‘यह तो हर साल की बात है. हर साल बाढ़ आती है-बर्बादियां लेकर. रिलीफें आती हैं, सहायता लेकर. कोई नई बात नहीं. पानी घटता है. महीनों डूबी हुई धरती. धरती तो नहीं, धरती की लाश बाहर निकलती हैं. धरती की लाश पर लड़खड़ाती हुई जिंदे नरकंकालों की टोली फिर से अपनी दुनिया बसाने को आगे बढ़ती है.’
आप, लगेगा इस हफ्ते के हालात का बयां करती ये पंक्तियां असम के बारे में हैं. लेकिन नहीं, इन पंक्तियों का रिश्ता असम से नहीं है.
हो सकता है, आपको लगे ऊपर की पंक्तियां पी. साईनाथ की दो दशक पहले छपी किताब ‘एवरीबडी लव्स ए गुड ड्राऊट’ से हैं. लेकिन नहीं, ये पंक्तियां साईनाथ की किताब की भी नहीं हैं.
ऊपरली पंक्तियां आज नहीं बल्कि 1948 में लिखी गईं. लिखने वाले थे सर्वकालिक महान साहित्यकारों में एक फणीश्वरनाथ रेणु. ‘कोसी डायन’ शीर्षक से उनका लिखा एक रिपोर्ताज 1948 की जनवरी में समाजवादी पार्टी की पाक्षिक पत्रिका ‘जनता’ में छपा था. बराज बने, कोसी की धार पर आदमी का इख्तियार हो- ये विचार रेणु के विपुल लेखन में कई जगह बिखरा पड़ा है. उनकी एक अत्यंत मशहूर कृति ‘परती परिकथा’ में भी ये बात आयी है. बराज तो बन गया लेकिन कोसी में बाढ़ फिर-फिर आयी और ऐसा जब 1964 में हुआ तो रेणु ने एक मार्मिक लेख ‘पुरानी कहानी- नया पाठ’ शीर्षक से धर्मयुग में लिखा.
आजाद भारत में बाढ़ का अहवाल लिखना तो उसका भी शीर्षक यही रखा जा सकता है- ‘पुरानी कहानी नया पाठ’ ! ढुलमुल राजनीति, लचर नीति , नीति-निर्माताओं का बाढ़ को लेकर उपाय सोचते वक्त हमेशा दिमागी पंगुता का शिकार हो जाना, लोगों का अपने मजबूरियों के घेरे से बाहर निकलकर बाढ़ की विपदा को संघर्ष के एक मुद्दे के रुप में ना देख पाना और इन तमाम नाकामियों के बीच राजनीतिक नेतृत्व का सालहा साल नकारा होकर बैठे रहना: बाढ़ की कोई भी कथा उठाइए, यही बातें निकलकर सामने आयेंगी.
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हमारा ध्यान किधर है?
समाजवादी पार्टी की पत्रिका ‘जनता’ में छपे रेणु के रिपोर्ताज को सात दशक होने को आये, लेकिन बाढ़ और उसकी विभीषिका का आना अनवरत जारी है. हर साल हम सुनते हैं, असम में बाढ़ आयी, फिर सुनते हैं, बिहार में बाढ़ आयी. ये ठीक वैसा ही है जैसे हर साल हम सुनते हैं कि उत्तरभारत में लू की प्रचंड लहर चल रही है या केरल में मॉनसून की आहटें शुरु हो चुकी हैं. हर साल ही तो हम पढ़ते हैं समाचारों में कि काजीरंगा के राष्ट्रीय पार्क में जानवर बाढ़ के पानी में डूब रहे हैं और मन ही मन ये भी सोच लेते हैं कि जानवर ही नहीं, कुछ लोग भी बाढ़ के पानी में डूब गये होंगे. हमारे कानों पर जूं तब रेंगती है जब मरने वालों की तादाद 100 के आसपास ना पहुंच जाये. इस साल भी यही कुछ हो रहा है. उत्तर बिहार के पानी में डूबे हुए गांवों की तस्वीर हमारी आंखों के आगे है और हम उसे लगभग उसी इत्मीनान से देखेंगे जिस इत्मीनान से शिमला में बर्फ गिरने की तस्वीरों को देखते हैं. बिहार में बाढ़ की विपदा को लेकर हमारे कान तब खड़े होते हैं जब मृतकों की तादाद 500 का आंकड़ा पार कर जाये, जैसा कि साल 2017 में हुआ था. देश के सबसे ज्यादा उपजाऊ इलाकों में शुमार उत्तरी बिहार के 19 जिलों में हजारों एकड़ जमीन पानी में डूब चुकी थी, लेकिन उस विभीषिका की याद अब शायद ही राष्ट्रीय मन-मानस के किसी कोने में नक्श हो.
