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मंगलवार, 3 जून, 2025
होममत-विमतअगर भारत ने 1965 जैसी गलती आज की, तो उसे फिर भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है

अगर भारत ने 1965 जैसी गलती आज की, तो उसे फिर भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है

हालांकि भारतीय सेना ने कम से कम 1956 से ही पाकिस्तान द्वारा बार-बार युद्धाभ्यास किया था, लेकिन लेफ्टिनेंट जनरल हरबख्श सिंह ने कहा कि 1965 में पाकिस्तानी आक्रमण ने उन्हें पूरी तरह से अचंभित कर दिया था.

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“48 घंटे,” रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस ने पूरे आत्मविश्वास से देश को संबोध्त करते हुए कहा: “घुसपैठियों को 48 घंटे में खदेड़ दिया जाएगा.” इससे ठीक एक रात पहले, 14 मई 1999 को, कैप्टन सौरभ कालिया और पांच सैनिक—अर्जुन राम, भंवरलाल बगड़िया, भीखा राम, मूला राम और नरेश सिंह—काकसर नदी के रास्ते बजरंग पोस्ट की ओर जाते समय लापता हो गए थे. कुछ हफ्तों बाद उनके शव लौटाए गए, जिन पर यातना के निशान थे: सिगरेट से जलाए जाने के दाग, हड्डियां टूटी हुई थीं और जननांग काटे गए थे.

हालांकि करगिल सेक्टर के हर हिस्से से कमांडरों की रिपोर्ट थी कि सेना पर नियंत्रण रेखा के पार से गोलीबारी हो रही है—मश्कोह और द्रास से लेकर बटालिक और सियाचिन ग्लेशियर के दरवाजे तक—फिर भी उनके जनरल रक्षा मंत्री के साथ खड़े थे.

“पाकिस्तानी सीमा पर सैनिकों का जमावड़ा नहीं था और युद्ध या सीमित झड़पों के कोई संकेत नहीं थे,” उस समय के XV कोर कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल किशन पाल ने 24 मई 1999 को श्रीनगर में यूनिफाइड हेडक्वार्टर को बताया. “स्थिति स्थानीय थी और स्थानीय स्तर पर ही निपटा ली जाएगी.”

पिछले हफ्ते, चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल अनिल चौहान ने साहसिक रूप से उस देश को सच्चाई बताई जो अब भी इनकार कर रही है—कि पाकिस्तान के साथ 100 घंटे की जंग की पहली ही रात भारत ने लड़ाकू विमान खो दिए थे. उन्होंने समझाया: “वे क्यों गिरे, क्या गलतियां हुईं—यह अहम है.” जनरल चौहान ने आगे बताया कि इन गलतियों की समीक्षा भारतीय वायुसेना की आक्रामक कार्रवाई में 48 घंटे के विराम के दौरान की गई, फिर लंबी दूरी से बमबारी शुरू हुई.

हालांकि कुछ बातों के विवरण को लेकर अनावश्यक चुप्पी रही है, लेकिन इस सच्चाई को बताने का महत्व बहुत बड़ा है.

युद्ध की गर्मी

पिछले हफ्ते, ठीक छह दशक पहले, पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी, ऑल जम्मू एंड कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस ने लोगों से ‘रज़ाकारों’ की फौज में शामिल होने की अपील की थी. ये रज़ाकार एक गुरिल्ला अभियान के ज़रिए भारत से कश्मीर छीनने की तैयारी कर रहे थे. तथाकथित ‘आज़ाद कश्मीर’ की सरकार ने 16 से 45 साल के सभी पुरुषों को सैन्य प्रशिक्षण लेने का आदेश दिया. स्थानीय मौलवियों ने जिहाद का ऐलान किया, नए ट्रेनिंग कैंप खोले गए, और पाकिस्तान की फ्रंटियर कॉर्प्स की यूनिट्स को अफगानिस्तान सीमा से लाकर पाकिस्तान-ओक्यूपाइड कश्मीर में तैनात किया गया.

हैरानी की बात है कि भारत में किसी ने भी इन लाउडस्पीकरों से की जा रही घोषणाओं को नहीं सुना, जो उस समय की सीज़फायर लाइन (अब लाइन ऑफ कंट्रोल) के पार की जा रही थीं. जुलाई के आखिर से, कई सौ लोगों की नौ टुकड़ियां बिना किसी रुकावट के चुपचाप कश्मीर में दाख़िल हो गईं.

बाद में भारतीय खुफिया अधिकारियों को पता चला कि इन गुरिल्ला लड़ाकों को 8 अगस्त को श्रीनगर के खानयार में पीर शेख सैयद अब्दुल क़ादिर जिलानी की याद में होने वाले सालाना जलसे में शामिल होने का आदेश था. फिर, उन्हें उस भीड़ के साथ मार्च करना था, जो कश्मीर के पूर्व प्रधानमंत्री शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के खिलाफ प्रदर्शन करने वाली थी. इसके बाद, उन्हें हवाई अड्डा और रेडियो स्टेशन पर कब्ज़ा कर ‘इंकलाबी काउंसिल’ का ऐलान करना था. ये संकेत होता कि पाकिस्तानी फौजें सीज़फायर लाइन पार कर कश्मीरियों की मदद को आतीं.

भारत की आधिकारिक युद्ध-इतिहास में आज तक ये साफ़ नहीं किया गया कि “इतनी बड़ी संख्या में लोग भारत की चौकसी से भरी सीमाओं को पार करके कैसे घुस आए.”

“यहां तक कि 2 अगस्त 1965 को,” उस इतिहास में लिखा है, “जब श्रीनगर में सीज़फायर लाइन की सुरक्षा व्यवस्था की समीक्षा के लिए एक उच्च-स्तरीय बैठक हुई, तब भी किसी को आने वाले गुरिल्ला हमले का ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था, जो अगले 72 घंटे में होने वाला था.”

हालांकि, उसी गर्मी की शुरुआत में भारतीय सेना को सीज़फायर लाइन के पार से असामान्य रूप से भारी गोलीबारी का सामना करना पड़ा. फिर, 16 मई को कारगिल के पास एक भारतीय चौकी पर सीधा हमला हुआ. तब सेना को पता चला कि पाकिस्तानी बलों ने पीक 13620—जिसका नाम इसकी ऊंचाई (फीट में) पर रखा गया था—और साथ ही काला पहाड़ इलाके पर कब्जा कर लिया था.

1947-48 की जंग के बाद पहली बार, भारतीय सेना ने जवाबी हमला किया और पीक 13620 समेत कारगिल के ऊपर की चोटी की कई चौकियों पर फिर से कब्जा कर लिया. हालांकि, ये सभी चौकियां 30 जून को पाकिस्तान को लौटा दी गईं, जब संयुक्त राष्ट्र के महासचिव यू थांट ने कारगिल-श्रीनगर हाईवे की सुरक्षा का भरोसा दिलाया.

इसके बावजूद, टिथवाल, उरी, मेंढर, पुंछ और नौशेरा में भारतीय चौकियों पर हमले जारी रहे—संभवतः इसी वजह से सैनिकों ने सीज़फायर लाइन के पार के दर्रों में गश्त कम कर दी.

युद्ध की अराजकता

पाकिस्तानी सेना के कमांडरों के लिए भारत की यह अंधी नजर किसी खुदा की नेमत से कम नहीं रही होगी. उस वक्त के विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो, जो फील्ड मार्शल अयूब खान की सरकार में सबसे आक्रामक नेता थे, ने ये योजना विदेश सचिव अज़ीज़ अहमद और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में तैनात सेना के कमांडर मेजर जनरल अख्तर हुसैन मलिक के साथ मिलकर बनाई थी. उस समय के पाकिस्तान सेना प्रमुख जनरल मोहम्मद मूसा ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उन्हें इस योजना पर शक था और डर था कि इससे पूरी जंग छिड़ सकती है.

मूसा के लिए हैरानी की बात थी कि जिस योजना को उन्होंने खारिज कर दिया था, उसे उनका डिविज़नल कमांडर आगे बढ़ा रहा था. “नीति-निर्माताओं ने एक गंभीर सैन्य परिणाम वाले मामले में पेशेवर सलाह को नज़रअंदाज़ किया, क्योंकि उन्होंने राजनीतिक-सामरिक हालात का गलत अंदाजा लगाया और कुछ लोगों की अत्यधिक महत्वाकांक्षा थी.”

लेफ्टिनेंट जनरल गुल हसन खान ने लिखा है कि ये राजनीतिक तनाव शुरू से ही ऑपरेशन को कमज़ोर कर रहे थे. गुल हसन ने अपनी आत्मकथा में लिखा, “चीफ़ (जनरल मूसा) और चीफ़ ऑफ जनरल स्टाफ जनरल शेर बहादुर ने शुरुआत से ही ऑपरेशन जिब्राल्टर को नाजायज़ औलाद समझा—जो विदेश मंत्री (भुट्टो) और जनरल मलिक की साझेदारी से पैदा हुआ था.”

एयर मार्शल असगर खान, जो 1957 से 1965 तक पाकिस्तान एयर फोर्स के कमांडर-इन-चीफ़ थे, ने दर्ज किया है कि उनसे एक कश्मीरी-भाषी अधिकारी देने को कहा गया था, ताकि वह एक रेडियो स्टेशन चला सके जो दिखावे के लिए श्रीनगर से चलाया जा रहा था, लेकिन असल में रावलपिंडी के रेसकोर्स ग्राउंड में स्थित था. एयर मार्शल से वादा किया गया था कि ऑपरेशन शुरू होने से 24 घंटे पहले उन्हें जानकारी दी जाएगी, लेकिन हमले की अव्यवस्थित योजना के चलते उन्हें इसकी खबर बाद में ही मिली.

5 अगस्त की दोपहर को गुलमर्ग के एक चरवाहे मोहम्मद दीन ने स्थानीय थाने में आकर बताया कि उसने भारी संख्या में हथियारबंद पाकिस्तानी देखे हैं. घुसपैठियों को घेरने के लिए फौज भेजी गई. उसी रात तीतवाल, कुपवाड़ा और मेंढर में भी गोलीबारी हुई. सबसे बड़ी टुकड़ी, ‘सलाहुद्दीन कॉलम’, श्रीनगर के चार उपनगरों तक घुसने में सफल रही और बडामी बाग कैंट से भेजे गए भारतीय सैनिकों से भिड़ंत हुई.

हालांकि, इस हमले की रफ्तार जल्दी ही थमने लगी क्योंकि उसे स्थानीय लोगों का समर्थन नहीं मिला और न ही उसके पास मजबूत लॉजिस्टिक सपोर्ट था. मेजर फारूक अहमद ने बाद में याद किया कि कैसे वो भारतीय सैनिकों से बचते हुए पिस्सू भरे जानवरों के झुंडों के बीच छिपे रहे. कारगिल कॉलम के भूखे सैनिकों ने दो बार बगावत की, जबकि हजारों घुसपैठिए चुपचाप वापस सीज़फायर लाइन पार कर अपने घर लौट गए.

शुरुआती नाकामी के बाद, भारतीय सेना ने पलटवार शुरू किया—और हाजी पीर दर्रा और एक बार फिर पीक 13620 जैसे अहम रास्तों पर कब्जा किया.

कमान की विफलताएं

कश्मीर पर कब्ज़ा करने की कोशिश नाकाम होने के बाद पाकिस्तान की लीडरशिप हिचकिचाने लगी. अगस्त के अंत में, सैन्य इतिहासकार शुजा नवाज़ ने लिखा है कि फील्ड मार्शल अयूब ने भुट्टो को एक संदेश भेजा, जिसमें कहा गया था कि “ऐसी कार्रवाई करें जिससे कश्मीर का मसला फिर से गरमाया जाए, भारत की इच्छा कमजोर हो, और वह बिना किसी बड़ी जंग के बातचीत की मेज़ पर आ जाए.” जनरल गुल हसन ने अब अखनूर और फिर छंब पर हमला करने की अनुमति मांगी, जिसे ‘ग्रैंड स्लैम’ नाम दिया गया था. इसका मकसद श्रीनगर जाने वाले हाइवे को काटना था.

हालांकि भारतीय सेना 1956 से ही इस तरह के हमले की कल्पना कर युद्धाभ्यास करती रही थी, लेफ्टिनेंट जनरल हरबख्श सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि पाकिस्तानी हमला पूरी तरह चौंकाने वाला था.

“पाकिस्तान की इस कार्रवाई की तैयारियां छुपाई नहीं जा सकीं,” आधिकारिक युद्ध इतिहास में लिखा है, “और संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षकों ने भारत को हमले की चेतावनी दी थी. शायद इन चेतावनियों को गंभीरता से नहीं लिया गया.” स्थिति और बिगड़ गई जब भारतीय वायुसेना, जिसे कभी इस संभावित जंग के बारे में बताया ही नहीं गया था, ने गलती से अपनी ही सेना की बख्तरबंद गाड़ियों और तोपों को निशाना बना लिया.

लेकिन, भारत के हड़बड़ाए हुए कमांडरों को जनरल मूसा के एक अजीब फैसले ने बचा लिया—उन्होंने लड़ाई के बीच में ही जनरल अख्तर मलिक को कमान से हटा दिया. छंब के पतन के बाद, जौरियां की ओर बढ़ता हमला रुक गया और उसकी रफ्तार खत्म हो गई.

इससे भारत को मौका मिला कि वह पंजाब में सीमा पार कर जवाबी हमला करे. XI कोर ने लाहौर की ओर बढ़ते हुए शुरुआत में सफलता हासिल की और असल उत्तर और बर्की की लड़ाइयों में बड़ी जीत दर्ज की. हालांकि, डेरा बाबा नानक और फाजिल्का जैसे अहम इलाकों में स्थिति बराबरी पर रही, और पाकिस्तान के जवाबी हमले में खेमकरण पर कब्जा हो गया. वहीं, भारतीय I कोर का सियालकोट की ओर बढ़ना आधिकारिक इतिहास के मुताबिक “धीमी और थकाऊ लड़ाई” बन गया.

6 सितंबर को भारतीय एयरबेस पर पाकिस्तान एयर फोर्स ने बड़े पैमाने पर पहले हमले किए, जिससे पठानकोट और कालैकुंडा में ज़मीन पर कई विमान नष्ट हो गए. इन नुकसानों के चलते भारतीय वायुसेना को अपने एयरबेस की सुरक्षा के लिए ज्यादातर संसाधन हवाई गश्त में लगाने पड़े, जिससे सेना की लाहौर की ओर बढ़ने की क्षमता कम हो गई.

भारत और पाकिस्तान के युद्धविराम पर सहमत होने से दो दिन पहले, अय्यूब और भुट्टो गुप्त रूप से बीजिंग गए ताकि उस समय के चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाई से समर्थन मिल सके. लेकिन चाऊ का संदेश उत्साहवर्धक नहीं था: “तुम्हें लड़ाई जारी रखनी होगी, भले ही पहाड़ों में लौटना पड़े.” थके हुए और चिंतित अयूब ने मूसा और नूर खान से सलाह ली और लड़ाई को आगे न बढ़ाने का फैसला किया.

1965 की असफलताओं ने भारत को सात साल बाद बांग्लादेश युद्ध में जीत दिलाने में मदद की—लेकिन खुले और लगातार सवाल पूछने की संस्थागत परंपरा की कमी के कारण कुछ गलतियां फिर से सामने आईं. 1988 में, भारत एलओसी पर बड़े पैमाने पर घुसपैठ रोकने में असफल रहा, जिससे कश्मीर में लंबे जिहाद का रास्ता खुला. जनरलशिप की कमजोरियों ने 1965 की तरह कारगिल में भी भारतीय सैनिकों की जान ली. और 2019 में भारतीय वायुसेना की जो कमज़ोरियां उजागर हुई थीं, उन्हें दबा दिया गया, जिससे वे नतीजे सामने आए जिनकी ओर अब जनरल चौहान ने इशारा किया है.

सीख या तो अपनी गलतियों की गहरी जांच से ली जा सकती है या दुश्मनों की सफलताओं से.

प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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