scorecardresearch
Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतमोदी को कोई शिकस्त दे सकता है, तो वह है भारतीय अर्थव्यवस्था

मोदी को कोई शिकस्त दे सकता है, तो वह है भारतीय अर्थव्यवस्था

डांवाडोल अर्थव्यवस्था मोदी के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनकर सामने आई है. वे इस चुनौती की उपेक्षा करके भी शिखर पर बने रह सकते हैं, या इसे दुरुस्त करने का चमत्कार करके अपनी चमक और बढ़ा सकते हैं.

Text Size:

कई वर्षों से मैं उन देशों की यात्रा करता रहा हूं और उनकी खबरें लिखता रहा हूं जहां के लोगों को अपने शासकों के बारे में उस तरह खुल कर बातें करने की आज़ादी नहीं रही है, जिस तरह की आज़ादी किसी लोकतान्त्रिक देश के लोगों को हासिल है. इन अनुभवों ने मुझे एक महत्वपूर्ण सबक सिखाया है—मुश्किल दौर में हास्य और विडंबना बोध बात कहने का ज़रिया बन जाता है. झिझक और डर रचनात्मकता की धारा बहा देते हैं. सोवियत शासन के ऊपर सबसे उम्दा जुमले मॉस्को की गलियों और दुकानों में सुनाई देते थे, बेशक कानाफूसियों के बीच ही सही.

कल की कानाफूसियां आज के व्हाट्सअप के फारवर्ड्स हैं. चूंकि किसी को पता नहीं है कि चुटकुलों का ईज़ाद सबसे पहले किसने किया, इसलिए सबसे पहले तो गुमनाम रहने में ही सुरक्षा है, संख्या की बात बाद में. बहरहाल, अभी तो मौसम अर्थव्यवस्था पर चुटकुलों का है, जिसे सबसे ताज़ा स्टेरॉइड वित्त मंत्री निर्मला सीतारामन ने कॉर्पोरेट जगत को 1.45 लाख करोड़ रुपये की टैक्स छूट के रूप में दिया है, जबकि उनका बजट प्रेस-कॉन्फ्रेंस-दर-प्रेस-कॉन्फ्रेंस खुलता दिख रहा है.

मोदी सरकार की अराजक किस्म की अर्थनीति पर जो तमाम जुमले और चुटकुले मेरे ई-मेल में आए— और आपके ई-मेल में भी आए होंगे— उनमें एक तो एक महाराजा और उसके चहेते हाथी के बारे में है. बदकिस्मती से वह हाथी एक बार घातक रूप से बीमार हो गया. महाराजा का दिल टूट गया, उसने एलान करवा दिया कि जो भी उस हाथी की मौत की खबर देने के लिए सबसे पहले आएगा उसका सिर कलम कर दिया जाएगा. लेकिन जो होना था वह होकर ही रहा. और किसी को भी महाराजा को इसकी खबर देने की हिम्मत नहीं हो रही थी. आखिर महावत ने ही हिम्मत जुटाई और महाराजा से कांपते हुए बोला कि हाथी न तो कुछ खा रहा है, न उठ पा रहा है, न सांस ले रहा है और न कोई हरकत कर रहा है.

महाराजा ने पूछा, ‘तुम्हारा मतलब है कि हाथी मर गया है?’
दहशत में डूबे महावत ने जवाब दिया, ‘यह तो महाराज, आप ही बता सकते हैं.’

चुटकुले में यहां पर कहा गया है कि इस कहानी में हाथी जो है वह हमारी अर्थव्यवस्था है. इसलिए तमाम मंत्रीगण अपने-अपने तरीके से कह रहे हैं कि ‘हाथी’ मर चुका है. लेकिन कोई भी साफ-साफ यह कहने को तैयार नहीं है.


