवामा-बालाकोट के हमले और सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा तक का राग अलापना शुरू कर दिया. इस तरह चुनाव अभियान वास्तविकता से दूर होने लगा.


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परेशानियों को भी फायदे में बदलने की मोदी की विलक्षण प्रतिभा यहां भी काम करती नज़र आई. फौजी कारवां पर आतंकवादी हमले की खुफिया चेतावनी पर कार्रवाई करने और अपना एक लड़ाकू विमान मार गिराए जाने की शर्म से बचने में चौकीदार की विफलता को, और इस रहस्योदघाटन को -कि पाकिस्तानी वायुसेना हमारी वायुसेना के बजट के छोटे हिस्से से ही बेहतर विमान व मिसाइल तथा मजबूत सुरक्षा कम्युनिकेशन हासिल कर सकती है- गलाफाड़ चुनावी मुहिम के शोर में दबा दिया गया. इस मुहिम में बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक से लेकर मसूद अज़हर को अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी घोषित किए जाने का श्रेय लेने के दावे बढ़ चढ़कर किए गए. कांग्रेस ने बाद में अपने दौर में सर्जिकल स्ट्राइक करने तथा अन्य कामयाबियों के दावे किए मगर वे हमेशा की तरह कमज़ोर आवाज़ में ही किए गए.

राष्ट्रीय सुरक्षा पर बहस ने एक और दिलचस्प मोड़ लिया, मानो देशद्रोहियों का ‘टुकड़े-टुकड़े गिरोह’ देश के सचमुच टुकड़े-टुकड़े ही कर देने वाला हो. राष्ट्रवादियों को तो अपने देश की मजबूती पर ज़्यादा भरोसा होना चाहिए. अगर सचमुच कोई खतरा है, तो सरकार की रणनीति क्या है? नक्सल प्रभावित क्षेत्रों और जम्मू-कश्मीर में बढ़ती हिंसा तो नीतिगत विफलता को ही उजागर करती है. चीन भारत के पड़ोस में अपनी पकड़ मज़बूत कर रहा है लेकिन उसकी ओर से हमारी सुरक्षा को जो खतरा है उसकी कोई चर्चा नहीं करता.


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और अब तो हम बकवास के स्तर पर उतर आए हैं. चुनाव अभियान 25 से ज़्यादा साल पहले मारे जा चुके एक प्रधानमंत्री के आरोपों के इर्द-गिर्द सिमट गया है. नेहरू और राजीव गांधी ने जो भी पाप किए हों, क्या वे 2019 के चुनाव में मुद्दे बन सकते हैं? क्या यह सब जानबूझकर आंखें चुराने और मुद्दों को भटकाने की चाल नहीं है?

ध्यान रहे कि भाजपा ने देश की आर्थिक स्थिति के बारे में कुछ भी कहने से परहेज ही किया है. वह सिर्फ यही राग अलापती रही है कि मोदी के आने से पहले 70 साल तक कोई विकास नहीं हुआ. कांग्रेस हमेशा की तरह अपनी कमज़ोर आवाज़ में आर्थिक मंदी, निर्यात में गिरावट, और आर्थिक आंकड़ों में हेरफेर की ओर इशारे करती रही है. बढ़ती बेरोज़गारी और ग्रामीण संकट को लेकर बहुत कुछ कहा जाता रहा है मगर मोदी इनका कोई जवाब नहीं दे रहे.

सवाल यह है कि यह सब मतदाताओं को कितना महत्वपूर्ण लगता है? दलगत राजनीति में लोग तथ्यों को अपने पूर्वाग्रहों और मान्यताओं के मुताबिक चुनते हैं, खासकर तब जब कोई मज़बूत नेता सामने हो. लाखों मतदाताओं के लिए मोदी का रेकॉर्ड बेहतर नहीं हो सकता है लेकिन फिर भी वे उन्हें सबसे बेहतर दांव नज़र आते हैं. या उन्होंने उनके हिंदू राष्ट्रवाद को पसंद कर लिया है. इस बीच, मोदी ने विपक्षियों के दांव को उलटने की अपने प्रतिभा का फिर प्रदर्शन किया. उन्होंने एक-एक कर वे तमाम अपशब्द गिना डाले जिनका पिछले वर्षों में उनके खिलाफ प्रयोग किया गया और अपने खास अंदाज़ में उन्होंने इन्हें राहुल गांधी के ‘लव डिक्शनरी’ की देन कहा.


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इस चुनाव अभियान से अगर कुछ स्पष्ट हुआ है तो वह यह है कि मोदी किसी भी पिच पर बल्लेबाज़ी कर सकते हैं और छक्के लगा सकते हैं. यह वे अपनी मतलब की बातों का इस्तेमाल करके, भावनाओं को उभार करके, और नामदार बनाम कामदार जैसे जुमलों के ज़रिए कर सकते हैं. चुनाव विशेषज्ञों के मुताबिक अगर वे अपनी पार्टी को बहुमत नहीं दिला पाते और दूसरी बार सत्ता हासिल नहीं कर पाते तो यह विपक्ष से ज़्यादा खुद उनकी अपनी वजह से होगा. यह इसलिए होगा क्योंकि पांच वर्षों तक अपनी छवि बनाने की अथक कोशिशों, सोशल मीडिया पर उग्र प्रचार, और मंच पर ज़ोरदार नौटंकी करने के बावजूद, मतदाता का संदेश यही हो सकता है कि वे उनके कामकाज से निराश हैं.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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