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Friday, 3 May, 2024
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सार्वजनिक संपत्ति को हुए नुकसान पर अदालत संज्ञान लेती तो यूपी सरकार को पोस्टर लगाने की जरूरत नहीं पड़ती

उच्चतम न्यायालय ने अप्रैल 2009 में अपने एक फैसले में प्रतिपादित दिशा निर्देशों में कहा था कि जब कभी भी विरोध प्रदर्शन की वजह से बड़े पैमाने पर संपत्ति को नुकसान पहुंचता है तो उच्च न्यायालय स्वतः कार्रवाई कर सकता है.

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काश, नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में उत्तर प्रदेश में भड़की हिंसा के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को हुये नुकसान के मामले का इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने स्वतः ही संज्ञान लिया होता तो शायद प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार को सार्वजनिक संपत्ति को हुये नुकसान की भरपाई के लिये कथित दंगाईयों के नाम और तस्वीरों के पोस्टर चैराहों पर नहीं लगाने पड़ते.

उच्चतम न्यायालय ने अप्रैल 2009 में अपने एक फैसले में प्रतिपादित दिशा निर्देशों में कहा था कि जब कभी भी विरोध प्रदर्शन की वजह से बड़े पैमाने पर संपत्ति को नुकसान पहुंचता है तो उच्च न्यायालय स्वतः कार्रवाई कर सकता है और नुकसान की जांच के लिये एक तंत्र स्थापित कर सकता है और इससे संबंधित मामले में क्षतिपूर्व का अवार्ड दे सकता है.
ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश में हुई हिंसा के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को पहुंचे नुकसान के मामले में उच्च न्यायालय ने स्वतः ही कार्रवाई नहीं की और इसका नतीजा यह हुआ कि उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देशों के अनुरूप राज्य सरकार ने नुकसान की भरपाई के लिये सख्त कदम उठाये और चौराहों पर ऐसे आरोपियों के नाम, पते और तस्वीरों वाले पोस्टर तक लगा दिये.

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार की इस कार्रवाई का स्वतः संज्ञान लिया और इसे वैयक्तिक निजता के मौलिक अधिकार का हनन मानते हुये ऐसे सभी पोस्टर हटाने का आदेश दिया और 16 मार्च तक इस आदेश के अनुपालन के बारे में प्रशासन को रिपोर्ट पेश करने का भी निर्देश दिया.

यूपी हिंसा का मामला पहुंचा सुप्रीम कोर्ट तक

उच्च न्यायालय के इस आदेश पर अमल करने की बजाय प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने इसके खिलाफ उच्चतम न्यायालय में अपील दायर करने को निर्णय लिया. उच्चतम न्यायालय ने हालांकि उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक नहीं लगायी है लेकिन उसे इसे बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा मानते हुये तीन सदस्यीय खंडपीठ के विचारार्थ प्रधान न्यायाधीश के पास भेज दिया.

शीर्ष अदालत का कहना था कि इस मामले में एक ओर वयैक्तिक निजता का मुद्दा है तो दूसरी ओर सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान की भरपाई के बारे में उच्चतम न्यायालय के निर्देश हैं. ये दोनों ही मुद्दे काफी महत्वपूर्ण हैं. इसलिए इस मामले की प्रकृति और महत्व को देखते हुये इसे यथाशीघ्र और संभव हो तो 16 मार्च से शुरू होने वाले सप्ताह के दौरान ही तीन सदस्यीय खंडपीठ के समक्ष विचारार्थ सूचीबद्ध किया जाये.

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कथित दंगाईयों को इस तरह सार्वजनिक रूप से शर्मसार करने के लिये पोस्टर लगाने के मामले प्रदेश सरकार को आड़े हाथ लेने की उच्च न्यायालय की इस कार्यवाही का स्वागत भी हुआ क्योंकि कहीं न कहीं यह निजता के अधिकार से जुड़ा था. उच्च  न्यायालय ही नहीं बल्कि उच्चतम न्यायालय ने भी उत्तर प्रदेश सरकार से जानना चाहा कि आखिर किस कानून के तहत उसने यह कार्रवाई की.

सार्वजनिक संपत्तियों के नुकसान पर सिफारिश

सार्वजनिक और निजी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने से संबंघित मामले में उच्चतम न्यायालय की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने 16 अप्रैल 2009 को अपने फैसले में उचित कानून के अभाव में न्यायमूर्ति के टी थाॅमस और वरिष्ठ अधिवक्ता फली नरिमन की समितियों की सिफारिशों को स्वीकार करते हुये नुकसान के आकलन के लिये 10 दिशा निर्देश दिये थे. इस फैसले में कहा गया था कि यह दिशा निर्देश तत्काल प्रभाव से लागू होंगे.