यह भी पढ़ें : पुलिस नेता-राज जहां रस्सी सांप बन सकती है और लिंचिंग दिल का दौरा


अब, मार्क ट्वेन की कहानी को उधार में लें, तो कह सकते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था के इंतकाल की खबरें काफी बढ़ा-चढ़ाकर कही जा रही हैं. लेकिन यह खतरनाक और गंभीर रूप से बीमार तो है ही.

कई दूसरी संस्थाओं के विपरीत बेलगाम बाज़ार मानो वाकआउट करके अपनी नापसंदगी जाहिर कर रहा है. जून के बाद से निवेशकों के करीब 11 लाख करोड़ रुपये गायब हो चुके हैं. इसके साथ ही वह नयी पूंजी भी लगभग गायब हो गई है जिसे सरकार ने पहले दौर में सरकारी बैंकों को दी थी. एक ही अच्छी खबर है— मुद्रास्फीति के मोर्चे से. लेकिन यह इतनी कम है कि इसके लिए भारतीय अंग्रेजी के ऐसे जुमले का प्रयोग किया जा सकता है जिसका अर्थ शर्मसार करना होता है. यह जुमला है— डांवाडोल.

सरकार की तरफ से जो प्रतिक्रियाएं हुई हैं उन्हें तीन तरह का माना जा सकता है. पहली प्रतिक्रिया तो इस सोच का नतीजा है कि सारा विवाद मोदी से नफरत करने वालों की उपज है, जिनका काम अफवाहें और गलत सूचनाएं फैलाना ही है.

दूसरी प्रतिक्रिया यह है कि वित्त मंत्री एक और प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कुछ और घोषणाएं कर डालें. सबसे ताज़ा घोषणा अगली कोई योजना बनाए बिना टैक्स में मेगा छूट देने की है. अमेरिका के ह्यूस्टन में होने वाले जश्न के लिए यह एक बड़ी सुर्खी तो बनेगी ही, शेयर बाज़ारों में चंद दिन की बहार भी लाएगी. लेकिन अगर सरकार ने इस खैरात के लिए पैसा जुटाने के वास्ते अपने खर्चे कम करने का साहस नहीं दिखाया तो या तो वह ज्यादा नोट छापने के लिए मजबूर होगी या फिर गरीबों पर अप्रत्यक्ष बोझ डालेगी. अच्छा-खासा पैसा बह जाएगा और संकट और भी गहरा हो जाएगा.

तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया इस सोच से उपजी है कि इस सरकार के ये शुरू के ही दिन हैं और मोदी पिछले 70 साल की बड़ी नाकामियों को दुरुस्त करने में जुट गए हैं. तीन तलाक को अपराध घोषित करके समान आचार संहिता लागू करने का पहला कदम उठा लिया गया है, अनुच्छेद 370 को रद्द कर दिया गया है और जल्द ही, नवंबर तक राम मंदिर निर्माण भी शुरू हो जाएगा. तब, अगला तर्क यह है—इन सबसे कठिन और सबसे जरूरी कामों को कर डालने के बाद मोदी अर्थव्यवस्था को सीधे अपने हाथ में लेंगे.

और आप तो जानते ही हैं कि जब मोदी कोई काम हाथ में ले लें तो फिर कोई चमत्कार नामुमकिन नहीं है, चाहे वह अर्थव्यवस्था को 2024 तक 5 ट्रिलियन डॉलर का बनाने का ही क्यों न हो. मैं बस पूरे दिल से उम्मीद और प्रार्थना कर सकता हूं कि ये सपने सच हो जाएं.