इस साल असम में बाढ़ से बुरी गत है. और बिहार में भी बाढ़ के भयावह होने के आसार हैं. लेकिन मीडिया तो अब भी आपको सचिन पायलट और अशोह गहलोत के बीच चल रहे सियासी ड्रामे के सीन दिखा रहा है. इधर एक दिन मेरे बेटे ने एक खास बात पर ध्यान खींचा: ब्रिटिश फुटबॉल क्लब आर्सेनल ने एक वीडियो जारी किया है, इसमें कहा गया है, ‘ मजबूती से थमे रहो असम/हम तुम्हारे साथ हैं’.
बेटे ने मुझसे पूछा कि क्या भारत में कोई खिलाड़ी या फिर नामचीन हस्तियों में शुमार कोई व्यक्ति ऐसा करता है. मेरे पास बेटे को बताने के लिए कोई जवाब ना था. कड़वी सच्चाई ये है कि दिल्ली में मौसम की पहली मूसलाधारा बारिश, कुछ नालों के जाम होने और पानी से भरे रास्ते में फंसकर एक ऑटो ड्राइवर की दुखद मृत्यु की खबरें राष्ट्रीय मीडिया में ज्यादा हैं, असम में पिछले तीन हफ्ते से जारी बाढ़ और बिहार पर मंडरा रहे बाढ़ के भयावह खतरे की खबरें नदारद हैं. चाहे अखिल गोगोई और उनके साथियों की हिरासत जारी रहे, असम में चाहे राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर की जमीनी सच्चाइयां कुछ भी बयां करती हों, दिल्ली को इन बातों से क्या मतलब! पूर्वोत्तर उसके लिए एक परदेस है!
नीति का झोल
लेकिन, मुश्किल मीडिया और दिल्ली-दरबार में बैठे लोगों में कायम राजनीतिक उपेक्षा के भाव की नहीं है. मुश्किल ये है कि जब सबक लेने की बात आती है तो हम सीखने से इनकार कर देते हैं. हम सीखना ही नहीं चाहते या यों कह लें, कोई गहरी कमी है जो हम सीख ही नहीं पाते. बड़ी दिक्कत है हमारे नीति-निर्माताओं का मन-मानस. ये मन-मानस दिल्ली, गुवाहाटी, पटना सब जगह के नीति-निर्माताओं का एक-सा है. चाहे ऐसा जानते-बूझते हो या फिर किसी और वजह से, लेकिन हमारे नीति-निर्माता साक्ष्य आंखों के एकदम आगे खड़े हों तो भी उससे मुंह मोड़ लेने में माहिर हैं.
हम मानकर चलते हैं कि असम और बिहार में अगर साल दर साल बाढ़ की विभीषिका आती है तो ये सब कुदरत का कहर है और इस पर आदमी का कुछ जोर नहीं चल सकता. और, ठीक इसी कारण बाढ़ को लेकर हमारे निदान-उपचार वैसे ही होते हैं जैसे कि औचक में आ पड़ी भूकंप सरीखी विपदा के वक्त. हम खूब हड़बड़ी में बचाव के काम करते हैं, जैसे-तैसे के भाव से राहत के काम करते हैं और औने-पौने मिजाज से पुनर्वास के काम में लगते हैं.
लेकिन ऐसे निदान-उपचार का क्या तुक ! बाढ़ कोई दुर्घटना नहीं. बाढ़ का आना ब्रह्मपुत्र की घाटी और हिमालय के तराई क्षेत्र की पारिस्थितकी का हिस्सा है. नेपाल की पहाड़ियों से निकलने वाली बहुसंख्य नदियां और तिब्बत से आनेवाला नद ब्रह्मपुत्र उत्तरी बिहार और असम के लिए जीवनदायी पानी और मिट्टी लेकर आते हैं. बारिश की मात्रा में कमी-बेशी होते रहती है. सो, बाढ़ के जरिये अतिरिक्त पानी बाहर की ओर आ जाता है. ये एक स्वाभाविक घटना है, सदियों से ऐसा ही होता रहा है.
नदी में बाढ़-उफान का होना स्वाभाविक है लेकिन बाढ़-उफान से मचने वाली तबाही स्वाभाविक नहीं. बाढ़ से तबाही आती है जीवन-जगत को बदलने वाले उस दोषपूर्ण सोच और उसपर अमल से जिसे हम अभी ‘विकास’कहने के अभ्यस्त हो गये हैं. नदी के जलग्रहण क्षेत्र में निर्वनीकरण, नदी के किनारों और डूब के इलाके में मानवीय बसाहट, जल-प्रांतरों पर कब्जा, फसल-चक्र में बदलाव और बाढ़ पर काबू करने के नाम पर किये जाने वाले तुरंता उपाय दरअसल बाढ़ की विभीषिका के लिए मुख्य रुप से जिम्मेदार हैं.
वैज्ञानिकों और विद्वानों ने बारंबार ध्यान दिलाया है कि बाढ़ पर काबू पाने के लिए अभी हम सोच के जिस ढर्रे पर चल रहे हैं और उस ढर्रे पर जो नीतियां चला रहे हैं वे कभी कामयाब नहीं होने वाली. मिसाल के लिए बिहार का ही उदाहरण लीजिए. हाइड्रोलॉजिस्ट और इंजीनियर दिनेश कुमार मिश्र और उनका स्वयंसेवी संगठन बाढ़ मुक्ति अभियान बरसों से ध्यान दिला रहे हैं कि तटबंध बनाकर कोसी की बाढ़ को रोकने का विचार ठीक नहीं है. आजादी के बाद से आज दिन तक बिहार में तटबंधों की लंबाई बीस गुना से ज्यादा बढ़ चली है. कहां तो बाढ़ में कमी आनी थी लेकिन हुआ है इसके उल्टा: बिहार में बाढ़-प्रभावित इलाके का दायरा तीन गुना ज्यादा बढ़ गया है. दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं कि हमें बाढ़ के साथ जीवन जीना सीखने की जरुरत है.
असम में भी भूगर्भविज्ञानी दुलाल सी गोस्वामी तथा पर्यावरणविद् पार्थ जे दास आगाह करते रहे हैं कि तटबंध बनाने या फिर ड्रेजिंग जैसे इंजीनियरिंग के उपाय अब कारगर साबित नहीं होने वाले. ऐसे समाधानों की सीमा आजादी के वक्त ही उजागर हो गई थी. हम बहुत पुराने होकर अपनी प्रासंगिकता खो चुके और अब नुकसान पहुंचाने वाले बाढ़-नियंत्रण के उपायों से चिपके हुए हैं, यह अपने आप में किसी गड़बड़-घोटाले से कम नहीं.
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कमजोर इच्छाशक्ति
प्रोफेसर दुलाल सी गोस्वामी तथा कई अन्य पर्यावरणविदों का कहना है कि भारत में अगर बाढ़ को अंकुश में रखना है तो फिर एक समेकित दृष्टिकोण से काम करना होगा. आपको जल-प्रबंधन, भौतिक नियोजन, भूमि-उपयोग, खेती, परिवहन तथा शहरी विकास के साथ-साथ प्रकृति के संरक्षण-संवर्धन पर एक ही साथ सोचना होगा. गोस्वामी का कहना है कि समाधान के लिए हमें सिर्फ भारत की चौहद्दी के भीतर ही नहीं देखना, बाहर भी नजर करनी होगी. असम में बाढ़ से पैदा विभीषिका का समाधान ढूंढ़ना है तो हमें ब्रह्मपुत्र बेसिन के उस पूरे इलाके के बारे में सोचना होगा जो चीन, भूटान, बांग्लादेश और भारत तक फैला हुआ है. समय रहते सूचनाएं मिल जायें, आगाह हुआ जा सके और नदी में उमड़ने वाले अतिरिक्त पानी का ठीक-ठाक प्रबंधन किया जा सके, इसके लिए हमें अपने पड़ोसी देशों के साथ तालमेंल कायम करना होगा. दूसरे शब्दों में कहें तो हमें नीति बनाने की जरुरत है और राजनीति करने की भी, विकास और कूटनीति तथा इजीनियरिंग और पारिस्थितिकी सबही पर हमें एक साथ सोचने की जरुरत है.
यह विचार नया नहीं है. साल 1954 की बाढ़ नियंत्रण नीति के बाद से बहुत वक्त बीता है. इस नीति में ये आधुनिकतावादी अहंकार भरा था कि कुदरत को इंजीनियरिंग के करिश्मे से साधा जा सकता है. लेकिन, अब हमारे पास पर्यावरण के मोर्चे पर होने वाली शोध-अध्ययनों के नानाविध निष्कर्ष और सूचनाएं सामने हैं. आज हमलोग पहले की तुलना में कहीं ज्यादा सचेत हैं कि जलवायु-परिवर्तन के कारण स्थितियां लगातार खराब हो रही हैं. बीते दो दशक में बाढ़ की बारंबारता में इजाफा हुआ और उसकी विभीषिका में भी. हमें फौरी तौर पर कदम उठाने की जरुरत है.
इसके लिए राष्ट्र की राजनीतिक इच्छाशक्ति को जगाना होगा. राष्ट्रवाद का मतलब ये नहीं होता कि आप टीवी स्टुडियो में बैठकर युद्ध के खेल खेलें या फिर लगातार एक हौव्वा खड़ा करते चलें कि देश के शत्रु तो देश ही में मौजूद हैं. सच्चा राष्ट्रवाद है राष्ट्रीय महत्व के असली और कठिन चुनौतियों के सम्मुख खड़ा होना, इसपर लगातार ध्यान देना, चुनौतियों का नया समाधान निकालना और समाधान के निमित्त संसाधनों को जुटाना, ये देखना कि प्रयास कहां तक रंग ला रहा है.
सकारात्मक राष्ट्रवाद के सोच पर चलने का पहला कदम ये भी हो सकता है कि बिहार और असम के बाढ़ के समाधान के लिए हम राष्ट्रीय स्तर पर सोचना और कदम उठाना शुरु करें.
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(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)