ड्रोन कितनी विविध भूमिकाएं निभा सकते हैं, यह लड़ाई के मैदान में उनके इस्तेमाल से सिद्ध हो चुका है और उनकी उपयोगिता निर्विवाद रूप से स्थापित हो चुकी है. अलग-अलग तरह के काम के लिए वे अलग-अलग आकारों में उपलब्ध हैं. घातक मारक क्षमता के लिहाज से ‘एमक्यू 9-रीपर’ नाम का अमेरिकी ड्रोन, और निगरानी जैसे हल्के काम के लिए 1.2 आउंस से कम वजन का ‘ब्लैक हॉर्नेट’ नाम का अमेरिकी ड्रोन उपलब्ध है.
भारत अमेरिका से उच्च क्षमता वाले हथियारबंद 31 ‘एमक्यू 9-बी प्रिडेटर’ ड्रोन खरीदने की तैयारी कर रहा है. करीब 2.5 लाख करोड़ रुपये के इस सौदे की घोषणा 2023 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिका दौरे के दौरान की गई थी. भारतीय नौसेना पहले से ही बिना हथियार वाले दो प्रिडेटर ड्रोन का उपयोग कर रह है. लीज़ पर हासिल किए गए ये ड्रोन तमिलनाडु के राजाजी नौसैनिक हवाई अड्डे से काम कर रहे हैं. नये ड्रोन जब आएंगे तो उन्हें तीनों सेनाओं के बीच बांटा जाएगा, और नौसेना को वे ज्यादा संख्या में मिलेंगे. बड़े हथियारों (वेपन सिस्टम्स) के लिए अमेरिका पर निर्भरता से एक राजनीतिक संदेश तो उभरता ही है, यह भी जाहिर होता है कि इस स्तर के वेपन सिस्टम्स में ‘आत्मनिर्भरता’ फिलहाल मुमकिन नहीं है.
इस सौदे की कीमत से यह सवाल उठता है कि इसमें से कुछ राशि देश में ही कम लागत पर बड़ी संख्या में छोटे ड्रोन्स के विकास और उत्पादन के लिए अलग करना क्या बेहतर नहीं होता? इस तरह की वैकल्पिक व्यवस्था का विचार इस तथ्य से पैदा होता है कि छोटे ड्रोन ज्यादा मारक क्षमता वाले और कारगर होते हैं, देश में मौजूद मानव संसाधन का उपयोग करने की काफी संभावना है, और थ्री-डी प्रिंटिंग की मदद से तुलनात्मक रूप से प्रति यूनिट कम लागत पर ड्रोन का विकास और उत्पादन किया जा सकता है.
जहां तक आधुनिक युद्ध क्षेत्र में ऑपरेशन चलाने की बात है, बड़े प्लेटफॉर्म (तामझाम) की जगह छोटे प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल किया जा रहा है. युद्धपोतों, विमानवाही पोतों, और टैंकों जैसे बड़े प्लेटफॉर्मों को बड़ी संख्या में झुंड बनाकर हमला करने वाले ‘स्वार्म’ ड्रोन जैसे छोटे प्लेटफॉर्मों से बचाना इन बड़े प्लेटफॉर्मों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली मौजूदा डिफेंस सिस्टम की क्षमता के लिए एक चुनौती है. ‘कामिकेज’ (आत्मघाती) और ‘स्वार्म’ ड्रोन के आगमन इसके बड़े उदाहरण हैं. लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं है कि छोटे ड्रोन में वैसी मारक क्षमता नहीं होती जैसी विभिन्न तरह की मिसाइलों में होती है जिन्हें केवल बड़े, हथियारबंद ड्रोनों पर तैनात किया जा सकता है. इसलिए भारत के पास पर्याप्त संख्या में बड़े और छोटे ड्रोन होने ही चाहिए.
बजटीय सीमाएं
भारत जैसे देश के रक्षा बजट का आकार प्रतियोगी मांगों और प्रतिरक्षा पर खर्च घटाने को लेकर राजनीतिक नेतृत्व के पुराने झुकाव के कारण छोटा होता है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि बड़े प्लेटफॉर्म के आयात और छोटे प्लेटफॉर्म के उत्पादन के बीच सही संतुलन कैसे बनाया जाए. यह क्षमता सरकारी और निजी, दोनों सेक्टरों में है. आदर्श स्थिति तो यही होगी कि यह संयुक्त उपक्रम का रूप ले.
दुर्भाग्य से, ये दोनों क्षेत्र फंड की कमी के कारण विवश हैं. 2024 के अंतरिम बजट में घोषणा की गई है कि डिफेंस सेक्टर में गहरी टेक्नॉलजी के विकास के लिए दीर्घकालिक कर्ज के वास्ते 1 लाख करोड़ रुपये के कोष की स्थापना की जाएगी. इसके अलावा स्टार्ट-अप्स को करों में छूट दी जाएगी. इन दोनों घोषणाओं से यही संकेत मिलता है कि सरकार फंड की व्यवस्था करने में प्रमुख भूमिका निभाएगी. लेकिन हमेशा की तरह सब कुछ इस पर निर्भर करेगा कि फंड का प्रबंधन, वितरण और निगरानी किस तरह की जाती है. अहम बात यह है कि इसे ऑडिट वालों के चंगुल से गुजरना पड़ेगा, जो नतीजों से ज्यादा प्रक्रियाओं के पालन को तरजीह देंगे. निजी क्षेत्र इससे जुड़े जोखिम को तौलेगा, खासकर इसलिए कि उसे केवल एक खरीदार, रक्षा मंत्रालय पर निर्भर रहना पड़ेगा, जब तक कि वे निर्यात बाजार में अपनी पहुंच नहीं बना लेते.
अगर देश में और भी उत्पादों का विकास किया जाना है तो सरकार को उपलब्ध उत्पादों को हासिल करने के लिए अपना बजट भी बढ़ाना पड़ेगा. अंतरिम रक्षा बजट और पूंजीगत खर्चों के लिए सरकार द्वारा किए गए आवंटन से यह संकेत नहीं मिलता कि इस जरूरत को पूरा करने के कोई कदम उठाए गए हैं. आंकड़ों के खेल पर ध्यान न दें, और मुद्रास्फीति और विदेशी मुद्रा की दरों में बदलाव का ख्याल रखें तो साफ हो जाएगा कि पूंजीगत बजट मांग को पूरा करने से चूक जाएगा. अब तक, ढांचागत समस्या मुख्यतः सप्लाई के कारण रही थी.
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युवा उद्यमियों के प्रयास
ड्रोन्स के विकास के मोर्चे से कुछ उत्साहवर्द्धक संकेत उभरे हैं. ‘डीआरडीओ’ की ‘यंग साइंटिस्ट्स-असीमेट्रिक टेक्नोलॉजीज़ (डीवाइएसएल-एटी) लैब’, हैदराबाद उन पांच ‘यंग साइंटिस्ट्स लैब्स में शामिल है जिनकी स्थापना की घोषणा प्रधानमंत्री ने 2020 में की थी. उनमें बाकी चार ये थे— आइआइएससी बंगलूर (आर्टिफ़ीशियल इंटेलिजेंस), आइआइटी बॉम्बे (क्वांटम टेक्नोलॉजीज़), आइआइटी मद्रास (कॉग्निटिव टेक्नोलॉजीज़), और हैदराबाद (स्मार्ट मेटेरियल्स लैब). 20121 में, डीवाइएसएल-एटी लैब ने अपने ‘स्वार्म’ ड्रोन का सफल प्रदर्शन किया था. अब वह ‘गन ऑन ड्रोन’ और पानी के अंदर चलने वाले ऑटो वाहन के निर्माण पर काम कर रही है. लेकिन प्रदर्शित क्षमता को ऑपरेशन सिस्टम में बदलने में असफलता एक पुरानी कमजोरी रही है और यूजर की जरूरत को पूरा करने तथा रक्षा खरीद में मनमानी पर काबू पाने में अक्सर नाकामी ही हाथ लगी है. इसलिए उन्हें बजटीय समर्थन हासिल करने में भी समस्या का सामना करना पड़ा है.
एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार, हैदराबाद के अडाणी-एल्बिट संयुक्त उपक्रम को 20 हर्मेस-900 मीडियम-अल्टीट्यूड, लॉन्ग-एंड्योरेंस (मेल) यूएवी इजरायल को देने के लिए कहा गया है. यूएवी की 36 घंटे की एंड्योरेंस है यानी वे 36 घंटे तक लगातार उड़ान भर सकते हैं, 420 किलो वजन ढो सकते हैं और 32,000 फुट की ऊंचाई पर उड़ान भर सकते हैं. अडाणी-एल्बिटको भारतीय थलसेना और नौसेना से दो-दो हर्मेस- 900 के ऑर्डर मिले हैं. ये फौरी जरूरत के मद्देनजर इमरजेंसी अधिकारों के तहत हासिल किए जाएंगे और वे अगला ऑर्डर देने के लिए परीक्षण के वास्ते भी हासिल किए जा रहे हैं. तीनों सेनाओं ने अपने लिए ‘155 मेल’ श्रेणी के यूएवी की जरूरत बताई है. लेकिन जब तक बजट में वृद्धि नहीं की जाती तब तक इन जरूरतों को पूरा करना नामुमकिन ही होगा. इस प्रोजेक्ट का बंद होना ‘मेल’ श्रेणी के यूएवी के विकास की देसी क्षमता के लिए बड़ा झटका है.
दूसरी ओर, समझा जाता है कि युवा उद्यमियों की ओर से ड्रोन के तरह-तरह के ऐसे छोटे सब-सिस्टम्स के डिजाइन और विकास के प्रयासों में जुटे हैं, जो फिलहाल मुख्यतः चीन या पश्चिमी देशों से आयात किए जा रहे हैं. लेकिन उनके प्रयास फंड की कमी के कारण लड़खड़ा रहे हैं. अब जबकि रक्षा मंत्रालय ने अनुसंधान के लिए एक कोष बना दिया है, तो इंतजार किया जा सकता है कि भव्य राजनीतिक घोषणा वास्तव में पूरी तरह अमल में आती है या नहीं.
भारत के लिए मौका छोटे प्लेटफॉर्मों की क्षमता बढ़ाने में ही छुपा है ताकि वे बड़े प्लेटफॉर्म और लक्ष्यों को अपने हाथ में ले सकें. हमारे पास मानव या दूसरे संसाधन की कमी नहीं है. वित्तीय समर्थन के अलावा जो चीज भारत को मझोले और छोटे ड्रोनों के बड़े केंद्र के रूप में उभरने के लिए जरूरी है वह है जोखिम उठाने, नुकसान झेलने की क्षमता, और नौकरशाही प्रक्रियाओं तथा अनावश्यक दखलंदाजियों से रचनात्मकता की मुक्ति.
निजी सेक्टर में निवेश मझोले और छोटे ड्रोनों के लिए आदर्श होगा. लेकिन असली सवाल यह है कि यह सेक्टर ऐसा करेगा या नहीं क्योंकि जब तक ड्रोन बहुपयोगी नहीं होंगे तब तक सरकार ही उसके लिए एकमात्र बाजार होगा. अब सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती निजी सेक्टर को प्रोत्साहित करने की है. इसका रास्ता तो खोल दिया गया है लेकिन भारत को ड्रोनों के विकास और उत्पादन की अपनी क्षमता का पूरा उपयोग करना है तो इस रास्ते को और चौड़ा करना होगा.
(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला संस्थान में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक; राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. उनका एक्स हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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