यह भी पढ़ें : मोदी ने बंटवारे के पाकिस्तान के ‘अधूरे छूटे काम’ को पूरा किया है


दूसरा नज़रिया यह है कि अर्थव्यवस्था की हालत में जल्दी कोई नाटकीय सुधार होने की संभावना नहीं है. लेकिन, जैसा कि इस स्तम्भ में मई 2018 में कहा जा चुका है, चूंकि मोदी की भारी लोकप्रियता कुतुब मीनार के पास खड़े प्रसिद्ध लौह स्तम्भ की तरह खरे धातु से भी बढ़कर अद्वितीय टाइटेनियम में बनी है, वे इस चुनौती से भी पार पा लेंगे. उनके मतदाता उनकी खातिर त्याग करने से पीछे नहीं हटेंगे. इस भावना को हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने दिप्रिंट के ‘ऑफ द कफ’ कार्यक्रम में मुझसे और मेरी सहयोगी चितलीन सेठी से चंडीगढ़ में इसी महीने बातचीत में बहुत शानदार तरीके से व्यक्त किया.

उन्होंने कहा कि जब राष्ट्रवादी उभार आता है तब जनता खुशी-खुशी आर्थिक त्याग करने से भी पीछे नहीं हटती, तब मुश्किलें भी लोगों में एकता की भावना जगा देती हैं. इसकी मिसाल— देखिए कि पूरा देश चंद्रयान-विक्रम को चंद्रमा पर उतरते हुए देखने के लिए किस तरह रात के 2 बजे तक जागता रहा, भले ही उसकी विफलता ने निराश किया.
इसका अर्थ यह हुआ कि इस तरह की घटनाएं और सुर्खियां लोगों को और मोदी की लोकप्रियता को बुलंदी पर रखती रहेगी, भले ही अर्थव्यवस्था लस्तपस्त होती रहे. मिसाल के लिए ह्यूस्टन में आयोजित ‘हाउडी मोदी नाइट’ के लिए लोगों के मूड को देखिए.

नरेंद्र मोदी के निरंतर उत्कर्ष ने राजनीतिक विश्लेषण के पारंपरिक मानकों को बेमानी कर दिया है. भारत ने नोटबंदी की उनकी सरासर गलती को तो माफ कर ही दिया है. भारी बेरोजगारी के बावजूद मोदी का चुनाव के मोर्चे पर कोई घाटा होता नहीं दिख रहा है. चुनाव के दौरान यात्राओं में कई आम, गरीब लोगों से हमने यह कहते हुए जरूर सुना कि वे परेशान हैं मगर यह तो ‘देश के लिए’ थोड़ा-सा त्याग है. यह नामुमकिन नहीं है कि लोग मोदी पर इसी तरह सद्भाव बरसाते रहें. सुर्खियों में बने रहने की तरकीब, नाटकीयता और नई स्मार्ट स्कीमें— मसलन पहले से जारी एलपीजी, शौचालय, ग्रामीण आवास, मुद्रा कर्ज़ जैसे सफल कार्यक्रमों के अलावा ‘नल से जल’, आयुष्मान भारत, आदि— तो काम आएंगी ही (और मैं यह बिना लाग-लपेट के कह रहा हूं). लेकिन एक पेंच है.

अपने पहले कार्यकाल में सुस्त वृद्धि दर के बावजूद वे इन सबके लिए पैसे तो जुटा पाए— मूलतः अतिरिक्त एक्साइज ड्यूटी के जरिए साढ़े चार साल में 11 खरब रुपये. लेकिन अब जबकि वृद्धि दर के बिना अतिरिक्त पैसे जुटा पाना असंभव होगा. और, अगर कच्चे तेल की कीमतें बढ़ीं— जिसकी उम्मीद तो नहीं है मगर जो असंभव भी नहीं है— तो यह इस राजनीतिक अर्थव्यवस्था को चौपट कर देगी.