इनमें पहला निर्देश था कि जब कभी विरोध प्रदर्शन की वजह से बड़े पैमाने पर संपत्ति का नुकसान होता है तो उच्च न्यायालय स्वतः कार्रवाई कर सकता है और नुकसान के आकलन के लिये जांच गठित कर सकता है और इससे संबंधित मामले में क्षतिपूर्ति का अवार्ड दे सकता है.

शीर्ष अदालत ने अपने दूसरे निर्देश में यह भी कहा था कि अगर ऐसे मामले में एक से अधिक राज्य शामिल हैं तो उच्चतम न्यायालय ऐसी कार्रवाई कर सकता है.

तीसरा निर्देश था कि प्रत्येक मामले में उच्च न्यायालय या शीर्ष अदालत, जैसी स्थिति हो, उच्च न्यायालय के पीठासीन या अवकाश प्राप्त न्यायाधीश या पीठासीन अथवा सेवानिवृत्त जिला न्यायाधीश को नुकसान के आकलन और जवाबदेही का पता लगाने के लिये ‘दावा आयुक्त’ नियुक्त करेगा. चौथा निर्देश था कि दावा आयुक्त की मदद के लिये एक आकलनकर्ता भी नियुक्त किया जायेगा.

न्यायालय के पांचवे निर्देश में कहा गया था कि दावा आयुक्त और आंकलनकर्ता सार्वजनिक और निजी संपत्ति को हुये नुकसान का आकलन करने के लिये घटनाओं की वीडियो रिकार्डिंग और दूसरी रिकार्डिंग तलब करने के बारे में उच्च न्यायालय या शीर्ष अदालत से आवश्यक निर्देश ले सकते हैं.

आयोजकों पर हो कार्रवाई

एक अन्य निर्देश में न्यायालय ने कहा था कि इसकी भरपाई अपराध के असली दोषी व्यक्तियों और ऐसे आन्दोलन के आयोजकों को करनी होगी. न्यायालय ने कहा था कि नुकसान की भरपाई के लिये ऐसा जुर्माना किया जाये जो दूसरों के लिये नजीर बने लेकिन यह राशि नुकसान से दुगुने से अधिक नहीं होनी चाहिए.

न्यायालय ने कहा था कि दावा आयुक्त अपनी रिपोर्ट उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय को सौंपेंगे जो संबंधित पक्षों को सुनने के बाद जवाबदेही का निर्धारण करेगा.

सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की घटना में उपद्रवियों और दंगाईयों से ऐसे नुकसान की वसूली के लिये उत्तर प्रदेश सरकार की कार्रवाई की आलोचना और सराहना दोनों हो रही है.

चूंकि उच्च न्यायालय के बाद अब उच्चतम न्यायालय ने भी ऐसे आरोपियों के नाम और अन्य विवरण के साथ पोस्टर लगाये जाने को लोगों की वैयक्तिक निजता के अधिकार से जुड़ा मुद्दा माना है और टिप्पणी की है कि ऐसा कोई कानून नहीं है जो राज्य सरकार की कार्रवाई के पक्ष में हो. ऐसी स्थिति में उत्तर प्रदेश सरकार के सामने पोस्टर लगाने की कार्रवाई को न्यायोचित ठहराने की चुनौती है.


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इसके बावजूद, सवाल यह उठता है कि अगर किसी भी आन्दोलन के दौरान सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जाता है और अगर उच्च न्यायालय नुकसान के आकलन के बारे में स्वतः कदम नहीं उठाता है तो फिर ऐसे नुकसान की भरपाई के लिये राज्य सरकार के पास कौन से विकल्प हैं?

उच्चतम न्यायालय ने अलग-अलग मुद्दे को लेकर होने वाले आंदोलनों के दौरान सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नुकसान की घटनाओं को ध्यान में रखते हुये 2009 में कि सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान से रोकथाम कानून, 1984 में संशोधन करने और इसकी भरपाई के लिये आन्दोलनकारी राजनीतिक दलों और आयोजक नेताओं की जिम्मेदारी भी निर्धारित करने का प्रावधान करने का सुझाव दिया था. लेकिन इस दिशा में अभी तक कोई ठोस प्रगति नहीं हुयी है.

उत्तर प्रदेश सरकार की कार्रवाई को लेकर उठे विवाद के परिप्रेक्ष्य में अब जरूरी है कि सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान से रोकथाम कानून, 1984 में तत्काल उचित संशोधन करके ऐसे नुकसान की भरपाई की कार्रवाई के बारे में समयबद्ध प्रक्रिया निर्धारित करने की जाये ताकि नुकसान की वसूली की प्रक्रिया में अनावश्यक रूप से समय बर्बाद नहीं हो और इसके लिये दोषी व्यक्तियों को जल्द से जल्द सजा भी मिल सके.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

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