यह भी पढ़ें : मोदी-शाह की जोड़ी बदले की राजनीति को एक नये स्तर तक ले गई है


इन दिनों दुनियाभर में दक्षिणपंथी ‘समाजवाद’ का बोलबाला है. इसलिए आप टैक्स बढ़ाते, खर्च करते, वितरण करते हुए जीत दर्ज करते जा सकते हैं. लेकिन अगर वृद्धि दर गिरकर 1980 वाले स्तर पर आ गई या स्थिर हो गई, तो जैसा कि टी.एन. नाइनन इन पन्नों पर लिख चुके हैं, टैक्स लगाने के लिए भी कुछ बचा नहीं रह जाएगा. इस बार बजट में पूंजीगत लाभ पर टैक्स को बढ़ा दिया गया और सूचीबद्ध कंपनियों द्वारा शेयरों की बायबैक पर एक नया टैक्स लागू कर दिया गया.
मोदी से पहले इतनी लोकप्रियता इंदिरा गांधी ने अर्जित की थी. बांग्लादेश की मुक्ति के बाद 1972 के शुरू में वे अपने चरम उत्कर्ष पर थीं. लेकिन अपने विनाशकारी वामपंथी झुकाव के कारण उन्होंने लगातार कई भयानक आर्थिक भूलें कर डालीं. वैसे, उस समय गरीबों को ये बहुत पसंद आई थीं और जाहिर है कि अमीरों को इनसे नुकसान होता दिखा.

इसी तर्क ने निर्मला सीतारामण के बजट को प्रेरित किया और प्रभावी टैक्स 42.7 प्रतिशत तक जा पहुंचा. हर कोई जानता था कि इससे कोई अतिरिक्त राजस्व नहीं हासिल होने वाला है. टैक्स वसूली में गिरावट आई है. लेकिन अमीर लोग नाराज हैं और शिकायत कर रहे हैं. इससे गरीबों को तो खुश हो जाना चाहिए था. जो फॉर्मूला 1969-73 में इंदिरा गांधी के लिए काम कर गया था वह आज हमारे लिए भी कारगर होना चाहिए था, सिवाए इसके कि जो इंदिरा 1969-73 में कोई गलती नहीं कर सकती थीं, वे 1974 के मध्य तक कुछ भी सही करती नहीं नज़र आईं. उनके राष्ट्रीयकरण और राष्ट्रवाद ने मिलकर अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया. सोवियत संघ से प्रेरणा लेने वाले अपने सलाहकारों के कहने पर उन्होंने अनाज व्यापार का राष्ट्रीयकरण करने की भयंकर भूल कर डाली. इसने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को इतनी भारी चोट पहुंचाई कि उन्हें एक समाजवादी कहर को वापस लेने पर मजबूर होना पड़ा. इसकी तुलना मोदी सरकार के 1.45 लाख करोड़ की टैक्स छूट से कीजिए. यह होश खो देने की मिसाल है.

इंदिरा गांधी का पतन नाटकीय था. उनके लिए और भी कई बुरी बातें हुईं- अरब-इजराएल योम किप्पुर युद्ध, इसके बाद ‘ओपेक’ का ऑपरेशन, और तेल की कीमतों का झटका. इन सबका असर वैसा ही हुआ जैसा कि अप्रत्याशित आपदाओं का होता है. 1974 के मध्य तक इंदिरा का खेल बिगड़ चुका था. पोखरण-1 परीक्षण, सिक्किम का विलय, कुछ भी जनता में त्याग की भावना जगाने वाला राष्ट्रवादी जोश न पैदा कर सका. बढ़ती बेरोजगारी और 30 प्रतिशत (जी हां 30 प्रतिशत) की सीमा को छू चुकी मुद्रास्फीति के होते यह मुमकिन भी नहीं था.


यह भी पढ़ें : हिम्मती, यारों के यार, दिलदार और एसडी बर्मन के मुरीद-ऐसे थे दोस्त अरुण जेटली


मोदी सरीखा नेता एक सहस्राब्दी में शायद एक ही पैदा होता है, जो टाइटेनियम का बना होता है और वह इतिहास को भी बदल डालता है. या हो सकता है, जैसा कि उनके पक्के प्रशंसक कहते हैं, वे अर्थव्यवस्था को अपने हाथ में लेंगे और कोई चमत्कार कर डालेंगे. हम केवल यही उम्मीद करेंगे कि यह सच हो जाए.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments